भ्रमरगीत-सार/२६०-मधुकर कान्ह कही नहिं होहीं
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मधुकर! कान्ह कही नहिं होहीं।
यह तौ नई सखी सिखई है निज अनुराग बरोही[१]॥
सँचि राखी कूबरी-पीठि पै ये बातैं चकचोही[२]।
स्याम सुगाहक पाय, सखी री, छार दिखायो मोही॥
नागरमनि जे सोभा-सागर जग जुवती हँसि मोही।
लियो रूप[३] है ज्ञान ठगौरी, भलो ठग्यो ठग वोही।
है निर्गुन सरवरि कुबरी अब घटी करी हम जोही॥
सूर सो नागरि जोग दीन जिन तिनहिं आज सब सोही॥२६०॥