मानसरोवर १/ज्योति

विकिस्रोत से
मानसरोवर १  (1947) 
द्वारा प्रेमचंद
[ १६६ ]
ज्योति

विधवा हो जाने के बाद वूटी का स्वभाव बहुत कटु हो गया था। जब बहुत जी जलता तो अपने मृति पति को कोसती-आप तो सिधार गये, मेरे लिए यह सारा जञ्जाल छोड़ गये। जब इतनी जल्दी जाना था, तो ब्याह न जाने किस लिए किया। घर में भूनी भाँग नहीं, चले थे ब्याह करने। वह चाहती तो दूसरी सगाई कर लेती। अहीरों में इसका रिवाज है। देखने-सुनने में भी बुरी न थी। दो-एक आदमी तैयार भी थे; लेकिन वूटी पतिव्रता कहलाने के मोह को न छोड़ सकी। और यह सारा क्रोध उतरता था बड़े लड़के मोहन पर, जो अब सोलह साल का था। सोहन अभी छोटा था और मैना लड़की थी। ये दोनों अभी किसी लायक न थे। मगर यह तीनों न होते, तो बूटी को क्यों इतना कष्ट होता । जिसका थोड़ा-सा काम कर देती वही रोटी-कपड़ा दे देता। जब चाहती, किसी के सिर चैठ जातो। अब अगर वह कहीं बैठ जाय, तो लोग यही कहेंगे कि तीन-तीन लड़कों के होते इसे यह क्या सूझी। मोहन भरसक उसका भार हलका करने की चेष्टा करता। गार्यो-भैंसों की सानी-पानी, दुहना- मथना यह सा कर लेता , लेकिन बूटी का मुंह सोधा न होता था। वह रोज एक- न एक खुचड़ निकालती रहती और मोहन ने भी उसकी घुड़कियों की परवा करना छोड़ दिया था। पति उसके सिर गृहस्थी का यह भार पटककर क्यों चला गया। उसे यही गिला था। बेचारी का सर्वनाश हो कर दिया। न खाने का सुख मिला, न पहनने ओढ़ने का, न और किसी बात का। इस घर में क्या आई, मानों मट्ठी में पड़ गई। उसको वैधव्य साधना और अतृप्त भोग-लाल्सा में सदैव द्वन्द्व-सा मचा रहता था और उसकी जलन में उसके हृदय की सारी मृदुता जलकर भस्म हो गई थी। पति के पीछे और कुछ नहीं तो बुटी के पास चार-पाँच सौ के गहने थे; लेकिन एक-एक करके सब उसके हाथ से निकल गये। उसी महल्ले में, उसको बिरादरी में, कितनी ही औरत थी, जो उससे जेठी होने पर भी गहने झमकाकर, आँखों में काजल लगाकर, मांग में सेंदुर को मोटी-सी रेखा डालकर मानों उठे जलाया करती थीं , इसलिए जब उनमें से कोई विधवा हो जाती, तो बूटो को खुशो होतो और यह सारी
[ १६७ ]
लड़कों पर निकालती, विशेषकर मोहन पर । वह शायद सारे संसार को स्त्रियों को अपने ही रूप में देखना चाहती थी। कुत्सा में उसे विशेष आनन्द मिलता था। उसकी वञ्चित लालसा जल न पाकर मोस चाट लेने हो म सन्तुष्ट होतो थी; फिर यह कैसे सम्भव था कि वह मोहन के विषय में कुछ सुने और पेट में डाल ले। ज्यो हो मोहन संध्या समय दूध बेचकर घर आया, वूटी ने कहा-देखती हूँ, तू अब साड बनने पर उतारू हो गया है।

मोहन ने प्रश्न के भाव से देखा --- कैसा साँड़ ! बात क्या है ?

'तू रुपिया से छिप-छिपकर नहीं हँसता-बोलता ? उस पर कहता है, कैसा साफ ? तुझे लाज नहीं आती ! घर में पैसे-पैसे की तंगी है और वहाँ उसके लिए पान लाये लाते हैं, कपड़े रँगाये जाते हैं।'

मोहन ने विद्रोह का भाव धारण किया --- अगर उसने मुझसे चार पैसे के पान मांगे तो क्या करता ? कहता कि पैसे दे तो लाऊँगा। अपनो धोतो रंगाने को दी, तो उसरे रँगाई मांगता?

'महल्ले में एक तू ही बड़ा धन्नासेठ है। और किसी से उसने क्यों न कहा ?'

'यह वह जाने, मैं क्या बताऊँ ?'

'तुझे अब छैला बनने की समझती है। घर में भी कभी एक पैसे के पान लाया ?'

'यहाँ पान किसके लिए लाता?'

'क्या तेरे लेखे घर में सब मर गये?'

'न जानता था, तुम पान खाना चाहती हो।'

'संसार में एक रुपिया हो पान खाने जोग है?'

'शौक-सिंगार की भो तो उमिर होती है।'

बूटी जल उठी। उसे बुढ़िया कह देना उसको सारो साधना पर पानी फेर देना था। बुढ़ापे में उन साधनाओं का महत्त्व ही क्या ? जिस त्याग-कल्पना के बल पर वह सब स्त्रियों के सामने सिर उठाकर चलतो थी, उस पर इतना कठोर आत ! इन्हीं लड़कों के पीछे उसने अपनी जवानी धूल में मिला दो ! उसके आदमी को मरे आज पांच साल हुए। तब उसकी चढ़ती जवानो थी। तीन लड़के भगवान् ने इसके गले मढ़ दिये, नहीं अभी वह है के दिन को। चाहतो तो आम वह भी ओठ लाल किये, पाँव में महावर लगाये, अनवट-बिछुये पहने मठाती फिरती। यह सब कुछ उसने
[ १६८ ]
इन लड़कों के कारन त्याग दिया और आज मोहन उसे बुढ़िया कहता है। रुपिया उसके सामने खड़ी कर दो जाय, तो चुहिया-सी लगे। फिर भी वह जवान है, और बूटी बुढ़िया है।

बोलो --- हाँ और क्या ! मेरे लिए तो अब फटे-चीथड़े पहनने के दिन है। जब तेरा बाप मरा तो मैं रुपिया से दो होबार साल बड़ी थी। उस वक्त कोई घर कर लेती, तो तुम लोगों का कहीं पता न लगता। गली-नालो भीख माँगते फिरते। लेकिन मैं कहे देती हूँ, अगर तू फिर उससे बोला तो या तो तू हो घर में रहेगा या मैं हो रहूँगी।

मोहन ने डरते-डरते कहा --- मैं उसे बात दे चुका हूँ अम्माँ ?

'कैसी बात ?'

'सगाई की।'

'अगर रुपिया मेरे घर में आई, तो झाड़ू मारकर निकाल दूंगी। यह सब उसकी मां की माया है। वही कुठनी मेरे लड़के को मुझसे छोने लेती है। रांड से इतना भी नहीं देखा जाता। चाहती है कि उसे सौत बनाकर छाती पर बैठा दे।'

मोहन ने व्यथित कण्ठ से कहा --- अम्माँ, ईश्वर के लिए चुप रहो। क्यों अपना णनी आप खो रहो हो। मैंने तो समझा था, चार दिन में मैना अपने घर चली जायगी, तुम अकेली पड़ जाओमी। इसलिए उसे लाने की बात सोच रहा था। अगर तुम्हें बुरा लगता है तो जाने दो।

'तू आज से यही आँगन में सोया कर।'

'और गाय-भैसें बाहर पड़ी रहेंगी?'

'पड़ी रहने दे। कोई डाका नहीं पड़ा जाता।'

'मुझ पर तुझे इतना सन्देह है ?'

'तो मैं यहाँ न सोऊंगा।

'तो निकल जा मेरे घर से।'

'हाँ, तेरी यही इच्छा है तो निकल जाऊँगा।'

मैना ने भेजन पकाया। मोहन ने कहा, मुझे भूख नहीं है ! बूटी उसे मनाने के आई। मोइन का युवक-हृदय माता के इस कठोर शासन को किसी तरह स्वीकार नहींं
[ १६९ ]
कर सकता। उसका घर है, ले ले। अपने लिए वह कोई दूसरा ठिकाना ढूंढ़ निका- लेगा। रुपिया ने इसके रूखे जीवन में एक स्निग्धता भर दी थी। जब वह एक अव्यक कामना से 'चञ्चल हो रहा था, जीवन कुछ सूना-सूना लगता था, रुपिया ने नव-वसन्त की भांति भाकर उसे पल्लवित कर दिया। मोहन को जीवन में एक मीठा स्वाद मिलने लगा। कोई काम करता होता; पर ध्यान रुपिया की ओर लगा रहता। सोचता, उसे क्या दे दे कि वह प्रसन्न हो जाय ! अब वह कौन मुंह लेकर उसके पास जाय ? क्या उससे कहे कि अम्माँ ने मुझे तुझसे मिलने को मना किया है ? सभी कल हो तो बरगद के नीचे दोनों में कैसी-कैसी बातें हुई थी। मोहन ने कहा था, रूपा, तुम इतनी सुन्दर हो, तुम्हारे सौ गाइक निकल आयेंगे। मेरे घर में तुम्हारे लिए क्या रखा है। इस पर रुपिया ने जो जवाब दिया था, वह तो संगीत की तरह अब भी उसके प्राणों में बसा हुआ था --- मैं तो तुमको चाहतो हूँ मोहन, अकेले तुमको। परगने के चौधरी हो जाव, तब भी मोहन हो; मजूरो करने लगो, तब भी मोहन - हो। उसी रुपिया से आज वह जाकर कहे-मुझे अब तुम कोई सरोकार नहीं है। 'नहीं, यह नहीं हो सकता। उसे घर की परवाह नहीं है। वह रुपिया के साथ माँ से अलग रहेगा। इस जगह न सही, किसी दुसरे महल्ले में सही। इस वक्त भी रुपिया उसकी राह देख रही होगी। कैसे अच्छे दौड़ लगाती है। कहीं अम्मा सुन पायें कि यह रात को रुपिया के द्वार पर गया था तो परान हो दे दें। दे दें परान ! अपने भाग तो नहीं बखानती कि ऐसी देवो बहू मिली जाती है । न जाने क्यों रुपिया से इतना चिढ़ती हैं। वह जरा पान खा लेती है, परा साड़ी रंगकर पहनती है। बस -यही तो।

चूड़ियों को झंकार सुनाई दी। रुपिया आ रही है। हां, वही है।

रुपिया उसके सिरहाने आकर बोली --- सो गये क्या मोइन ? घड़ी-भर से तुम्हारी राह देख रही हूँ। आये क्यों नहीं ?

मोहन नींद का मक्कर किये पड़ा रहा।

रुपिया ने उसका सिर हिलाकर फिर कहा --- क्या सो गये मोहन ?

उन कोमल उंगलियों के स्पर्श में क्या सिद्धि थी, कौन जाने। मोहन की सारी आत्मा उन्मत्त हो उठी। उसके प्राण मानों बाहर निकलकर रुपिया के चरणों में सम- पित हो जाने के लिए उछल पड़े। देवी घरदान लिये सामने खड़ी है। सारा विश्व
[ १७० ]
जैसे नाच रहा है। उसे मालूम हुआ , जैसे उसका शरीर लुप्त हो गया है, केवल वह एक मधुर स्वर की भौति विश्व की गोद से चिमट हुआ उसके साथ नृत्य कर रहा है।

रुपिया ने फिर कहा --- अभी से सो गये क्या जी ?

मोइन बोला --- हाँ, जरा नींद आ गई थी रूपा ! तुम इस वक्त क्या करने आई!

कहीं अम्माँ देख लें, तो मुझे मार ही डालें।

'तुम आज भाये क्यों नहीं?

'आज अम्मां से लड़ाई हो गई।'

'क्या कहती थी ?

'कहती थी, रुपिया से बोलेगा तो मैं परान दे दूंगी।'

'तुमने पूछा नहीं, रुपिया से क्यों चिढ़ती हो?'

'अब उनकी बात क्या कहूँ रूपा। वह किसी का खाना-पहनना नहीं देख सकता। अब मुझे तुमसे दूर रहना पड़ेगा।'

'मेरा जी तो न मानेगी।'

'ऐसी बात करोगी, तो मैं तुम्हें लेकर भाग जाऊँगा।'

'तुम मेरे पास एक बार रोज भा जाया करो। बस, और मैं कुछ नहीं चाहती।'

'और अम्माँ जो बिगड़ेंगी ?'

'तो मैं समझ गई। तुम मुझे प्यार नहीं करते।'

'मेरा घस होता तो तुमको अपने परान में रख लेता।'

इसी समय घर के किवाड़ खटके। रुपिया भाग गई।

( २ )

मोहन दृसरे दिन सोकर उठा तो उसके हृदय में आनन्द का सागर-सा भरा हुआ था। वह सोहन को बराबर डाँटता रहता था। सोहन भाळसी था। घर के काम- धन्धे में जो न लगता था। आज भी वह मांगन में बैठा अपनी धोती में साबुन लगा रहा था। मोहन को देखते ही वह सावुन छिपाकर भाग जाने का अवसर खोजने लगा।

मोहन ने मुस्कराकर कहा --- क्या धोती बहुत मैली हो गई है सोहन ? धोबी को क्यों नहीं दे देते? [ १७१ ]सोहन को इन शब्दों में स्नेह की गन्ध आई।

'धोबिन पैसे मांगती है।'

'तो पैसे अम्मो से क्यों नहीं माग लेते?'

'अम्मा कौन पैसे दिये देती हैं।'

'तो मुझसे ले लो।

यह कहकर उसने एक इकन्नी उसकी ओर फेंक दी। सोहन प्रसन्न हो गया। भाई और माता दोनों ही उसे धिक्कारते रहते। बहुत दिनों बाद आज उसे स्नेह को मधुरता का स्वाद मिला। इकनी उठा लो और धोती को वहीं छोड़कर गाय को खोलकर ले चला।

मोहन ने कहा --- तुम रहने दो, मैं इसे लिये जाता हूँ।

सोहन ने पहिया भाई को देकर फिर पूछा --- तुम्हारे लिए चिलम रख लाऊँ ?

जीवन में आज पहली बार सोहन ने भाई के प्रति ऐसा सद्भाव प्रकट किया था। इसमें क्या रहस्य है, यह मोइन को समझ में न भाया। बोला --- आग हो तो रख लाओ।

मैना सिर के बाल खोले आंगन में बैठी घरौंदा बना रही थी। मोहन को देखते हो उसने घरौंदा बिगाड़ दिया और अञ्चल से बाल छिपाकर रसोई-घर में मरतन उठाने चली।

मोहन ने पूछा --- क्या खेल रही थी मैना ?

मैना डरी हुई बोली --- कुछ तो नहीं।

'तू तो बहुत अच्छे घरौंदे बनाती है। जरा बना, देखें।'

मैना का आसा चेहरा खिल उठा। प्रेम के शब्द में कितना जाद है। मुंह से निकलते ही जैसे सुगन्ध फैल गई। जिसने सुना, उसका हृदय खिल उठा। जहाँ भय था, वहाँ विश्वास चमक उठा। जहाँ कटुता थी, वहाँ अपनाया छळा पड़ा। चारों ओर चेतनता दौड़ गई। कहीं आलस्य नहीं, कहीं 'खिन्नता नहीं। मोहन का हृदय आज प्रेम से भरा हुआ है। उसमें सुगन्ध का विकर्षण हो रहा है।

मैना घरौंदा बनाने बैठ गई।

मोहन ने उसके उलझे हुए गलों को सुलझाते हुए कहा --- तेरी गुड़िया का ध्याह व होगा मैना, नेवता दे, कुछ मिठाई खाने को मिले। [ १७२ ]मैना का मन आकाश में उड़ने लगा। अब भेया पानो मांगे, तो वह लोटे को राख से खूब चमाचम करके पानी ले जायगी।

'अम्माँ पैसे नहीं देती। गुड्डा तो ठीक हो गया है। टीका कैसे भेजू?'

'कितने पैसे लेगी ?'

‘एक पैसे के बतासे लूंगो और एक पैसे का रङ्ग। जोड़े तो रँगे जायेंगे कि नहीं।'

'तो दो पैसे में तेरा काम चल जायगा।'

'हाँ, दो पैसे दे दो भैया, तो मेरी गुड़िया का ब्याह धूमधाम से हो जाय ।'

मोहन ने दो पैसे हाथ में लेकर मैना को दिखाये। मैना लपकी, मोहन ने हाथ ऊपर उठाया, मैना ने हाथ पकड़कर नीचे खींचना शुरू किया। मोहन ने उसे गोद में उठा लिया। मैना ने पैसे ले लिये और नीचे उतरकर नाचने लगी। फिर अपनी सहे- लियों को विवाह का नेवता देने के लिए भागी। उसी वक्त बूटो गोबर का झौवा लिये आ पहुँची। मोहन को खड़े देखकर कठोर स्वर में बोली --- अभी तक मटरगस ही हो रही है। भैस कब दुही जायगी ?

आज बूटी को मोहन ने विद्रोह-भरा जवाब न दिया। जैसे उसके मन में माधुर्य का कोई सोता-सा खुल गया हो । माता को गोबर का बोझ लिये देखकर उसने झौवा उसके सिर से उतार लिया।

बूटी ने कहा --- रहने दे, रइने दे, जाकर भैंस दुइ, मैं तो गोबर लिये जातो हूँ।

'तुम इतना भारी बोम्म क्यों उठा लेती हो, मुझे क्यों नहीं बुला लेतो?'

माता का हृदय वात्सल्य से गद्गद हो उठा।

'तु जा, अपना काम देख। मेरे पोछे क्यों पड़ता है।'

'गोबर निकालने का काम मेरा है।'

'और दूध कौन दुहेगा ?

'वह भी मैं हो करूंगा।'

'तू इतना बड़ा जोधा है कि सारे काम कर लेगा?'

'जितना कहता हूँ उतना कर लूंगा।'

'तो मैं क्या करूँगी !'

'तुम लड़कों से काम लो, जो तुम्हारा धर्म है।'

'मेरी सुनता है कोई ?' [ १७३ ]

( ३ )

आज मोहन बाजार से दूध पहुँचाकर लौटा, तो पान, कत्था, सुपारी, एक छोटा- सा पानदान और थोड़ी-सी मिठाई लाया। बूटी बिगड़कर बोली-आज पैसे कहीं फालतू मिल गये थे क्या ? इस तरह उड़ावेगा तो के दिन निबाह होगा ?

'मैंने तो एक पैसा भी नहीं उड़ाया अम्माँ। पहले मैं समझता था, तुम पान खातों ही नहीं।'

'तो अब मैं पान खाऊँगी ?'

'हाँ, और क्या ? जिसके दो-दो जवान बेटे हों, क्या वह इतना शौक भी न करे।

बूटी के सूखे कठोर हृदय में कहाँ से कुछ हरियाली निकल आई, एक नन्ही-सी कोपल थी, लेकिन उसके अन्दर कितना जीवन, कितना रस था। उसने मैना और सोइन को एक-एक मिठाई दे दो और एक मोहन को देने लगी।

'मिठाई तो लड़कों के लिए लाया था अम्माँ।'

'और तू तो बूढ़ा हो गया, क्यों ?'

'इन लड़कों के सामने तो बूढ़ा ही हूँ।'

'लेकिन मेरे सामने तो लड़का हो है।'

मोहन ने मिठाई ले ली। मैना ने मिठाई पाते ही गप से मुँह में डाल ली थी। बह केवल मिठास का स्वाद जीभ पर छोड़कर काकी गायब हो चुकी थी। मोहन को मिठाई को ललचाई आँखों से देखने लगी। मोहन ने आधा लड्डू तोड़कर मैना को दे दिया। एक मिठाई दोने में और बची थी। बूटी ने उसे मोहन की तरफ बढ़ाकर कहा-लाया भी तो इतनी-सो मिठाई। यह ले ले।

मोहन ने आधी मिठाई मुंह में डालकर कहा --- वह तुम्हारा हिस्सा है अम्माँ !

'तुम्हें खाते देखकर मुझे जो आनन्द मिलता है, उसमें मिठास से ज़्यादा स्वाद है।'

उसने आधी मिठाई सोहन को और आधी मोहन को दे दी ; फिर पानदान खोलकर देखने लगी। आज जीवन में पहली बार उसे सौभाग्य प्राप्त हुआ। धन्य भाग कि पति के राज में जिस विभूति के लिए तरसती रही, वह लड़के के राज में मिली। पानदान में कई कुल्हियां हैं। और देखो, दो छोटी-छोटी चिमचियां भी हैं,
[ १७४ ]
ऊपर कड़ा लगा हुआ है, जहाँ चारी लटकाकर ले जाव । ऊपर को तश्तरी में पान रखे जायेंगे। ज्योहो मोहन पाहर चला गया, उसने पानदान को मौज-धोकर उसमें चूना, कत्था भरा, सुपारो काटी, पान को भीगोकर तश्तरी में रखा। तर एक बीड़ा लगाकर खाया। उस बोहे के रस ने जैसे उसके वैधव्य की कटुता को स्निग्ध कर दिया। मन की प्रसन्नता व्यवहार में उदारता बन जाती है। अब वह घर में नहीं बैठ सकती। उसका मन इतना गहरा नहीं है कि इतनी बड़ो विभूति उसमें आकर गुम हो जाय। एक पुराना आईना पड़ा हुआ था। उसने उसमें अपना मुंह देखा। ओठों पर लालो तो नहीं है मुंह लाल करने के लिए उसने थोड़े हो पान खाया है।

धनिया ने आकर कहा --- काकी, तनक रस्सी दे दो, मेरी रस्सी टूट गई है ?

कल बूटी ने साफ़ कह दिया होता, मेरी रस्सी गाँव भर के लिए नहीं है। रस्सी टूट गई है तो बनवा लो। आज उसने धनिया को रस्सी निकालकर प्रसन्न मुख से दे दो और सद्भाव से पूछा --- लड़के के दस्त बन्द हुए कि नहीं धनिया ?

धनिया ने उदास मन से कहा --- नहीं काकी, माज तो दिन भर दस्त आये। पाने दात भा रहे हैं।

'पानी भर ले तो चल जरा देखू, दाँत हो है कि और कुछ पखाद है। किसी को नज़र-वजर तो नहीं लगी।

'अब क्या जाने काकी, कौन जाने किसी को आँख फूटो हो।'

'चौचाल लड़कों को नजर का बड़ा डर रहता है।'

'जिसने घुमकारकर बुलाया, झट उसको गोद में चला जाता है । ऐसा हंसता है कि तुमसे क्या कहूँ।'

'कभी-कभी मां की नजर भी लग जाया करती है।'

'ऐ नौज काकी, भला कोई अपने लड़के को नजर कमायेगा।'

'यही तो तू समझती नहीं । नजर आप हो-आप लग जाती है।'

धनिया पानी लेकर आई तो बूटी उसके साथ बच्चे को देखने चली।

'तू अकेली है। आजकल घर के काम-धन्धे में बड़ा अण्डस होता होगा।'

'नहीं अम्माँ, रुपिया आ जातो है, घर का कुछ काम कर देती है, नहीं अकेले तो मेरी मरन हो जाती।'

बूटी को आश्चर्य हुआ। रुपिआ को उसने केवल तितकी समम रखा था। [ १७५ ]'रुपिया।'

'हाँ काकी, बेचारी बड़ी सीधी है। झाड़ू लगा देती है, चौका-बरतन कर देती है, लड़के को संभालती है । गाढ़े समय कौन किसी की बात पूछता है काकी !'

'उसे तो अपने मिस्सी-काजल से छुट्टी न मिलती होगी।'

यह तो अपनी-अपनी रुचि है काकी। मुझे तो इस मिस्सी-काजलवाली ने जितना सहाग दिया, उतना किसी भक्तिन ने न दिया । बेचारी रात-भर जागती रही। मैंने कुछ दे तो नहीं दिया। हाँ, जब तक जिऊँगी उसका जस गाऊँगी।'

'तू उसके गुन भभी नहीं जानती धनिया। पान के लिए पैसे कहाँ से आते हैं ?

'किनारदार साड़ियों कहां से आती हैं।'

'मैं इन बातों में नहीं पड़ती काकी। फिर शौक सिंगार करने को किसका भी नहीं चाहता। खाने-पहनने की यही तो उमिर है।'

धनिया का घर आ गया। आँगन में रुपिया बच्चे को गोद में लिये थपक रही यो।बचा सो गया था। धनिया ने बच्चे को खटोले पर सुला दिया। बूटी ने बच्चे के सिर पर हाथ एसा, पेट में धीरे-धीरे उगली गाकर देखा। नाभी पर होग का लेप करने को कहा। रुपिया बेनिया लाकर उसे मलने लगी।

बूटी ने कहा --- ला बेनिया मुझे दे दे।

'मैं डुला दूंगी तो क्या छोटी हो जाऊँगी।'

'तू दिन भर यहाँ काम-धन्धा करती रही है। थक गई होगी।'

'तुम इतनी भलोमान्स हो, और यहाँ लोग कहते थे वह बिना गाली के बात नहीं करती । मारे डर के तुम्हारे पास न आई ।'

बूटी मुस्कराई।

'लोग झूठ तो नहीं करते।'

मैं भाखों की देखो.मानू कि कानों को सुनी ?

आज भी रुपिया भाखों में काजल लगाये, पान खाये, रंगीन साड़ी पहने हुए थी। किन्तु आज बूटी को मालूम हुआ, इस फूल में केवल रश नहीं है, सुगन्ध भी है। उसके मन में रुपिया से घृणा हो गई थी, वह किसी देवी मन्त्र से धुल-सी गई। कितना मशाल लड़की है, कितना पजाधुर । बोली इतनी मीठी है। आजकल की
[ १७६ ]
लड़कियां अपने बच्चों को तो परवाह नहीं करती, दूसरों के लिए कौन मरता है। सारी रात धनिया के लड़के को लिये जागती रही। मोहन ने कल की बातें इससे कह तो दो ही होंग। दूसरी लड़की होती तो मेरो भोर से मुंह फेर लेतो। मुझे जलाता, मुझसे ऐंटती। इसे तो जैसे कुछ मालम हो न हो। हो सकता है कि मोहन ने इससे कुछ कहा ही न हो। हो, यही बात है।

आज रुपिया बूटी को बड़ी सुन्दर लगी। ठीक तो है, अभी शौक-सिंगार न करेगी तो कत्र करेगी। शोक-सिगार इसलिए बुरा लगता है कि ऐसे आदमो आने भोग-विलास में मस्त रहते हैं। किसी के घर में आग ला जाय, उनसे मतला नहीं। उनका काम तो खाली दूसरों को रिझाना है। जैसे अपने हा को दूकान सजाये, राह-वलतों को बुलाते हो कि जरा इस दूकान को सैर भी करते जाइए। ऐसे उपकारी प्राणियों का सिगार बुरा नहीं लगता। नहीं, बल्कि और अच्छा लगता है। इससे मालूम होता है कि इसका रूप जितना सुन्दर है, उतना हो मन भो सुन्दर है। फिर कौन नहीं चाहता कि लोग उपके कप का बखान करें। किसे दुसरो की मांखों में खुल जाने को लालसा नहीं होती। बूटी का यौवन रूम का विदा हो चुका; फिर भी यह लालसा उसे बनी हुई है। कोई उसे रस-मी आंखों से देख लेता है, तो उसका मन कितना प्रतन जाता है। जमीन पर पाँव नहीं पड़ते फिर रूपा तो अभी जवान है।

उस दिन से रूपा प्राय दो-एक बार नित्य वूटो के घर आती। बूटो ने मोहन से भामह करके उसके लिए एक अच्छो-सी साड़ी मँगवा दो ? अगर रूपा कभी बिना काजल लगाये या वेरगी साड़ी पहने आ जाती, तो बूटो कहती-बहू बेटियों को यह जोगिया भेस अच्छा नहीं लगता। यह भेष तो हम-जैसो बूढ़ियों के लिए है।

रूपा ने एक दिन कहा-तुम बूढ़ी काहे से हो गई अम्माँ ! लोगों को इशारा मिल जाय, तो भौंरी को तरह तुम्हारे आर महराने लो। मेरे दादा तो तुम्हारे द्वार पर धरना देने लगे।

घूटो ने मोठे तिरस्कार से कहा --- चल, मैं तेरी मां को मौत बनकर जाकती ?

'अम्माँ तो बूढ़ों हो गई ?

'तो क्या तेरे दादा अभी जवान बैठे हैं।'

'हाँ ऐया, बड़ो अच्छी मिट्टी है उनकी।' [ १७७ ]बूटी ने उसकी ओर रस-भरी आंखों से देखकर पूछा --- अच्छा बता, मोहन से तेरा ब्याह कर दूं ?

रूपा लजा गई। मुख पर गुलाब की आभा दौड़ गई ?

आज मोहन दूध पंचकर लौटा तो बूटी ने कहा -कुछ रूपए-पैसे जुटा, मैं रुपा से देरो बातचीत कर रही हूँ।