बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ११७
लावा मेलि दए[१] हैं तुमको बकत रहौं दिन आखों[२]॥ जाकी बात कहौ तुम हमसों सो धौं कहौ को काँधी[३]। तेरो कहो सो पवन भूस भयो, वहो जात ज्यों आँधी॥ कत श्रम करत, सुनत को ह्याँ है, होत जो बन को रोयो। सूर इते पै समुझत नाहीं, निपट दई को खोयो[४]॥७९॥