भ्रमरगीत-सार/४-हरि गोकुल की प्रीति चलाई
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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ८७
सुनहु उपँगसुत मोहिं न बिसरत ब्रजबासी सुखदाई॥
यह चित होत जाउँ मैं अबही, यहाँ नहीं मन लागत।
गोप सुग्वाल गाय बन चारत अति दुख पायो त्यागत॥
कहँ माखन चोरी? कह जसुमति 'पूत जेंव' करि प्रेम।
सूर स्याम के बचन सहित[१] सुनि ब्यापत आपन नेम॥४॥