भ्रमरगीत-सार/३५७-जोग-सँदेसो ब्रज में लावत

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राग धनाश्री

जोग-सँदेसो ब्रज में लावत।
थाके चरन तिहारे, ऊधो! बार बार के धावत॥
सुनिहै कथा कौन निर्गुन की, रचि पचि[१] बात बनावत।
सगुन-सुमेरु प्रगट देखियत, तुम तृन की ओट[२] दुरावत॥
हम जानत परपंच स्याम के, बातन ही बहरावत।
देखी सुनी न अब लौं कबहूँ, जल मथे माखन आवत॥
जोगी जोग-अपार सिंधु में ढूँढ़े हू नहिं पावत।
ह्याँ हरि प्रगट प्रेम जसुमति के ऊखल आप बँधावत॥
चुप करि रहौ, ज्ञान ढँकि राखौ; कत हौ बिरह बढ़ावत।
नंदकुमार कमलदल-लोचन कहि को जाहि न भावत?
काहे को बिपरीत बात कहि सब के प्रान गँवावत।
सोहै सो कित सूर अबलनि जेहि निगम नेति कहि गावत?॥३५७॥

  1. पचि=हैरान होकर।
  2. सगुन-सुमेरु......ओट=भगवान् के सगुण स्वरूप ऐसे बड़े और प्रत्यक्ष पदार्थ को अत्यन्त सूक्ष्म निर्गुण ब्रह्म की ओट में छिपाया चाहते हो।