भ्रमरगीत-सार/३५५-मधुबन सब कृतज्ञ धर्मीले

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राग सारंग

मधुबन सब कृतज्ञ धर्मीले।
अति उदार परहित डोलत हैं, बोलत बचन सुसीले॥
प्रथम आय गोकुल सुफलकसुत लै मधुपुरिही सिधारे।
वहाँ कंस ह्याँ हम दीनन को दूनो काज सँवारे॥
हरि को सिखै सिखावन हमको अब ऊधो पग धारे।
ह्वाँ दासी-रति की कीरति कै, यहाँ जोग बिस्तारे॥
अब या बिरह-समुद्र सबै हम बूड़ी चहति नहीं[१]
लीला सगुन नाव ही, सुनु अलि, तेहि अवलंब रही॥
अब, निर्गुनहि गहे जुवतीजन पारहि कहौ गई को?
सूर अक्रूर छपद के मन में नाहिंन त्रास दई को॥३५५॥

  1. नहीं=नधी हुई, जुती हुई।