बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १८७
सुनियत मुरली देखि लजात। दूरहि तें सिंहासन बैठे, सीस नाय मुसकात॥ सुरभी लिखी चित्र भीतिन पर तिनहिं देखि सकुचात। मोरपंख को बिजन[१] बिलोकत बहरावत कहि बात॥ हमरी चरचा जो कोउ चालत, चालत ही चपि[२] जात। सूरदास ब्रज भले बिसार्यो, दूध दही क्यों खात?॥२७९॥