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भ्रमरगीत-सार/२९०-अँखियाँ अजान भईं

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १९१

 

राग कान्हरो

अँखियाँ अजान भईं।
एक अंग अवलोकत हरि को और हुती सो गई।
यों भूली ज्यों चोर भरे घर चोरी निधि न लई।
बदलत[] भोर भयो पछितानी, कर तें छाँड़ि दई॥
ज्यों मुख परिपूरन हो त्यों ही पहिलेइ क्यों न रई।
सूर सकति अति लोभ बढ्यो है, उपजति पीर नई॥२९०॥

  1. बदलत=यह लें कि यह लें, यही सोचते और वस्तु बदलते।