त्रिकुटी[१] सँग भ्रूभंग, तराटक[२] नैन नैन लगि लागे।
हँसन प्रकास, सुमुख कुंडल मिलि चंद्र सूर अनुरागे॥
मुरली अधर श्रवन धुनि सो सुनि अनहद शब्द प्रमाने।
बरसत रस रुचि-बचन-सँग, सुख-पद-आनन्द-समाने॥
मंत्र दियो मनजात[३] भजन लगि, ज्ञान ध्यान हरि ही को।
सूर, कहौं गुरु कौन करै, अलि, कौन सुनै मत फीको?॥७८॥