भ्रमरगीत-सार/२७५-मधुकर! कासों कहि समझाऊँ
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मधुकर! कासों कहि समझाऊँ?
अंग अंग गुन गहे स्याम के, निर्गुन काहि गहाऊँ?
कुटिल कटाच्छ बिकट सायक सम, लागत मरम न जाने।
मरम गए उर फोरि पिछौं हैं पाछे पै अहटाने[१]॥
घूमत रहत सँभारत नाहिंन, फेरि फेरि समुहाने।
टूक टूक ह्वै रहे ढोर[२] गहि पाछे पग न पराने॥
उठत कबंध जुद्ध जोधा ज्यों बाढ़त संमुख हेत।
सूर स्याम अब अमृत-बृष्टि करि सींचि प्रान किन देत?॥२७५॥