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राग धनाश्री
मेरो मन मथुराइ रह्यो। गयो जो तन तें बहुरि न आयो, लै गोपाल गह्यो॥ इन नयनन को भेद न पाया, केइ भेदिया कह्यो। राख्यो रूप चोरि चित-अन्तर, सोइ हरि सोध लह्यो[१]॥
आए बोलत ता बिन ऊधो 'मनि दै लेहु मह्यो'[२]। निर्गुन साँटि[३] गोबिंदहि माँगत, क्यों दुख जात सह्यो॥ जेहि आधार आजु लौं यह तनु ऐसे ही निबह्यो। सोइ छिंड़ाय[४] लेत सुनु सूर चाहत हृदय दह्यो॥३०४॥