भ्रमरगीत-सार/२८६-उघरि आयो परदेसी को नेहु
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काहे को तुम सर्बस अपनो हाथ पराए देहु।
उन जो महा ठग मथुरा छाँड़ी, सिंधुतीर कियो गेहु॥
अब तौ तपन महा तन उपजी, बाढ्यो मन संदेहु।
सूरदास बिह्वल भइँ गोपी, नयनन्ह बरस्यो मेहु॥२८६॥
बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १८९ से – १९० तक
काहे को तुम सर्बस अपनो हाथ पराए देहु।
उन जो महा ठग मथुरा छाँड़ी, सिंधुतीर कियो गेहु॥
अब तौ तपन महा तन उपजी, बाढ्यो मन संदेहु।
सूरदास बिह्वल भइँ गोपी, नयनन्ह बरस्यो मेहु॥२८६॥