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भ्रमरगीत-सार/२९३-कोउ माई बरजै या चंदहि

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १९२ से – १९३ तक

 

कोउ माई बरजै या चंदहि।
करत है कोप बहुत हम्ह ऊपर, कुमुदिनि करत अनंदहि॥
कहाँ कुहू, कहँ रवि अरु तमचुर, कहाँ बलाहक[] कारे[]?
चलत न चपल, रहत रथ थकि करि, बिरहिनि के तन जारे॥
निंदति सैल, उदधि, पन्नग को, सापति कमठ कठोरहिं[]
देति असीस जरा[] देवी को, राहु केतु किन जोरहि?

ज्यों जलहीन मीन-तन तलफत त्योंहि तपत ब्रजबालहि।
सूरदास प्रभु बेगि मिलावहु मोहन मदन-गोपालहि॥२९३॥

  1. बलाहक=बादल।
  2. कहाँ कुहू........कारे=इन सबके आने से चंद्रमा या तो छिप जाता है या मन्द हो जाता है।
  3. निंदति..........कठोरहिं=इनकी निंदा करती है, क्यों कि उस समुद्र मंथन में ये सब सहायक हुए थे जिसमें चंद्रमा निकला था।
  4. जरा=एक राक्षसी, जिसने जरासंध के शरीर के दो खंड जोड़े थे।