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भ्रमरगीत-सार/२६०-मधुकर कान्ह कही नहिं होहीं

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १७९

 

मधुकर! कान्ह कही नहिं होहीं।
यह तौ नई सखी सिखई है निज अनुराग बरोही[]
सँचि राखी कूबरी-पीठि पै ये बातैं चकचोही[]
स्याम सुगाहक पाय, सखी री, छार दिखायो मोही॥
नागरमनि जे सोभा-सागर जग जुवती हँसि मोही।
लियो रूप[] है ज्ञान ठगौरी, भलो ठग्यो ठग वोही।
है निर्गुन सरवरि कुबरी अब घटी करी हम जोही॥
सूर सो नागरि जोग दीन जिन तिनहिं आज सब सोही॥२६०॥

  1. बरोही=बल से।
  2. चकचोही=चुहल की।
  3. लियो रूप=रूप ले लिया, निराकार कर दिया, बदले में ठगकर ज्ञान दे दिया।