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भ्रमरगीत-सार/९३-जोग की गति सुनत मेरे अंग आगि बई

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जोग की गति सुनत मेरे अंग आगि बई।

सुलगि सुलगि हम रही तन में फूँक आनि दई॥
जोग हमको भोग कुब्‌जहिं, कौने सिख सिखई?
सिंह गज तजि तृनहिं खंडत सुनी बात नई॥
कर्मरेखा मिटति नाहीं जो बिधि आनि ठई।
सूर हरि की कृपा जापै सकल सिद्धि भई॥९३॥