भ्रमरगीत-सार/३०४-मेरो मन मथुराइ रह्यो

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राग धनाश्री

मेरो मन मथुराइ रह्यो।
गयो जो तन तें बहुरि न आयो, लै गोपाल गह्यो॥
इन नयनन को भेद न पाया, केइ भेदिया कह्यो।
राख्यो रूप चोरि चित-अन्तर, सोइ हरि सोध लह्यो[१]

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आए बोलत ता बिन ऊधो 'मनि दै लेहु मह्यो'[२]
निर्गुन साँटि[३] गोबिंदहि माँगत, क्यों दुख जात सह्यो॥
जेहि आधार आजु लौं यह तनु ऐसे ही निबह्यो।
सोइ छिंड़ाय[४] लेत सुनु सूर चाहत हृदय दह्यो॥३०४॥

  1. सोध लह्यो=पता पा गए कि मेरी मूर्ति राधा के हृदय में है।
  2. मह्यो=मही, मट्ठा।
  3. (२) साँटि=साँटे में, बदले में।
  4. छिड़ाय लेत=छीन लेते हैं।