ऊरध स्वास समीर तेज अति दुख अनेक द्रुम डारे।
बदन सदन करि बसे बचन-खग[१] ऋतु पावस के मारे॥
ढरि ढरि बूँद परत कंचुकि पर मिलि अंजन सों कारे।
मानहुं सिव की पर्नकुटी बिच धारा स्याम निनारे[२]॥
सुमिरि सुमिरी गरजत निसिबासर अस्रु-सलिल के धारे।
बूड़त ब्रजहि सूर को राखै बिनु गिरिवरधर प्यारे॥२९९॥