भ्रमरगीत-सार/३४६-ब्रज तें द्वै ऋतु पै न गई
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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २१२
राग गौरी
ब्रज तें द्वै ऋतु पै न गई।
पावस अरु ग्रीषम, प्रचंड, सखि! हरि बिनु अधिक भई॥
ऊरध स्वास समीर, नयन घन, सब जलजोग जुरे।
बरषि जो प्रगट किए दुख दादुर हुते जे दूरि दुरे[१]॥
बिषम बियोग दुसह दिनकर सम दिनप्रति उदय करे।
हरि-बिधु बिमुख भए कहि सूर को तनताप हरे॥३४६॥