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भ्रमरगीत-सार/२८२-बरु ये बदराऊ बरसन आए

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १८८

 

बरु ये बदराऊ बरसन आए।
अपनी अवधि जानि, नँदनंदन! गरजि गगन घन छाए॥
सुनियत है सुरलोक बसत सखि, सेवक सदा पराए[]
चातक-कुल की पीर जानि कै तेउ तहाँ तें धाए॥
द्रुम किए हरित, हरषि बेली मिलि, दादुर मृतक जिवाए।
छाए निबिड़ नीर तृन जहँ तहँ पँछिन हूँ प्रति भाए॥
समझति नहिं सखि! चूक आपनी बहुतै दिन हरि लाए।
सूरदास स्वामी करुनामय मधुबन बसि बिसराए॥२८२॥

  1. पराए=दूसरे के अर्थात् इंद्र के।