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भ्रमरगीत-सार/९७-उपमा एक न नैन गही

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२४

 

राग गौरी
उपमा एक न नैन गही।

कबिजन कहत कहत चलि आए सुधि करि करि काहू न कही॥
कहे चकोर, मुख-बिधु बिनु जीवन; भँवर न, तहँ उड़ि जात।
हरिमुख-कमलकोस बिछुरे तें ठाले[] क्यों ठहरात?
खंजन मनरंजन जन जौ पै, कबहुँ नाहिं सतरात।
पंख पसारि न उड़त, मंद ह्वै समर[]-समीप बिकात॥
आए बधन ब्याध ह्वै ऊधो, जौ मृग, क्यों न पलाय?
देखत भागि बसै घन बन में जहँ कोउ संग न धाय॥
ब्रजलोचन बिनु लोचन कैसे? प्रति छिन अति दुख बाढ़त।
सूरदास मीनता कछू इक, जल भरि संग न छाँड़त[]॥९७॥

  1. ठाले=ठाले में, अभाव में।
  2. समर=स्मर, कामदेव।
  3. कुछ थोड़ी सी मीनता रह गई है कि जल का संग नहीं छोड़ते, जलभरे रहते हैं। नेत्रों की उपमा मछली से भी दी जाती है।