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भ्रमरगीत-सार/३००-जौ तू नेक हू उड़ि जाहि

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १९५

 

जौ तू नेक हू उड़ि जाहि।
बिबिध बचन सुनाय बानी यहाँ रिझवत काहि॥
पतित[] मुख पिक परुष पसु लौं कहा इतो रिसाहि।
नाहिंनै कोउ सुनत समुझत, बिकल बिरहिनि थाहि॥
राखि लेबी अवधि लौं तनु, मदन! मुख जनि खाहि।
तहूँ तौ तन-दगध देख़्यो, बहुरि का समुझाहि॥
नन्दनन्दन को बिरह अति कहत बनत न ताहि।
सूर प्रभु ब्रजनाथ बिनु लै मौन[] मोहि बिसाहि॥३००॥

  1. पतित मुख=मुँह नीचा किए।
  2. लै मौन......बिसाहि=मौन द्वारा मुझको मोल ले ले अर्थात् चुप रहकर मुझे कृतज्ञ कर।