बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १०५
कैसे रहैं रूपरसराची ये बतियाँ सुनि रूखी॥ अवधि गनत इकटक मग जोवत तब एती नहिं झूखी[१]। अब इन जोग-सँदेसन ऊधो अति अकुलानी दूखी॥ बारक[२] वह मुख फेरि दिखाओ दुहि पय पिवत पतूखी[३]। सूर सिकत हठि नाव चलाओ ये सरिता हैं सूखी[४]॥४२॥