भ्रमरगीत-सार/३११-ऐसे माई पावस ऋतु प्रथम सुरति करि माधवजू आवै री
राग मलार
ऐसे माई पावस ऋतु प्रथम सुरति करि माधवजू आवै री।
बरन बरन अनेक जलधर अति मनोहर बेष।
यहि समय यह गगन-सोभा सबन तें सुबिसेष॥
उड़त बक, सुक-बृन्द राजत, रटत चातक मोर।
बहुत भाँति चित हित-रुचि[१] बाढ़त दामिनी घनघोर[२]॥
धरनि-तनु तृनरोम हर्षित प्रिय समागम जानि।
और द्रुम बल्ली बियोगिनी मिलीं पति पहिचानि॥
हस, पिक, सुक, सारिका अलिपुंज नाना नाद।
मुदित मंगल मेघ बरसत, गत बिहंग-बिषाद॥
कुटज, कुन्द, कदम्ब, कोबिद[३], कर्निकार[४], सु कंजु।
केतकी, करबीर[५], चिलक[६] बसन्त-सम तरु मंजु॥
सघन तरु कलिका अलंकृत, सुकृत सुमन सुबास।
निरखि नयनन्ह होत मन माधव-मिलन की आस॥
मनुज मृग पसु पच्छि परिमित[७] औ अमित जे नाम।
सुख स्वदेस बिदेस प्रीतम सकल सुमिरत धाम॥
ह्वै है न चित्त उपाय सोच न कछू परत बिचार।
नाहिं ब्रजबासी बिसारत निकट नन्दकुमार॥
सुमिरि दसा दयाल सुंदर ललित गति मृदु हास।
चारु लोल कपोल कुण्डल डोल बलित-प्रकास॥
बेनु कर कल गीत गावत गोपसिसु बहु पास।
सुदिन कब यहि आँखि देखैं बहुरि बाल-बिलास॥
बार बारहिं सुधि रहति अति बिरह व्याकुल होति।
बात-बेग[८] सो लगै जैसो दीन दीपक ज्योति॥
सुनि बिलाप कृपाल सूर दास प्रान प्रतीति।
दरस दै दुख दूरि करिहैं, सहि न सकिहैं प्रीति॥३११॥