सखी री! हरिहि दोष जनि देहु।
जातें इते मान दुख पैयत हमरेहि कपट सनेहु॥
विद्यमान अपने इन नैनन्ह सूनो देखति गेहु।
तदपि सूल-ब्रजनाथ-बिरह तें भिदि न होत बड़ बेहु[१]॥
कहि कहि कथा-पुरातन ऊधो! अब तुम अंत न लेहु।
सूरदास तन तो यों ह्वै है ज्यों फिरि फागुन मेहु[२]॥२८५॥