भ्रमरगीत-सार/२९१-दधिसुत जात हौ वहि देस
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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १९१
राग केदारो
दधिसुत[१] जात हौ वहि देस।
द्वारका हैं स्यामसुंदर सकल भुवन-नरेस॥
परम सीतल अमिय-तनु तुम कहियो यह उपदेस।
काज अपनो सारि, हमकों छाँड़ि रहे बिदेस॥
नंदनंदन जगतबंदन धरहु नटवर-भेस।
नाथ! कैसे अनाथ छाँड़्यो कहियो सूर सँदेस॥२९१॥