भ्रमरगीत-सार/२८१-कोउ सखि नई चाह सुनि आई

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कोउ सखि नई चाह[१] सुनि आई।
यह ब्रजभूमि सकल सुरपति पै[२] मदन मिलिक[३] करि पाई।
घन धावन, बगपाँति पटो[४] सिर, बैरख[५] तड़ित सुहाई॥
बोलत पिक चातक ऊँचे सुर, मनो मिलि देत दुहाई।
दादुर मोर चकोर बदत सुक सुमन समीर सुहाई॥
चाहत कियो बास वृंदाबन, बिधि सों कहा बसाई?
सीवँ[६] न चापि सक्यो तब कोऊ, हुते बल कुँवर कन्हाई।
अब सुनि सूर स्याम केहरि बिनु ये करिहैं ठकुराई[७]॥२८१॥

  1. चाह=खबर।
  2. पै=से।
  3. मिलिक=मिलकियत, जागीर।
  4. पटो=पट, पगड़ी।
  5. बैरख=पताका, झंडा।
  6. सींव=सीमा, हद। सीवँ न चापि सक्यो=हद पर पैर न रख सकता था।
  7. यह पद तुलसी की 'श्रीकृष्ण-गीतावली' में भी है।