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कहा करौं निर्गुन लै कै हौं जीवहु कान्ह हमारे॥ लोटत नीच परागपंक में पचत, न आपु सम्हारे। बारम्बार सरक[१] मदिरा की अपरस[२] कहा उघारे॥
तुम जानत हमहूँ वैसी हैं जैसे कुसुम तिहारे। घरी पहर सबको बिलमावत जेते आवत कारे॥ सुन्दरस्याम कमलदल-लोचन जसुमति-नँद-दुलारे। सूर स्याम को सर्बस अर्प्यो अब कापै हम लेहिं उधारे[३]॥६१॥