भ्रमरगीत-सार/३०४-मेरो मन मथुराइ रह्यो
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राग धनाश्री
मेरो मन मथुराइ रह्यो।
गयो जो तन तें बहुरि न आयो, लै गोपाल गह्यो॥
इन नयनन को भेद न पाया, केइ भेदिया कह्यो।
राख्यो रूप चोरि चित-अन्तर, सोइ हरि सोध लह्यो[१]॥
बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १९६ से – १९७ तक
राग धनाश्री
मेरो मन मथुराइ रह्यो।
गयो जो तन तें बहुरि न आयो, लै गोपाल गह्यो॥
इन नयनन को भेद न पाया, केइ भेदिया कह्यो।
राख्यो रूप चोरि चित-अन्तर, सोइ हरि सोध लह्यो[१]॥