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भ्रमरगीत-सार/७९-कहिबे जीय न कछु सक राखो

विकिस्रोत से
भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ११७

 

राग सारंग
कहिबे जीय न कछु सक राखो।

लावा मेलि दए[] हैं तुमको बकत रहौं दिन आखों[]
जाकी बात कहौ तुम हमसों सो धौं कहौ को काँधी[]
तेरो कहो सो पवन भूस भयो, वहो जात ज्यों आँधी॥
कत श्रम करत, सुनत को ह्याँ है, होत जो बन को रोयो।
सूर इते पै समुझत नाहीं, निपट दई को खोयो[]॥७९॥

  1. लावा मेल देना=जादू वा टोटका करके पागल बना देना।
  2. आखों=सारा (सं॰ अक्षय)।
  3. काँधी=अंगीकार की, मानी।
  4. दई को खोयो=गया बीता (स्त्रियों की गाली)।