बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १८६ से – १८७ तक
राग सारंग
देखियत कालिंदी अति कारी। कहियो, पथिक! जाय हरि सों ज्यों भई बिरह-जुर[१]-जारी॥ मनो पलिका[२] पै परी धरनि धँसि तरँग तलफ तनु भारी[३]।
तटबारू उपचार-चूर[४] मनो, स्वेद-प्रवाह पनारी[५]॥ बिगलित कच कुस कास[६] पुलिन मनो, पंक जु कज्जल सारी। भ्रमर मनो मति भ्रमत चहूं दिसि, फिरति है अंग दुखारी॥ निसिदिन चकई-व्याज बकत मुख, किन मानहुँ अनुहारी। सूरदास प्रभु जो जमुना-गति सो गति भई हमारी॥२७८॥