मानसरोवर २/१० न्याय

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मानसरोवर २  (1946) 
द्वारा प्रेमचंद
[ १२९ ]

न्याय

हजरत मुहम्मद को इलहाम हुए थोड़े ही दिन हुए थे। दस-पांच पड़ोसियों तथा निकट-सम्बन्धियों के सिवा और कोई उनके दीन पर ईमान न लाया था, यहाँ तक कि उनकी लड़की ज़ैनब और दामाद अबुलआस भी, जिनका विवाह इलहाम से पहले ही हो चुका था, अभी तक दीक्षित न हुए थे। ज़ैनब कई बार अपने मैके गई थी और अपने पूज्य पिता की ज्ञानमय वाणी सुन चुकी थी। वह दिल से इसलाम पर ईमान ला चुकी थी, लेकिन अबुलआस धार्मिक मनोवृत्ति का आदमी न था। वह कुशल व्यापारी था। मक्के के खजूर, मेवे आदि जिनसे लेकर बन्दरगाहों को चालान किया करता था । बहुत ही ईमानदार, लेन देन का खरा, मेहनती आदमी था, जिसे इहलोक से इतनी फुरसत न थी कि, परलोक की फिक्र करे।

जनब के सामने कठिन समस्या थी। आत्मा धर्म की ओर थी, हृदय पति की ओर । न धर्म को छोड़ सकती थी, न पति को। उसके घर के सभी आदमी मूर्ति- पूजक थे। इस नये सम्प्रदाय से सारे नगर में हलचल मची हुई थी। जै़नब सबसे अपनी लगन को छिपाती, यहाँ तक कि पति से भी न कह सकती। वे धार्मिक सहिष्णुता के दिन न थे, बात-बात पर खून की नदी वह जाती थी, खानदान-के-खानदान मिट जाते थे। उन दिनों अरब की वीरता पारस्परिक कलहों में प्रकट होती थी । राजनीतिक सग- ठन का जमाना न था। खून का बदला खून, धन हानि का बदला खून, अपमान का बदला खून -- मानव-रक्त ही से सभी झगड़ो का निवटारा होता था। ऐसी अवस्था में अपने धर्मानुराग को प्रकट करना अबुलआस के शक्तिशाली परिवार और मुहम्मद और इनके इने-गिने अनुयायियो में देवासुर संग्राम छेड़ना था । उधर प्रेम का बन्धन पैरों को जकड़े हुए था। नये धर्म में दीक्षित होना अपने प्राण-प्रिय पति से सदा के लिए बिछुड़ जाना था। कुरैश-जाति के लोग ऐसे मिश्रित विवाहों को परिवार के लिए

कलंक समझते थे । माया और धर्म की दुविधा में पड़ी हुई जैनब कुढती रहती थी। [ १३० ]

( २ )

धर्म का अनुराग एक दुर्बल वस्तु है , किन्तु जब उसका वेग होता है, तो हृदय के रोके नहीं रुकता। दोपहर का समय था, धूप इतनी तेज थी कि उसकी ओर ताकते आँखो से चिनगारियां निकलती थीं। हज़रत मुहम्मद चिन्ता मे डूबे हुए बैठे थे । निराशा चारों और अन्धकार के रूप मे दिखाई देती थी । खुदैजा भी सिर झुकाये पास ही बैठो हुई एक फटा कुरता सी रही थी। धन-सम्पत्ति सब कुछ इस लगन की भेट हो चुकी थी। शत्रुओं का दुराग्रह दिनो-दिन बढता जाता था। उनके मतानु यायियों को भांति-भांति की यन्त्रणाएँ दी जा रही थीं। स्वय हजरत को धर से निकलना मुश्किल था । यह खौफ होता था कि कहीं लोग उन पर ईट-पत्थर न फेंकने लगें ! खबर आती थी, आज फलाँ 'मुसलिम' का घर लुट गया, आज फलाँ को लोगो ने आहत किया । हज़रत ये खबरें सुन-सुनकर विक्ल हो जाते थे और बार-बार खुदा से धैर्य और क्षमा को याचना करते थे।

हज़रत ने फरमाया-मुझे ये लोग अब यहाँ न रहने देंगे। मैं खुद सब कुछ झेल सकता हूँ , लेकिन अपने दोस्तों की तकलीफें नहीं देखी जाती।

खुदैजा हमारे चले जाने से इन बेचारो को ओर भी कोई शरण न रहेगी। अभी कम-से कम तुम्हारे पास आकर रो तो लेते है । मुसीवत मे रोने का सहारा हो बहुत होता है।

हज़रत-तो में अकेले थोड़ा ही जाना चाहता हूँ। मे सब दोस्तों को साथ लेकर जाने का इरादा रखता हूँ। अभी हम लोग यहाँ बिखरे हुए है, कोई किसी की मदद को नहीं पहुच सकता! हम सब एक ही जगह, एक कुटुम्ब की तरह रहेगे, तो किसी को हमारे ऊपर हमला करने का साहस न होगा ! हम अपनी मिली ईहु शक्ति से बालू का ढेर तो हो ही सकते हैं, जिस पर चढ़ने को किसी को हिम्मत न होगी।

सहसा जैनब घर में दाखिल हुई। उसके साथ न कोई आदमी था, न आदम- ज़ाद । मालूम होता था, कहीं से भागी चली आ रही है। खुदैजा ने उसे गले लगाकर पूछा- क्या हुआ जैनब, खोरियत तो है ?

जैनब ने अपने अन्तर-संग्राम की कथा कह सुनाई, और पिता से दीक्षा की याचना की।

हज़रत मुहम्मद आँखो में आँसू भरकर बोले-बेटी, मेरे लिए इससे ज्याद
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खुशी की और कोई बात नहीं हो सकती , लेकिन जानता हूँ, तुम्हारा क्या हाल होगा।

जैनब - या हजरत ! खुदा की राह में सब कुछ त्याग देने का निश्चय कर लिया है। दुनिया के लिए अपनी नजात को नहीं खोना चाहती ।

हजरत-जैनव, खुदा की राह मे कांटे हैं।

जैनब-अब्बाजान, लगन को काँटो की परवा नहीं होती ।

हजरत · ससुराल से नाता टूट जायगा।

जैनब--- खुदा से तो नाता जुड़ जायगा ?

हज़रत-और अवुलआस ? .

जैनब को आँखों में आँसू डबडबा आये। क्षीण स्वर में बोली--अब्बाजान, उन्होंने इतने दिनों मुझे बाँध रखा था, नहीं तो मैं कबकी आपकी शरण आ चुकी होती। मैं जानती हूँ, उनसे जुदा होकर मैं ज़िन्दा न रहेगी, और शायद उनसे भी मेरा वियोग न सहा जाय ; पर मुझे विश्वास है कि वह किसी-न-किसी दिन ज़रूर खुदा पर ईमान लायेंगे और फिर मुझे उनकी सेवा का अवसर मिलेगा।

हजरत- बेटी, अवुलआस ईमानदार है, दयाशील है, सद्वत्ता है , किन्तु उसका अंहकार शायद अन्त तक उसे ईश्वर से विमुख रखे। वह तकदीर को नहीं मानता, रूह को नहीं मानता, स्वर्ग और नरक को नहीं मानता । कहता है, खुदा की ज़रूरत ही क्या है, हम उससे क्यों डरें, विवेक और बुद्धि की हिदायत हमारे लिए काफी है। ऐसा आदमी खुदा पर ईमान नहीं ला सकता। कुफ्र को तोड़ना आसान है। लेकिन वह जब दर्शन की सूरत पकड़ लेता है, तो उस पर किसी का ज़ोर नहीं चलता। ..

जैनब ने दृढ होकर कहा----या हज़रत, आत्मा का उपकार जिसमें हो, मुझे वही चाहिए। मैं किसी इन्सान को अपने और खुदा के बीच मे न आने दूंगी।

हज़रत ने कहा- खुदा तुझ पर दया करे बेटी, तेरी बातों ने दिल खुश कर दिया।

यह कहकर उन्होंने जैनब को गले लगा लिया ।

( ३ )

दूसरे दिन जैनव को यथाविधि आम मसजिद मे क्लमा पढाया गया। [ १३२ ]कुरेशियों ने जब यह खबर पाई, तो जल उठे। राजन खुदा का ! इस्लाम ने तो बड़े-बड़े घरों पर भी हाथ साफ करना शुरू किया ! अगर यही हाल रहा, तो धीरे- धीरे उसकी शक्ति इतनी बढ़ जायगी कि हमारे लिए उसका सामना करना कठिन हो जायगा । अबुलआस के घर पर एक बड़ी मजलिस हुई ।

अवूसिफियान ने, जो इस्लाम के दुश्मनो मे सबसे प्रतिष्ठित मनुष्य था, अबुल- आस से कहा--तुम्हे अपनी बीवी को तलाक देना पड़ेगा ।

अबुलआस ने कहा- हरगिज नहीं।

अबूसिफियान-तो क्या तुम भो मुसलमान हो जाओगे ?

अबुलआस - हरगिज़ नहीं।

अवूसिफियान-तो उसे मुहम्मद ही के घर रहना पड़ेगा।

अबुलआस-हरगिज नहीं। आप लोग मुझे आज्ञा दीजिए कि उसे अपने घर लाऊँ।

अबूसिफियान - हरगिज़ नहीं।

अवुलआस---क्या यह नहीं हो सकता कि वह मेरे घर मे रहकर अपने इच्छा- नुसार खुदा की बन्दगी करे ?

अबूसिफियान- हरगिज़ नहीं ।

अबुलआस - मेरो कौम मेरे साथ इतनो सहानुभूति भी न करेगी ?

अबुसिफियान-हरगिज नहीं।

अबुलआस-तो फिर आप लोग मुझे समाज से पतित कर दोजिए। मुझे पतित होना मंजूर है। आप लोग और जो सज़ा चाह दें, वह सब मंजूर है , मगर मैं अपनी बीवी को नहीं छोड़ सत्ता। मैं किसी की धार्मिक स्वाधीनता का अपहरण नहीं करना चाहता, और वह भी अपनी बीवी की।

अ० सि०---- कुरैश मे क्या और लड़कियां नहीं है ?

अ० आ०--- जैनर की-सी कोई नहीं। .

अ० सि०-हम ऐसी लड़कियां बता सकते हैं, जो चाँद को लजित कर दें।

अ० आo-मैं सौदर्य का उपासक नहीं।

अ० सि०-- ऐसी लड़कियाँ दे सकता हूँ, जो गृह-प्रबन्ध में निपुण हों, बातें ऐसी [ १३३ ]
करें कि मुंह से फूल झड़ें, खाना ऐसा पकायें कि बीमार को भी रुचि हो, सीने-पिरोने मे इतनी कुशल कि पुराने कपडे को नया कर दें ।

अ॰ आ॰--मैं इन गुणो मे से किसी का भी उपासक नहीं। मैं प्रेम-और केवल प्रेम - का उपासक हूँ। और मुझे विश्वास है कि जैनब का-सा प्रेम मुझे सारी दुनिया में कहीं नहीं मिल सकता ।

अ॰ सि॰--प्रेम होता, तो तुम्हे छोड़कर यह बेरफाई करती !

अ० आ०-मैं नहीं चाहता कि मेरे लिए वह अपने आत्म-स्वातत्र्य का त्याग करे।

अ० सि० इसका आशय यह कि तुम समाज में समाज के विरोधी बनकर रहना चाहते हो। आँखों को कसम ! समाज तुम्हें अपने ऊपर यह अत्याचार न करने देगा। मैं कहे देता हूँ, इसके लिए तुम रोओगे।

(‌ ४ )

अबूसिफियान और उनकी टोली के लोग तो धमकियां देकर उधर गये, इधर अवुलआस ने लकड़ी सॅभाली और हज़रत मुहम्मद के घर जा पहुंचे। शाम हो गई थी। हज़रत दरवाज़े पर अपने मुरीदों के साथ सगरिब की नमाज पढ रहे थे। अबुलआम ने उन्हे सलाम किया और जब तक नमाज होती रही, गौर से देखते रहे। जमाअत का एक साथ उठना, बैठना ओर झुकना देखकर उनके मन में श्रद्धा की तरंगें उठने लगी। उन्हें मालूम न होता था कि मैं क्या कर रहा हूँ, पर अज्ञात भाव से वह जमाअत के साथ बैठते, झुकते और खड़े हो जाते थे। वहाँ एक-एक परमाणु इस समय ईश्वरमय हो रहा था । एक क्षण के लिए अबुलआस भी उसी अन्तर-प्रवाह में वह गये।

जब नमाज खतम हुई और लोग सिवारे, तो अवुलआरा ने हजरत के पास जाकर सलाम किया और कहा-मैं जैनब को विदा कराने आया हूँ।

हज़रत ने विस्मित होकर पूछा- तुम्हे मालूम नहीं कि वह खुदा और उसके रसूल पर ईमान ला चुकी है ? .

अ० आo-~-जी हाँ, मालूम है।

हजरत-इस्लाम ऐसे सम्बन्धों का निषेध करता है, यह भी तुम्ह मालम है ?

अ० आ०-या इसका मतलब यह है कि ज़ैनब ने मुझे तलाक दे दिया ? [ १३४ ]हज़रत अगर यही मतलब हो, तो!

अ० आ०-तो कुछ नहीं। जैनब को अपने ख़ुदा और रसूल की बदगी मुबारक हो। मैं एक बार उससे मिलकर घर चला जाऊँगा, और फिर कभी आपको अपनी सूरत न दिखाऊँगा , लेकिन उस दशा मे अगर कुरैश-जाति आपसे लड़ने को तैयार हो जाय, तो उसका इलज़ाम मुझ पर न होगा ।

हज़रत-मैं कुरैश से इस वक्त नहीं लड़ना चाहता।

अ० आ०–तो जैनब को मेरे साथ जाने दीजिए। उस हालत मे कुरैश के क्रोध का भाजन मैं होऊँगा । आप और आपके मुरीदों पर कोई आफत न होगी।

हज़रत--तुम दवाव में आकर जैनब को खुदा की तरफ से फेरने का यत्न तो न करोगे ?

अ० आ०-मैं किसी के धर्म में बाधा डालना सर्वथा अमानुषोय समझता हूँ।

हज़रत-तुम्हे लोग जैनव को तलाक देने पर तो मज़बूर न करेंगे ?

अ० आo-मैं जैनब को तलाक देने के पहले जिन्दगी को तलाक दे दूंगा।

हजरत को अवुलआस की बातो से इतमीनान हो गया। वह आस की इज्जत करते थे। आस को हरम मे जैनव से मिलने का मौका दिया।

आस ने पूछा-जनब, मैं तुम्हे अपने साथ ले चलने आया है, धर्म के बदलने से कहीं मन तो नहीं बदल गया ?

जैनब रोती हुई उनके पैरो पर गिर पड़ी और बोली-या मेरे आका ! धर्म बार-बार मिलता है, हृदय केवल एक बार । मैं आपको हूँ, चाहे यहाँ रहूँ चाहे वहाँ , समाज मुझे आपकी सेवा में रहने देगा?

आस–यदि समाज न रहने देगा, तो मैं समाज ही से निकल जाऊँगा । दुनिया मे आराम से जीवन व्यतीत करने के लिए बहुत-से स्थान हैं। रहा मैं, तुम जानती हो, मै धार्मिक स्वाधीनता का पक्षपाती हूँ, मैं तुम्हारे धार्मिक विषयो मे कभी हस्त- क्षेप न करूंँगा।

जैनब चली, तो खुदैजा ने रोते हुए उसे यमन के लालो का एक बहुमूल्य हार विदाई में दिया ।

( ५ )

इस्लाम पर विधर्मियों के अत्याचार दिनों-दिन बढ़ने लगे। अवहेलना की दशा

[ १३५ ]
से निकलकर उसने भय के क्षेत्र में प्रवेश किया । शत्रुओं ने उसे समूल नष्ट करने की आयोजना करनी शुरू की । दूर-दूर के कवीलो से मदद मांगी जाने लगी। इस्लाम में इतनी शक्ति न थी कि शस्त्र-बल से विरोधियो को दवा सके । हज़रत मुहम्मद ने मक्का छोड़कर कहीं और चले जाने का निश्चय किया । मक्के में मुस्लिमों के घर सारे शहर में बिखरे हुए थे। एक की मदद को दूसरे मुसलमान न पहुंच सकते थे। 'हजरत मुहम्मद किसी ऐसी जगह आबाद होना चाहते थे, जहाँ सब मिले हुए रहें, और शत्रुओं की संघटित शक्ति का प्रतीकार कर सके । अंत में उन्होंने मदीने को पसंद किया और अपने समस्त अनुयायियों को सूचना दे दी। भक्तजन उनके साथ हुए और एक दिन मुस्लिमों ने मक्के से मदीने को प्रस्थान कर दिया । यही हिजरत थी।

मदीने मे पहुँचकर मुसलमानों में एक नयी शक्ति, नयो स्फूर्ति का उदय हुआ। वे निश्शंक होकर अपने धर्म का पालन करने लगे। अब पड़ोसियों से दबने और छिपने की जरूरत न थी।

आत्मविश्वास बढा। इधर भी विधर्मियों का स्वागत करने की तैयारियाँ होने लगीं। दोनों पक्ष सेना इकट्ठी करने लगे। विधर्मियों ने संकल्प किया कि संसार से इस्लाम का नाम ही मिटा देंगे। इरलाम ने भी उनके दाँत खट्टे करने का निश्चय किया।

एक दिन अबुलआस ने आकर पत्नी से कहा- जैनब, हमारे नेताओं ने इस्लाम पर जिहाद करने की घोषणा कर दी है।

जैनब ने घबड़ाकर कहा- अब तो वे लोग यहाँ से चले गये। फिर इस जिहाद की क्या जरूरत ?

अवुलआस-मक्के से चले गये, अरब से तो नहीं चले गये। उन लोगो की ज्यादतियाँ बढ़ती जा रही हैं। जिहाद के सिवा और कोई उपाय नहीं है। जिहाद में मेरा शरीक होना ज़रूरी है।

जैनब-अगर तुम्हारा दिल तुम्हे मजबूर करता है, तो शौक से जाओ। मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी।

आस--मेरे साथ ?

जैनब-हाँ, वहाँ आहत मुसलमानो की सेवा-शुश्रूपा करूंगी।

आस-शौक से चलो। [ १३६ ]

( ६ )

घोर सग्राम हुआ। दोनों दलवालों ने खूब दिल के अरमान निकाले। भाई भाई से, बाप बेटे से लड़ा। सिद्ध हो गया, मज़हब का बन्धन रक्त और वीर्य के बन्धन से सुदृढ है ।

दोनों दलवाले वीर थे । अन्तर यह था कि मुसलमानों में नया धर्मानुराग था, मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग की आशा थी। दिलों मे वह अटल विश्वास था, जो नवजात सप्रदायों का लक्षण है । विधर्मियो में 'बलिदान' का यह भाव लुप्त था।

कई दिन तक लड़ाई होती रही। मुसलमानों की संख्या बहुत कम थी ; पर अन्त मे उनके धर्मोत्वाह ने मैदान मार लिया। विधर्मियों में कितने ही मारे गये, कितने ही घायल हुए, और कितने ही कैद कर लिये गये। अवुलआस भी इन्हीं कैदियों में थे।

जैनब ने ज्योही सुना कि अबुलआस पकड़ लिये गये, उसने तुरन्त हजरत मुहम्मद की सेवा मे मुक्ति-धन भेजा। यह वही बहुमूल्य, हार था, जो खुदैजा ने उसे दिया था। जैनव अपने पूज्य पिता को उस धर्म-सकट में एक क्षण के लिए भी न डालना चाहती थी, जो मुक्ति-धन के अभाव की दशा में उन पर पड़ता , किन्तु अवुलआस को इच्छा होते हुए भी पक्षपात-भय से न छोड़ सके ।

सब कैदी हज़रत के सामने पेश किये गये। कितने ही तो ईमान लाये, कितनों के घरो से मुक्ति-धन आ चुका था, वे मुक्त कर दिये गये। हजरत ने अबुलआस को देखा, सबसे अलग सिर झुकाये खड़े हैं। मुख पर लज्जा का भाव झलक रहा है।

हज़रत ने कहा-अबुलआस, खुदा ने इस्लाम की हिमायत की, वरना उसे यह विजय न प्राप्त होती।

अबुलआस-अगर आपके कथनानुसार संसार मे एक खुदा है, तो वह अपने एक बन्दे को दूसरे का गला काटने में मदद नहीं दे सकता। मुसलमानों को विजय उनके रणोत्साह से हुई।

एक सहाबी ने पूछा-तुम्हारा फिदिया ( मुक्ति-धन ) कहाँ है ?

हजरत ने फरमाया--अबुलआस का हार निहायत बेशकीमत है, इनके बारे में आर क्या फैसला करते हैं ? आपको मालूम है, यह मेरे दामाद है। [ १३७ ]अबूबकर-आज तुम्हारे घर में जैनब हैं, जिन पर ऐसे सैकड़ों हार कुर्बान किये जा सकते हैं।

अवुलआस-तो आपका मतलब क्या है कि जैनब मेरा फिदिया हो ?

जैद-बेशक हमारा यही मतलब है।

अबुलआस---उससे तो कहीं बेहतर था कि आप मुझे कत्ल कर देते।

अबूबकर-हम रसूल के दामाद को कत्ल नहीं करेंगे, चाहे वह विधर्मी ही क्यों न हो। तुम्हारी यहाँ उतनी खातिर होगी, जितनी हम कर सकते हैं।

अवुलआस के सामने विषम समस्या थी। इधर यहाँ की मेहमानी में अपमान था, उधर जैनब के वियोग की दारुण वेदना थी। उन्होंने निश्चय किया, यह वेदना सहूँगा, अपमान न सहूंँगा । प्रेम आत्मा के गौरव पर वलिदान कर दूंगा। बोले- मुझे आपका फैसला मंजूर है। जैनब मेरी फिदिया होगी।

( ७ )

मदीने में रसूल की बेटी को जितनी इज्ज़त होनी चाहिए, उतनी होती थी। सुख था, ऐश्वर्य था, धर्म था; पर प्रेम न था । अवुलआस के वियोग में रोया करती।

तीन वर्ष तीन युगों की भांति बीते । अवुलआस के दर्शन न हुए।

उधर अवुलआस पर उसकी विरादरी का, दबाव पड़ रहा था कि विवाह कर लो , पर जैनब की मधुर स्मृतियाँ ही उसके प्रणय-वचित हृदय को तसकीन देने को काफी थीं । वह उत्तरोत्तर उत्साह के साथ अपने व्यवसाय में तल्लीन हो गया । महीनों घर न आता । धनोपार्जन ही अब उसके जीवन का मुख्य आधार था। लोगो को आश्चर्य होता था कि अब यह धन के पीछे क्यों प्राण दे रहा है। निराशा और चिता बहुधा शराब के नशे से शांत होती है। प्रेम उन्माद से । अबुलआस को धनोन्माद हो गया था। धन के आवरण में ढका हुआ यह प्रेम-नैराश्य था । माया के परदे में छिपा हुआ प्रेम-वैराग्य ।

एक बार वह मक्के से माल लादकर ईरान की तरफ चला । काफिले में और भी कितने ही सौदागर थे। रक्षकों का एक दल भी साथ था। मुसलमानो के कई काफिले विधर्मियों के हाथों लुट चुके थे। उन्हे ज्योंही इस काफिले की खबर मिली, जैद ने कुछ चुने हुए आदमियों के साथ उन पर धावा कर दिया। काफिले के रक्षक लड़े और मारे गये। काफिलेवाले भाग निकले। अतुल धन मुसलमानों के हाथ लग अबुलास फिर कैद हो गये। [ १३८ ]दूसरे दिन हज़रत मुहम्मद के सामने अबुलआस की पेशी हुई। हज़रत ने एक बार उसकी तरफ करुण-दृष्टि डाली, और सिर झुका लिया। सहाबियों ने कहा-या हज़रत, अबुलआस के बारे में आप क्या फैसला करते हैं ?

मुहम्मद-इसके बारे में फैसला करना तुम्हारा काम है। यह मेरा दामाद है, सम्भव है, में पक्षपात का दोषी हो जाऊँ।

यह कहकर वह मकान मे चले गये। जैनब रोकर पैरो पर गिर पड़ी, और बोली---अब्बाजान, आपने ओरों को तो आजाद कर दिया। अबुलआस क्या उन सबसे गया-बीता है?

हजरत --- नहीं जैनब, न्याय के पद पर बैठनेवाले आदमी को पक्षपात और द्वेष से मुक्त होना चाहिए। यद्यपि यह नीति मैंने ही बनाई है, तो भी अब उसका स्वामी नहीं, दास हूँ। मुझे अबुलआस से प्रेम है। मैं न्याय को प्रेम-कलकिन नहीं कर सकता।

सहाबी हज़रत की इस नीति-भक्ति पर मुग्ध हो गये। अबुलआस को सव माल- असबाब के साथ मुक्त कर दिया।

अवुलआस पर हज़रत की न्याय-परायणता का गहरा असर पड़ा। मक्के आकर उन्होंने अपना हिसाब-किताब साफ किया, लोगों का माल लौटाया, कर्ज अदा किया और घर-बार त्यागकर हज़रत मुहम्मद की सेवा मे पहुँच गये। जैनर को मुराद पूरी हुई।



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