भ्रमरगीत-सार/९६-गोपालहिं कैसे कै हम देति
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गोपालहिं कैसे कै हम देति?
ऊधो की इन मीठी बातन निर्गुन कैसे लेति?
अर्थ, धर्म, कामना सुनावत सब सुख मुकुति-समेति।
जे व्यापकहिं बिचारत बरनत निगम कहत हैं नेति॥
ताकी भूलि गई मनसाहू देखहु जौ चित चेति।
सूर स्याम तजि कौन सकत है, अलि, काकी गति एति॥९६॥