भ्रमरगीत-सार/७३-नयनन नंदनंदन ध्यान

विकिस्रोत से
भ्रमरगीत-सार  (1926) 
द्वारा रामचंद्र शुक्ल

[ ११६ ]

राग नट
नयनन नंदनंदन ध्यान।

तहाँ लै उपदेस दीजै जहाँ निरगुन ज्ञान॥
पानिपल्लव-रेख गनि गुन-अवधि बिधि-बंधान।
इते पर कहि कटुक बचनन हनत जैसे प्रान॥
चंद्र कोटि प्रकास मुख, अवतंस कोटिक भान।
कोटि मन्मथ वारि छबि पर, निरखि दीजित दान॥
भृकुटि कोटि कुदंड[१] रुचि अवलोकनी[२] सँधान[३]
कोटि बारिज बंक नयन कटाच्छ कोटिक बान॥
कंबु ग्रीवा रतनहार उदार उर मनि जान।
आजानुबाहु उदार अति कर पद्म सुधानिधान॥
स्याम तन पटपीत की छवि करै कौन बखान?
मनहु निर्तत नील घन में तड़ित अति दुतिमान॥
रासरसिक गोपाल मिलि मधु अधर करती पान।
सूर ऐसे रूप बिनु कोउ कहा रच्छक आन? ॥७३॥

  1. कुदंड=कोदंड, धनुष।
  2. अवलोकनी=चितवन।
  3. संधान=धनुष खींचना।