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भ्रमरगीत-सार/२६९-मधुकर यह कारे की रीति

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १८३

 

मधुकर! यह कारे की रीति।
मन दै हरत परायो सर्बस करै कपट की प्रीति।
ज्यों षटपद अम्बुज के दल में बसत निसा रति मानी।
दिनकर उए अनत उड़ि बैठैं फिर न करत पहिचानि॥
भवन भुजंग पिटारे पाल्यो ज्यों जननी जनि तात।
कुल-करतूति जाति नहिं कबहूं सहज सो डसि भजि जात॥
कोकिल काग कुरंग स्याम की छन छन सुरति करावत।
सूरदास, प्रभु को मुख देख्यो निसदिन ही मोहिं भावत॥२६९॥