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राग केदारो
दधिसुत[१] जात हौ वहि देस। द्वारका हैं स्यामसुंदर सकल भुवन-नरेस॥ परम सीतल अमिय-तनु तुम कहियो यह उपदेस। काज अपनो सारि, हमकों छाँड़ि रहे बिदेस॥ नंदनंदन जगतबंदन धरहु नटवर-भेस। नाथ! कैसे अनाथ छाँड़्यो कहियो सूर सँदेस॥२९१॥