भ्रमरगीत-सार/२६९-मधुकर यह कारे की रीति

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मधुकर! यह कारे की रीति।
मन दै हरत परायो सर्बस करै कपट की प्रीति।
ज्यों षटपद अम्बुज के दल में बसत निसा रति मानी।
दिनकर उए अनत उड़ि बैठैं फिर न करत पहिचानि॥
भवन भुजंग पिटारे पाल्यो ज्यों जननी जनि तात।
कुल-करतूति जाति नहिं कबहूं सहज सो डसि भजि जात॥
कोकिल काग कुरंग स्याम की छन छन सुरति करावत।
सूरदास, प्रभु को मुख देख्यो निसदिन ही मोहिं भावत॥२६९॥