सामग्री पर जाएँ

भ्रमरगीत-सार/६९-प्रकृति जोई जाके अंग परी

विकिस्रोत से
भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ११४ से – ११५ तक

 

राग धनाश्री
प्रकृति जोई जाके अंग परी।

स्वान-पूँछ कोटिक जो लागै सूधि न काहु करी॥
जैसे काग भच्छ नहिं छाँड़ै जनमत जौन घरी।

धोये रंग जात कहु कैसे ज्यों कारी कमरी?
ज्यों अहि डसत उदर नहिं पूरत ऐसी धरनि धरी[]
सूर होउ सो होउ सोच नहिं, तैसे हैं एउ री॥६९॥

  1. धरनि धरी=टेक पकड़ी।