भ्रमरगीत-सार/७८

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त्रिकुटी[१] सँग भ्रूभंग, तराटक[२] नैन नैन लगि लागे।
हँसन प्रकास, सुमुख कुंडल मिलि चंद्र सूर अनुरागे॥
मुरली अधर श्रवन धुनि सो सुनि अनहद शब्द प्रमाने।
बरसत रस रुचि-बचन-सँग, सुख-पद-आनन्द-समाने॥
मंत्र दियो मनजात[३] भजन लगि, ज्ञान ध्यान हरि ही को।
सूर, कहौं गुरु कौन करै, अलि, कौन सुनै मत फीको?॥७८॥

  1. त्रिकुटी=दोनों भौंहों के बीच का स्थान, त्रिकूटचक्र।
  2. तराटक=त्राटक। योग के छः कर्मों में से एक। अनिमेष रूप से
    किसी बिंदु पर दृष्टि गड़ाने का अभ्यास।
  3. मनजात=कामदेव।