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भ्रमरगीत-सार/७२-नयननि वहै रूप जौ देख्यो

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भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ११५ से – ११६ तक

 

राग धनाश्री
नयननि वहै रूप जौ देख्यो।

तौ ऊधो यह जोबन जग को साँचु सफल करि लेख्यो॥
लोचन चारु चपल खंजन, मनरँजन हृदय हमारे।

रुचिर कमल मृग मीन मनोहर स्वेत अरुन अरु कारे॥
रतन जटित कुंडल श्रवननि वर, गंड कपोलनि झाँई।
मनु दिनकर-प्रतिबिंब मुकुट महँ ढूँढ़त यह छबि पाई॥
मुरली अधर विकट भौंहैं करि ठाढ़े होत त्रिभंग।
मुकुट माल उर नीलसिखर तें धँसि धरनी ज्यों गंग॥
और भेस को कहै बरनि सब अँग अँग केसरि खौर।
देखत बनै, कहत रसना सो सूर बिलोकत और[]॥७२॥

  1. कहत.......बिलोकत और=उसको जीभ कहती है जो देखती नहीं, देखता और कोई (नेत्र) है।