भ्रमरगीत-सार/६०-अपनी सी कठिन करत मन निसिदिन
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कहि कहि कथा, मधुप, समुझावति तदपि न रहत नंदनंदन बिन॥
बरजत श्रवन सँदेस, नयन जल, मुख बतियाँ कछु और चलावत।
बहुत भाँति चित धरत निठुरता सब तजि और यहै जिय आवत॥
कोटि स्वर्ग सम सुख अनुमानत हरि-समीप-समता नहिं पावत।
थकित सिंधु-नौका के खग ज्यों फिरि फिरि फेरि वहै गुन गावत॥
जे बासना न बिदरत अंतर[२] तेइ तेइ अधिक अनूअर[३] दाहत।
सूरदास परिहरि न सकत तन बारक बहुरि मिल्यो है चाहत॥६०॥