बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ९९
मृगत्वच, भस्म, अधारि[१], जटा को को इतनो अवराधै? जाकि कहूं थाह नहिं पैए अगम, अपार, अगाधै। गिरिधर लाल छबीले मुख पर इते बाँध[२] को बाँधै? आसन, पवन विभूति मृगछाला ध्याननि को अवराधै? सूरदास मानिक परिहरि कै राख गाँठि को बाँधै? ॥२७॥