भ्रमरगीत-सार/२७६-मधुप तुम देखियत हौ चित कारे

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मधुप! तुम देखियत हौ चित कारे।
कालिंदीतट पार बसत हौ, सुनियत स्याम-सखा रे!
मधुकर, चिहुर, भुजंग, कोकिला अवधिन हीं दिन टारे।
वै अपने सुख ही के राजा तजियत यह अनुहारे॥
कपटी कुटिल निठुर हरि मोहीं दुख दै दूरि सिधारे।
बारक बहुरि कबै आवैंगे नयनन साध निवारे॥
उनकी सुनै सो आप बिगोबै चित चोरत बटमारे।
सूरदास प्रभु क्यों मन सानै सेवक करत निनारे[१]॥२७६॥

  1. निनारे=अलग।