भ्रमरगीत-सार/२८८-तुम्हरे बिरह ब्रजनाथ अहो प्रिय! नयनन नदी बढ़ी

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राग नट

तुम्हरे बिरह ब्रजनाथ अहो प्रिय! नयनन नदी बढ़ी।
लीने जात निमेष-कूल दोउ एते मान चढ़ी॥
गोलक नव-नौका न सकत चलि, स्यो[१] सरकनि[२] बढ़ि बोरति।
ऊरध स्वासु-समीर तरंगन तेज तिलक-तरु तोरति[३]
कज्जल कीच कुचील[४] किए तट अंतर अधर कपोल।
रहे पथिक जो जहाँ सो तहाँ थकि हस्त[५] चरन मुख-बोल॥

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नाहिंन और उपाय रमापति बिन दरसन छन जीजै।
अस्रु-सलिल बूड़त सब गोकुल सूर सुकर गहि लीजै॥२८८॥

  1. स्यो=सहित।
  2. सरकनि=गति या प्रवाह से।
  3. तिलक=टीका या तिलक किनारे के पेड़ हैं (तिलक एक वृक्ष भी है)।
  4. कुचील=गँदा, मैला।
  5. हस्त चरन=ये सब मानों पथिक हैं।