मानसरोवर २/९ उन्माद

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मानसरोवर २  (1946) 
द्वारा प्रेमचंद
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उन्माद

मनहर ने अनुरक्त होकर कहा—यह सब तुम्हारी कुर्बानियों का फल है बागी, नहीं आज मैं भी किसी अँधेरी गली में, किसी अँधेरे मकान के अन्दर अपनी अंधेरी ज़िन्दगी के दिन काटता होता। तुम्हारी सेवा और उपकार हमेशा याद रहेंगे। तुमने मेरा जीवन सुधार दिया—मुझे आदमी बना दिया।

वागीश्वरी ने सिर झुकाये हुए नम्रता से उत्तर दिया—यह तुम्हारी सज्जनता है मानू, मैं बेचारी भला तुम्हारी ज़िन्दगी क्या सुधारूँगी, हाँ, तुम्हारे साथ मैं भी एक दिन आदमी बन जाऊँगी। तुमने परिश्रम किया, उसका पुरस्कार पाया। जो अपनी मदद आप करते हैं, उनकी मदद परमात्मा भी करते है। अगर मुझ-जैसी गँवारिन किसी और के पाले पड़ती, तो अब तक न जाने क्या गत बनी होती।

मनहर मानो इस बहस में अपना पक्ष समर्थन करने के लिए कमर बाँधता हुआ बोला-तुम-जैसी गॅवारिन पर मैं एक लाख सजी हुई गुड़ियों और रंगीन तितलियों को न्योछावर कर सकता हूँ। तुमने मेहनत करने का वह अवसर और अवकाश दिया, जिसके बिना कोई सफल हो ही नहीं सकता , अगर तुमने अपनी अन्य विलास-प्रिय, रंगीन-मिजाज बहनों की तरह मुझे अपने तकाज़ो से दबा रखा होता, तो मुझे उन्नति करने का अवसर कहाँ मिलता। तुमने मुझे वह निश्चिन्तता प्रदान की, जो स्कूल के दिनों में भी न मिली थी। अपने और सहकारियों को देखता हूँ, तो मुझे उन पर दया आती है। किसी का खर्च पूरा नहीं पड़ता। आधा महीना भी नहीं जाने पाता और हाथ खाली हो जाता है। कोई दोस्तों से उधार मांगता है, कोई घरवालों को खत लिखता है। कोई गहनो को फिक्र में मरा जाता है, कोई कपड़ों की। कभी नौकर की टोह में हैरान, कभी वैद्य की टोह में परेशान । किसी को शांति नहीं। आये-दिन स्त्री-पुरुष में जूते चलते रहते हैं । अपना-जैसा भाग्यवान् तो मुझे कोई देख नहीं पड़ता । मुझे घर के सारे आनन्द प्राप्त हैं और जिम्मेदारी एक भी नहीं। तुमने
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ही मेरे हौसलों को उभारा, मुझे उत्तेजना दी। जब कभी मेरा उत्साह टूटने लगता था, तुम मुझे तसल्ली देती थीं । मुझे मालूम ही नहीं हुआ कि तुम घर का प्रबन्ध कसे करती हो। तुमने मोटे-से-मोटा काम अपने हार्थों से किया, जिसमें मुझे पुस्तको के लिए रुपये की कमी न हो। तुम्ही मेरी देवी हो और तुम्हारी बदौलत ही आज मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मैं तुम्हारी इन सेवाओं की स्मृति को हृदय में सुरक्षित रखूँगा बागी, और एक दिन वह आयेगा, जब तुम अपने त्याग और तप का आनन्द उठाओगी।

बागीश्वरी ने गद्गद होकर कहा-तुम्हारे यह शब्द मेरे लिए सबसे बड़े पुरस्कार हैं मानू ! मैं और किसी पुरस्कार की भूखी नहीं। मैंने जो कुछ तुम्हारी थोड़ी-बहुत सेवा की, उसका इतना यश मुझे मिलेगा, मुझे तो आशा भी न थी।

मनहरनाथ का हृदय इस समय उदार भावो से उमड़ा हुआ था। वह थी बहुत ही अल्पभाषी कुछ रूखा आदमी था और शायद वागीश्वरी को मन में उसकी शुष्कता पर दुख भी हुआ हो, पर इस समय सफलता के नशे ने उसको वाणी मे पर-से लगा दिये थे । बोला- जिस समय मेरे विवाह की बातचीत हो रही थी, मैं बहुत शकित था। समझ गया कि मुझे जो कुछ होना था, हो चुका। अब सारी उन देवीजी की नाजबरदारी में गुजरेगी । बड़े-बड़े अंगरेज विद्वानों की पुस्तकें पढने से मुझे भी विवाह से घृणा हो गई थी। मैं इसे उम्र- कैद समझने लगा था, जो आत्मा और बुद्धि की उन्नति का द्वार बन्द कर देती है, जो मनुष्य को स्वार्थ का भक्त बना देती है, जो जोवन के क्षेत्र को सकीर्ण कर देती है, मगर दो ही चार मास के बाद मुझे अपनी भूल मालूम हुई। मुझे मालूम हुआ कि सुभार्या स्वर्ग की सबसे बड़ी विभूति है, जो मनुष्य के चरित्र को उज्ज्वल और पूर्ण बना देती है, जो आत्मोन्नति का मूल मन्त्र है। मुझे मालूम हुआ कि विवाह का उद्देश्य भोग नहीं, आत्मा का विकास है।

वागीश्वरी को नम्रता और सहन न कर सकी। वह किसी बात के बहाने से उठकर चली गई।

मनहर और वागेश्वरी का विवाह हुए तीन साल गुज़रे थे। मनहर उस समय एक दप्तर में क्लर्क था। सामान्य युवकों की भांति उसे भी जासूसी उपन्यासों से बहुत प्रेम था। वीरे-धीरे उसे जासूमी का शौक हुआ। इस विषय पर उसने बहुत- सा साहित्य जमा किया और बड़े मनोयोग से उनका अध्ययन किया । इसके बाद उसने
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इस विषय पर स्वयं एक किताब लिखी। इस रचना में उसने ऐसी विलक्षण विवेचना- शक्ति का परिचय दिया, उसकी शैली भी इतनी रोचक थी कि जनता ने उसे हाथों- हाथ लिया। इस विषय पर वह सर्वोत्तम ग्रंथ था ।

देश में धूम मच गई। यहाँ तक कि इटली और जर्मनी-जैसे देशों से उसके पास प्रगसा-पत्र आये, और इस विषय की पत्रिकाओं मे अच्छी-अच्छी आलोचनाएँ निकलीं । अन्त में सरकार ने भी अपनी गुणग्राहकता का परिचय दिया-उसे इंगलैंड जाकर इस कला का अभ्यास करने के लिए वृत्ति प्रदान की। और यह सब कुछ वागीश्वरी की सत्प्रेरणा का शुभ फ्ल था।

मनहर की इच्छा थी कि वागीश्वरी भी साथ चले ; पर वागीश्वरी उनके पॉव को बेड़ी न बनना चाहती थी। उसने घर रहकर सास-ससुर की सेवा करना ही उचित समझा।

मनहर के लिए इंगलैंड एक दूसरी ही दुनिया थी, जहाँ उन्नति के मुख्य साधनों मे एक रूपवती पत्नी का होना भी था, अगर पत्नी रूपवती है, चपल है, चतुर है, वाणी-कुशल है, प्रगल्भ है तो समझ लो कि उसके पति को सोने की खान मिल गई , अब वह उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है। मनोयोग और तपस्या के बूते पर नहीं, पत्नी के प्रभाव और आकर्पण के बूते पर। उस ससार में रूप और लावण्य व्रत के बधनों से मुक्ता, एक अबाध सम्पत्ति थी। जिसने किसी रमणी को प्राप्त कर लिया, उसको मानो तकदीर खुल गई। यदि कोई सुन्दरी तुम्हारी सहधर्मिणी नहीं है, तो तुम्हारा सारा उद्योग, सारी कार्यपटुता निष्फल है। कोई तुम्हारा पुरसाँहाल न होगा , अतएव वहाँ लोग रूप को व्यापारिक दृष्टि से देखते थे ।

साल ही भर के अग्रेज़ो समाज के संसर्ग ने मनहर की मनोवृत्तियों में क्रान्ति पैदा कर दी। उसके मिज़ाज में सांसारिकता का इतना प्राधान्य हो गया कि कोमल भावों के लिए वहाँ कोई स्थान ही न रहा। वागीश्वरी उसके विद्याभ्यास में सहायक हो सकती थी , पर उसे अधिकार और पद की उँचाइयों पर न पहुँचा सकती थी। उसके त्याग और सेवा का महत्त्व भी अब मनहर की निगाहों मे कम होता जाता था। वागीश्वरी अब उसे एक व्यर्थ-सी वस्तु मालूम होती थी , क्योंकि उसकी भौतिक दृष्टि में हरएक वस्तु का मूल्य उससे होनेवाले लाभ पर ही अवलबित था। अपना पूर्व जीवन अब उसे हास्यप्रद जान पड़ता था। चंचल, हंसमुख, विनोदिनी अंग्रेज़-युवतियों के सामने
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वागीश्वरी एक हलकी, तुच्छ-सी वस्तु जान पड़ती---इस विद्युत्-प्रकाश में वह दीपक अब मलिन पड़ गया था। यहाँ तक कि शनै-शनै उसका वह मलिन प्रकाश भी लुप्त हो गया।

मनहर ने अपने भविष्य का निश्चय कर लिया । वह भी एक रमणी की रूपनौका द्वारा ही अपने लक्ष्य पर पहुंचेगा। इसके सिवा और कोई उपाय न था।

( २ )

रात के नौ बजे थे। मनहर लंदन के एक फैसनेवुल रेस्ट्राँ मे वना-ठना बैठा था । उसका रंग-रूप और ठाट-बाट देखकर सहसा यह कोई नहीं कह सकता था कि अग्रेज़ नहीं है। लंदन मे भी उसके सौभाग्य ने उसका साथ दिया था। उसने चोरी के कई गहरे मुआमलों का पता लगा दिया था, इसलिए उसे धन और यश दोनों ही मिल रहा था । वह अब वहाँ के भारतीय समाज का एक प्रमुख अङ्ग बन गया था, जिसके आतिथ्य और सौजन्य की सभी सराहना करते थे। उसका लबोलहज़ा भी अंग्रेजों से मिलता जुलता था। उसके सामने मेज की दूसरी ओर एक रमणी बैठी हुई उनकी बाते बड़े ध्यान से सुन रही थी। उसके अंग-अंग से यौवन टपका पड़ता था। भारत के अद्भुत वृत्तात सुन-सुनकर उसकी आँखें खुशी से चमक रही थीं। मनहर चिड़िया के सामने दाने बिखेर रहा था।

मनहर---विचित्र देश है जेनी, अत्यन्त विचिन्न । पांँच-पांँच साल के दूल्हे तुम्हे भारत के सिवा और कहीं देखने को न मिलेंगे। लाल रंग के कामदार कपड़े, सिर पर चमकता हुआ लम्बा टोप, चेहरे पर फूलो का झालरदार बुर्का, घोड़े पर सवार चले जा रहे हैं। दो आदमी दोनों तरफ से छतरियां लगाये हुए है। हाथों में मेहदी लगी हुई।

जेनी-मेंहदी क्यो लगाते हैं ?

मनहर--जिसमें हाथ लाल हो जाँय । पैरों में भी रग भरा जाता है । उँगलियों के नाखून लाल रॅग दिये जाते हैं। वह दृश्य देखते ही बनता है।

जेनी----यह तो दिल मे सनसनी पैदा करनेवाला दृश्य होगा। दुलहिन भी इसी तरह सजाई जाती होगी ?

मनहर---इससे कई गुना अधिक । सिर से पांव तक सोने-चांदी के जेवरो से लदी हुई। ऐसा कोई अंग नहीं, जिसमें दो-दो, चार-चार गहने न हों। [ ११३ ]जेनी-तुम्हारी शादी भी उसी तरह हुई होगी। तुम्हे तो बड़ा आनन्द आया होगा?

मनहर-हां, वही आनन्द आया था, जो तुम्हें मेरी गोराउण्ड पर चढने में आता है । अच्छी-अच्छी चीज़ खाने को मिलती हैं, अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने को मिलते हैं । खूब नाच-तमाशे देखता था और शहनाइयों का गाना सुनता था। मजा तो तब आता है, जब दुलहिन अपने घर से विदा होती है। सारे घर में कुहराम मच जाता है। दुलहिन हरएक से लिपट-लिपटकर रोती है ; जैसे मातम कर रही हो।

जेनी-दुलहिन रोती क्यों है ?

मनहर - रोने का रिवाज चला आता है। हालाकि सभी जानते हैं कि वह हमेशा के लिए नहीं चली जा रही है, फिर भी सारा घर इस तरह फूट-फूटकर रोता है, मानो वह काले पानी भेजी जा रही हो।

जेनी-मैं तो इस तमाशे पर खूब हँसूँ ।

मनहर-हंसने की बात ही है।

जेनी - तुम्हारी बीवी भी रोई होगी ?

मनहर ----अजी, कुछ न पूछो, पछाड़े खा रही थी, मानो मैं उसका गला घोंट दूंँगा। मेरी पालको से निकलकर भागी जाती थी ; पर मैंने जोर से पकड़कर अपनी बगल में बैठा लिया । तब मुझे दाँत काटने दौड़ी।

मिस जेनी ने जोर से कहकहा मारा और मारे हँसी के लोट गई । बोली- हारिविल। हारिविल। क्या अब भी दांत काटती है ?

मनहर-वह अब इस संसार में नहीं है जेनी । मैं उससे खूब काम लेता था । मैं सोता था, तो वह मेरे बदन मे चप्पी लगाती थी, मेरे सिर में तेल डालती थी, पंखा झलती थी।

जेनी-मुझे तो विश्वास नहीं आता। बिलकुल मुर्ख थी।

मनहर--कुछ न पूछो । दिन को किसी के सामने मुझसे बोलती भी न थी; मगर मै उसका पीछा करता रहता था।

जेनी-ओ ! नाटी बाय । तुम बड़े शरीर हो । थी तो रूपवती ?

मनहर-हाँ, उसका मुंह तुम्हारे तलवों जैसा था।

जेनी-नाँनसेंस ! तुम ऐसी औरत के पीछे कभी न दौड़ते । [ ११४ ]मनहर-उस वक्त मै भी मुर्ख था जेनी ।

जेनो--ऐसी मूर्ख लड़की से तुमने विवाह क्यों किया ?

मनहर-विवाह न करता तो माँ-बाप ज़हर खा लेते ।

जेनी-वह तुम्हे प्यार कैसे करने लगी ?

मनहर---और करती क्या । मेरे सिवा दूसरा था हो कौन । घर से बाहर निकलने पाती थी , मगर प्यार हममें से किसी को न था । वह मेरी आत्मा और हृदय को सन्तुष्ट न कर सकती थी। जेनी, मुझे उन दिनों की याद आती है, तो ऐसा मालूम होता है कि कोई भयंकर स्वप्न था । उफ ! अगर वह स्त्री आज जिवित होती, तो आज मैं किसी अँधेरे दफ्तर में बैठा क़लम घिसता होता । इस देश में आकर मुझे यथार्थ ज्ञान हुआ कि संसार में स्त्री का क्या स्थान है, उसका क्या दायित्व है, और जीवन उसके कारण कितना आनन्दप्रद हो जाता है। और जिस दिन तुम्हारे दर्शन हुए, वह तो मेरी ज़िन्दगी का सबसे मुबारक दिन था । याद है तुम्हें वह दिन ? तुम्हारी वह सूरत मेरी आँखों में अब भी फिर रही है।

जेनी--अब मैं चली जाऊँगी । तुम मेरी खुशामद करने लगे।

( २ )

भारत के मजदूरदल-सचिव थे लार्ड बारवर, और उनके प्राइवेट सेक्रेटरी थे मि. कावर्ड । लार्ड बारवर भारत के सच्चे मित्र समझ जाते थे । जब कैंसरवेटिव और लिब- रल दलों का अधिकार था, तो लार्ड बारबर भारत की बड़े जोरों से वकालत करते थे । वह उन मन्त्रियों पर ऐसे-ऐसे कटाक्ष करते कि उन बेचारो को कोई जवाब न सूझता। एक बार वह हिदुस्तान आये थे और यहाँ कांग्रेस में शरीक भी हुए थे। उस समय उनकी उदार वक्तृताओं ने समस्त देश में आशा और उत्साह को एक लहर दौड़ा दी थी। काग्रेस के जलसे के बाद वह जिस शहर मे गये, जनता ने उनके रास्ते मे आँखें बिछाई , उनकी गाड़ियाँ खींची, उनपर फूल बरसाये। चारों ओर से यही आवाज़ आती थी- यह है भारत का उद्धार करनेवाला। लोगो को विश्वास हो गया कि भारत के सौभाग्य से अगर कभी लार्ड बारवर को अधिकार प्राप्त हुआ, तो वह दिन भारत के इतिहास में मुबारक होगा।

लेकिन अधिकार पाते ही लार्ड बारबर में एक विचित्र परिवर्तन हो गया। उनके सारे सद्भाव, उनकी उदारता, न्यायपरायणता, सहानुभूति अधिकार के भँवर मे पड़
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गये। और अब लार्ड बारवर और उनके पूर्वाधिकारी के व्यवहार में लेशमात्र भी अन्तर न था। वह भी वही कर रहे थे, जो उनके पहले लोग कर चुके। वही दमन था, वही जातिगत अभिमान, वही कट्टरता, वही सकीर्णता । देवता अधिकार के सिंहा- सन पर पाँव रखते ही अपना टेवत्व खो बैठा था। अपने दो साल के अधिकार-काल में उन्होंने सैकड़ों ही अफसर नियुक्त किये थे , पर उनमे एक भी हिन्दुस्तानी न था, भारतवासी निराश हो-होकर उन्हें 'डाइहार्ट और 'धन का उपासक' और 'साम्राज्य- वाद का पुजारी' कहने लगे थे। यह खुला हुआ रहस्य था कि जो कुछ करते थे, मि० कावर्ड करते थे। हक यह था कि लार्ड बारवर नीयत के इतने शेर थे , जितने दिल के कमजोर । हालांकि परिणाम दोनों दशाओ मे एक-सा था ।

यह मि० कावर्ड एक ही महापुरुष थे। उनकी उम्र चालीस से गुजर चुकी थी , पर अभी तक उन्होंने विवाह न किया था। शायद उनका खयाल था कि राजनीति के क्षेत्र में रहकर वैवाहिक जीवन का आनन्द नहीं उठा सकते । वास्तव में वह नवीनता के मधुप थे। उन्हें नित्य नये विनोद और आकर्षण, नित्य नये विलास और उल्लास को टोह रहती थी। दूसरों के लगाये हुए बाग की सैर करके चित्त को प्रसन्न कर लेना इससे कहीं सरल था कि अपना वाग्र आप लगायें और उसकी रक्षा और सजावट में अपना सिर खपायें। उनकी व्यावहारिक और व्यापारिक दृष्टि मे यह लटका उससे कहीं आसान था।

दोपहर का समय था। मि० कावर्ड नाश्ता करके सिगार पी रहे थे कि मिस जेनी रोज के आने की खबर हुई। उन्होने तुरन्त आईने के सामने खड़े होकर अपनो सूरत देखी, बिखरे हुए बालों को संवारा, बहुमूल्य इत्र मला और मुख से स्वागत को सहास छवि दरसाते हुए कमरे से निकलकर मिस रोज़ से हाथ मिलाया !

जेनी ने कमरे में कदम रखते ही कहा -- अब मैं समझ गई कि क्यो कोई सुन्दरी तुम्हारी बात नहीं पूछती । आप अपने वादों को पूरा करना नहीं जानते।

मि० कावर्ड ने जेनी के लिए एक कुरसी खींचते हुए कहा-मुझे बहुत खेद है मिस रोज, कि मैं कल अपना वादा पूरा न कर सका । प्राइवेट सेक्रेटरियों का जीवन कुत्तों के जीवन से भी हेय है । बार-बार चाहता था कि दफ्तर से उठू, पर एक-न- एक काम ऐसा आ जाता था कि फिर रुक जाना पड़ता था। मैं तुमसे क्षमा मांगता हूँ । वाल मे तुम्हें खूब आनन्द आया होगा। [ ११६ ]जेनी-- मैं तुम्हें तलाश करती रही। जब तुम न मिले, तो मेरा जी खट्टा हो गया। मैं और किसी के साथ नहीं नाची , अगर तुम्हें न जाना था, तो मुझे निमंत्रण- पत्र क्यो दिलाया था ?

कावर्ड ने जेनी को सिगार भेंट करते हुए कहा--तुम मुझे लज्जित कर रही हो जेनी ! मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की और क्या बात हो सकती थी कि तुम्हारे साथ नाचता । एक पुराना बेचेलर होने पर भी मैं उस आनन्द की कल्पना कर सकता हूँ। बस, यही समझ लो, तड़प-तडपकर रह जाता था।

जेनी ने कठोर मुस्कान के साथ कहा- तुम इसी योग्य हो कि बेचेलर बने रहो, यही तुम्हारी सजा है।

कावर्ड ने अनुरक्त होकर उत्तर दिया-तुम बढी कठोर हो जेनी ! तुम्ही क्या, रमणियां सभी कठोर होती हैं। मैं कितनी, ही परवशता दिखाऊँ, तुम्ह विश्वास न आयेगा। मुझ यह अरमान ही रह गया कि कोई सुन्दरी मेरे अनुराग और लगन का आदर करती।

जेनी–तुममे अनुराग हो भो ? रमणियों ऐसे बहानेबाजी को मुंह नहीं लगातीं।

कावर्ड-~फिर वहानेवाज़ कहा ! मजदूर क्यों नहीं कहती ?

जेनी–मैं किसी की मजबूरी को नहीं मानती। मेरे लिए यह हर्ष और गौरव की बात नहीं हो सकती कि आपको जब अपने सरकारी, अर्द्ध-सरकारी और गैर-सर- कारी कामो से अवकाश मिले, तो आप मेरा मन रखने को एक क्षण के लिए अपने कोमल चरणों को कष्ट दें। मैं दफ्तर और काम के हीले नहीं सुनना चाहती। इसी कारण तुम अब तक झीख रहे हो।

कावर्ड ने गम्भीर भाव मे कहा---तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो जेनी ! मेरे अविवाहित रहने का क्या कारण है, यह कल तक मुझे खुद न मालम था । कल आप हो-आप मालम हो गया ।

जेनी ने उसका परिहास करते हुए कहा - अच्छा। तो यह रहस्य आपको मालूम हो गया ? तब तो आप सचमुच आत्मदर्शी है । ज़रा मैं भी सुनूं. क्या कारण था ?

कावर्ड ने उत्साह के साथ कहा-अब तक कोई ऐसी सुन्दरी न मिली थी, जो मुझे उन्मत्त कर सकती। [ ११७ ]जेनी ने कठोर परिहास के साथ कहा-मेरा खयाल था कि दुनिया में ऐसो औरत पैदा ही नहीं हुई, जो तुम्हे उन्मत्त कर सकती। तुम उन्मत्त बनाना चाहते हो, उन्मत्त बनना नहीं चाहते।

कावर्ड-तुम बड़ा अत्याचार करती हो जेनी !

जेनी-अपने उन्माद का प्रमाण देना चाहते हो?

कावर्ड --हृदय से, जेनी ! मैं उस अवसर की ताक में बैठा हूँ।

उसी दिन शाम को जेनी ने मनहर से कहा- तुम्हारे सौभाग्य पर बधाई । तुम्हें वह जगह मिल गई।

मनहर उछलकर बोला-सच । सेक्रेटरी से कोई बातचीत हुई थी ?

जेनी-सेक्रेटरी से कुछ कहने की ज़रूरत ही न पड़ी। सब कुछ कावर्ड के हाथ मे है । मैंने उसी को चग पर चढाया । लगा मुझसे इश्क जताने । पचास साल की तो उम्र है, चाँद के बाल झड़ गये हैं, गालो पर झुर्रियां पड़ गई हैं, पर अभी तक आपको इश्क का खब्त है। आप अपने को एक ही रसिया समझते हैं। उसके बूढ चोचले बहुत बुरे मालम होते थे , मगर तुम्हारे लिए सब कुछ सहना पड़ा। खैर मेहनत सुफल हो गई । कल तुम्हे परवाना मिल जायगा। अब सफर की तैयारी करनी चाहिए।

मनहर ने गद्गद होकर कहा-तुमने मुझ पर बड़ा एहसान किया है जेनी ।

( ३ )

मनहर को गुप्तचर विभाग मे ऊँचा पद मिला। देश के राष्ट्रीय पत्रों ने उसकी तारीफो के पुल बाँधे, उसकी तस्वीर छापी और राष्ट्र की ओर से उसे बधाई दी। वह पहला भारतीय था, जिसे यह ऊँचा पद प्रदान किया गया था। ब्रिटिश सरकार ने सिद्ध कर दिया था कि उसकी न्यायवुद्धि जातीय अभिमान और द्वेष से उच्चतर है।

मनहर और जेनी का विवाह इग्लैण्ड में ही हो गया। हनीमून का महीना फ्रांस मे गुजरा । वहाँ से दोनों हिन्दुस्तान आये । मनहर का दफ्तर बम्बई मे था । वहीं दोनो एक होटल में रहने लगे। मनहर को गुप्त अभियोगों की खोज के लिए अक्सर दोरे करने पड़ते थे। कभी काश्मीर, कभी मदरास, कभी रगून । जेली इन यात्राओं मे बरा- बर उसके साथ रहती । नित्य नये दृश्य थे, नये विनोद, नये उल्लास । उसको नवीनता- प्रिय प्रकृति के लिए आनन्द का इससे अच्छा और क्या सामान हो सकता था। [ ११८ ]मनहर का रहन-सहन तो अँगरेजी था ही, घरवालों से भी सम्बन्ध-विच्छेद हो गया था। बागीश्वरी के पत्रों का उत्तर देना तो दूर रहा, उन्हें खोलकर पढता भी न था। भारत में उसे हमेशा यह शंका बनी रहती थी कि कहीं घरवालों को उसका पता न चल जाय । जेनी से वह अपनी यथार्थ स्थिति को छिपाये रखना चाहता था। उसने घरवालों को अपने आने की सूचना तक न दी । यहाँ तक कि वह हिन्दुस्तानियों से बहुत कम मिलता था। उसके मित्र अधिकाश पुलीस और फौज के अफसर थे। वहीं उसके मेहमान होते । वाकचतुर जेनी सम्मोहन-कला में सिद्धहस्त थी। पुरुषो के प्रेम से खेलना उसकी सबसे आमोदमय कीड़ा थी। जलाती भी थी, रिझाती भी थी, ओर मनहर भी उसकी कपट-लोला का शिकार बनता रहता था। उसे वह हमेशा भूल-भुलैया मे रखती, कभी इतना निकट कि छाती पर सवार, कभी इतनी दूर की योजनो का अन्तर --कभी निष्ठूर और कठोर, कभी प्रेम-विह्वल और व्यग्र। एक रहस्य था, जिसे वह कभी समझता -था, कभी हैरान रह जाता था।

इस तरह दो वर्ष बीत गये और मनहर और जेनी कोण की दो भुजाओं की भांति एक दूसरे से दूर होते गये। मनहर इस भावना को हृदय से न निकाल सकता था कि जेनी का मेरे प्रति एक विशेष कर्तव्य है। यह चाहे उसकी सकीर्णता हो, या कुल-सर्यादा का असर कि वह जेनी को पाबन्द देखना चाहता था। उसकी वच्छन्द वृत्ति उसे लज्जास्पद मालूम होती थी। वह भूल जाता था कि जेनी से उसके सपर्क का आरम्भ ही स्वार्थ पर अवलथित था। शायद उसने समझा था कि समय के साथ जेनी को अपने कर्तव्य का ज्ञान हो जायगा, हालांकि उसे मालूम होना चाहिए था कि टेढी बुनियाद पर बना हुआ पवन जल्द या देर में अवश्य भूमिस्थ होकर रहेगा । ओर ऊँचाई के साथ इसकी शंका और भी बढ़ती जाती थी। इसके विपरीत जेनी का व्यवहार विलकुल परिस्थिति के अनुकूल था। उसने मनहर को विनोद- मय, विलासमय जीवन का एक साधन समझा था और उसी विचार पर अब तक स्थिर थी। इस मन्त्र को वह मन मे पति का स्थान न दे सकती थी, पाषाण-प्रतिमा को अपना देवता न बना सकती थी। पत्नी बनना उसके जीवन का स्वप्न न था , इसलिए वह मनहर के प्रति अपने किसी कर्तव्य को स्वीकार न करती थी , अगर मनहर अपनी गाढी कमाई उसके चरणों पर अर्पित करता था, तो उस पर कोई एहसान न करता था।

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मनहर उसी का बनाया हुआ पुतला, उसी का लगाया हुआ वृक्ष था। उसकी छाया और फल को भोग करना वह अपना अधिकार समझती थी।

( ४ )

मनोमालिन्य बढता गया। आखिर मनहर ने उसके साथ दावतों और जलसो में जाना छोड़ दिया ; पर जेनी पूर्ववत् सैर करने जाती, मित्रों से मिलती, दावतें करती और दावतों में शरीक होती । मनहर के साथ न जाने से उसे लेशमात्र भी दुःख या निराशा न होती थी, बल्कि वह शायद उसकी उदासीनता पर और भी प्रसन्न होती थी। मनहर इस मानसिक व्यथा को शराब के नशे मे डुबाने का उद्योग करता। पीना तो उसने इङ्गलैण्ड ही में शुरू कर दिया था ; पर अब उसकी मात्रा बहुत बढ गई थी। वहाँ स्फूर्ति और आनन्द के लिए पीता था, यहाँ स्फूर्ति और आनन्द को मिटाने के लिए। वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता था। वह जानता था, शराब मुझे पिये जा रही है, पर उसके जीवन का यही एक अवलम्ब रह गया था।

गर्मियों के दिन थे। मनहर एक मुआमले की जांच करने के लिए लखनऊ में डेरा डाले हुए था। मुआमला बहुत सगीन था। उसे सिर उठाने की फुरसत न मिलती थी। स्वास्थ्य भी कुछ खराब हो चला था , मगर जेनी अपने सैर-सपाटे मे मग्न थी। आखिर एक दिन उसने कहा-मैं नैनीताल जा रही हूँ। यहाँ की गर्मी मुझसे सही नहीं जाती।

मनहर ने लाल-लाल आँखें निकालकर कहा-नैनीताल मे क्या काम है ?

वह आज अपना अधिकार दिखाने पर तुल गया। जेनी भी उसके अधिकार की उपेक्षा करने पर तुली हुई थी। बोली- यहाँ कोई सोसाइटी नहीं। सारा लखनऊ पहाड़ों पर चला गया है।

मनहर ने जैसे म्यान से तलवार निकालकर कहा--जब तक मैं यहाँ हूँ, तुम्हे कहीं जाने का अधिकार नहीं है । तुम्हारी शादी मेरे साथ हुई है, सोसाइटी के साथ नहीं हुई। फिर तुम साफ देख रही हो कि मैं बीमार हूँ, तिस पर भी तुम अपनी विलास-प्रवृत्ति को रोक नहीं सकतीं । मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी जेनी ! मैं तुमको शरीफ समझता था। मुझे स्वप्न में भी यह गुमान न था कि तुम मेरे साथ ऐसी बेवफाई करोगी। जेनी ने अविचलित भाव से कहा - तो क्या तुम समझते थे, मैं भी तुम्हारी
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हिन्दूस्तानी स्त्री की तरह तुम्हारी लौंडी बनकर रहूँगी और तुम्हारे तलवे सहलाऊँगी ? मैं तुम्हे इतना नादान नहीं समझती , अगर तुम्हे हमारी अंग्रेज़ी सभ्यता की इतनी मोटी-सी बात मालूम नहीं, तो अब मालूम कर लो कि अंग्रेज़ स्त्री अपनी रुचि के सिवा और किसी की पावन्द नहीं। तुमने मुझसे इसलिए विवाह किया था कि मेरी सहायता से तुम्हें सम्मान और पद प्राप्त हो। सभी पुरुष ऐसा करते हैं और तुमने भी वही किया। मैं इसके लिए तुम्हे बुरा नहीं कहती, लेकिन जब तुम्हारा वह उद्देश्य पूरा हो गया, जिसके लिए तुमने मुझसे विवाह किया था, तो तुम मुझसे अधिक आशा क्यो रखते हो ? तुम हिन्दुस्तानी हो, अगरेज़ नहीं हो सकते। मैं अगरेज़ हूंँ और हिन्दुस्तानी नहीं हो सकती , इसलिए हममें से किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरे को अपनी मर्जी का गुलाम बनाने की चेष्टा करे।

मनहर हतबुद्धि-सा बैठा सुनता रहा। एक-एक शब्द विष की घूँट की भांति उसके कण्ठ के नीचे उतर रहा था। कितना कठोर सत्य था । पद-लालसा के उस प्रचण्ड आवेग में, विलास-तृष्णा के उस अदम्य प्रवाह में वह भूल गया था कि जीवन में कोई ऐसा तत्त्व भी है, जिसके सामने पद और विलास कांच के खिलौनो से अधिक मूल्य नहीं रखते। वह विस्मृत सत्य इस समय अपने करुण विलाष से उसकी मदमग्र चेतना को तड़पाने लगा।

शाम को जेनी नैनीताल चली गई। मनहर ने उसकी ओर आंख उठाकर भी न देखा।

( ५ )

तीन दिन तक मनहर घर से न निकला। जोवन के पांच-छ वर्षों मे उसने जितने रत्न संचित किये थे, जिन पर वह गर्व करता था, जिन्हें पाकर वह अपने को धन्य मानता था, अब परीक्षा को कसौटी पर आकर नकली पत्थर सिद्ध हो रहे थे। उसकी अपमानित, ग्लानित, पराजित आत्मा एकांत रोदन के सिवा और कोई त्राण न पाती थी। अपनी टूटी झोपड़ी को छोड़कर वह जिस सुनहले कलशवाले भवन की ओर लपका था, वह मरीचिका मात्र थी, और अब उसे फिर उसी टूटी झोपड़ी की याद आई, जहां उसने शांति, प्रेम और आशीर्वाद की सुधा पी थी। यह सारा आडम्बर उसे काटे खाने लगा। उस सरल शीतल स्नेह के सामने ये सारी विभूतियों तुच्छ-सी जँचने लगी। तीसरे दिन वह भीषण प्रकल्प करके उठा और दो पत्र लिखे । एक तो अपने
[ १२१ ]
पद से इस्तीफा था, दूसरा जेनी से अंतिम विदा की सूचना । इस्तीफे मे उसने लिखा--मेरा स्वास्थ्य नष्ट हो गया है, और मैं इस भार को नहीं संभाल सकता । जेनी के पत्र में उसने लिखा- मैं और तुम दोनों ने भूल की और हमे जल्द-से-जल्द उस भूल को सुधार लेना चहिए । मैं तुम्हे सारे बंधनों से मुक्त करता हूँ। तुम भी मुझे मुक्त कर दो। मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अपराध न तुम्हारा है, न मेरा । समझ का फेर तुम्हें भी था और मुझे भी। मैंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है, और अब तुम्हारा मुझ पर कोई एहसान नहीं रहा। मेरे पास जो कुछ है, वह तुम्हारा है, वह सब मैं छोड़े जाता हूँ। मैं तो निमित्त मात्र था, स्वामिनी तुम थीं। उस सभ्यता को दूर से ही सलाम है, जो विनोद और विलास के सामने किसी बंधन को स्वीकार नहीं करती।

उसने खुद जाकर दोनो पत्रों की रजिस्टरी कराई और बिना उत्तर का इंतजार किये वहाँ से चलने को तैयार हो गया।

( ६ )

जेनी ने जब मनहर का पत्र पाकर पढा तो मुस्किराई। उसे मनहर की इच्छा पर शासन करने का ऐसा अभ्यास पड़ गया था कि इस पत्र से उसे जरा भी घबराहट न हुई। उसे विश्वास था कि दो-चार दिन चिकनी-चुपड़ी बातें करके वह उसे फिर वशीभूत कर लेगी, अगर मनहर की इच्छा वेवल धमकी देना न होती, उसके दिल पर चोट लगी होती, तो वह अब तक यहाँ न होता। कबका वह स्थान छोड़ चुका होता। उसका यहाँ रहना ही बता रहा था कि वह वेवल बॅदरघुड़की दे रहा है।।

जेनी ने स्थिरचित्त होकर कपड़े बदले और तब इस तरह मनहर के कमरे में आई, मानो कोई अभिनय करके स्टेज पर आई हो ।

मनहर उसे देखते ही ज़ोर से ठट्टा मारकर हँसा । जेनी सहमकर पीछे हट गई। इस हँसी में क्रोध या प्रतीकार न था। इसमें उन्माद भरा हुआ था । मनहर के सामने मेज़ पर बोतल और गिलास रखा हुआ था। एक दिन मे उसने न जाने कितनी शराब पी ली थी। उसकी आँखो में जैसे रक्त उबला पड़ता था।

जेनी ने समीप जाकर उसके कन्धे पर हाथ रखा और बोली- क्या रात-भर पाते ही रहोगे ? चलो, आराम से लेटो, रात ज्यादा आ गई है। घण्टों से उठी तुम्हारा इन्तजार कर रही हूँ। तुम इतने निष्ठुर तो कभी न थे। [ १२२ ]मनहर खोया हुआ-सा बोला---तुम कब आ गई बागी ? देखो, मैं कबसे तुम्हें पुकार रहा हूँ। चलो, आज सैर कर आये । वहीं नदी के किनारे तुम अपना वही प्यारा गीत सुनाना, जिसे सुनकर मै पागल हो जाता हूँ। क्या कहती हो, मैं बेमुरौवत हूँ ? यह तुम्हारा अन्याय है वागी मे कसम खाकर कहता है, ऐसा एक दिन भी नहीं गुजरा, जय तुम्हारी याद ने मुझे रुलाया न हो।

जेनी ने उसका कन्धा हिलाकर कहा--तुम यह क्या ऊल-जलूल बक रहे हो ? वागी यहाँ कहाँ है ?

मनहर ने उसकी ओर अपरिचित-भाव से देखकर कुछ कहा, फिर जोर से हंँसकर बोला - मै यह न मानूँगा बागी । तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। वहाँ मैं तुम्हारे लिए फूलों की एक माला बनाऊँगा।

जेनी ने समझा, यह शराब बहुत पी गये हैं । बक-झक कर रहे हैं। इनसे इस वक्त कुछ बातें करना व्यर्थ है। चुपके से कमरे के बाहर चली गई। उसे जरा-सी शंका हुई थी । यहाँ उसका मूलोच्छेद हो गया। जिस आदमी का अपनी वाणी पर अधिकार नहीं, वह इच्छा पर क्या अधिकार रख सकता है।

उसी घड़ी से मनहर को घरवालो की रट-सी लग गई। कभी वागीश्वरी को पुकारता, कभी अम्माँ को, कभी दादा को । उसकी आत्मा अतीत में विचरती रहती, उस अतीत में जब जेनी ने काली छाया की भांति प्रवेश न किया था और वागीश्वरी अपने सरल व्रत से उसके जीवन में प्रकाश फैलाती रहती थी।

दूसरे दिन जेनी ने जाकर उससे कहा-तुस इतनी शराब क्यों पीते हो ? देखते नहीं, तुम्हारी क्या दशा हो रही है ?

मनहर ने उसकी ओर आश्चर्य से देखकर कहा-तुम कौन हो?

जेनी--क्या मुझे नहीं पहचानते है इतनी जल्द भूल गये ?

मनहर---मैंने तुम्हें कभी नहीं देखा । मैं तुम्हें नहीं पहचानता।

जेनी ने और अधिक बातचीत न की। उसने मनहर के कमरे के शराब की बोतलें उठवा ली और नौकरों को ताकीद कर दी कि उसे एक घूंट भी शराब न दो जाय । उसे अब कुछ-कुछ सन्देह होने लगा , क्योकि मनहर की दशा उससे कहीं शंकाजनक थी, जितनी वह समझती थी । मनहर का जीवित और स्वस्थ रहना
[ १२३ ]उसके लिए आवश्यक था । इसी घोड़े पर बैठकर वह शिकार खेलती थी। घोड़े के वगैर शिकार का आनन्द कहाँ !

मगर एक सप्ताह हो जाने पर भी मनहर की मानसिक दशा में कोई अंतर न हुआ। न मित्रों को पहचानता, न नौकरों को । पिछले तीन बरसों का उसका जीवन एक स्वप्न की भाँति मिट गया था।

सातवें दिन जेनी सिविल सर्जन को लेकर आई, तो मनहर का कहीं पता न था।

( ७ )

पाँच साल के बाद बागीश्वरी का लुटा हुआ सोहाग फिर चेता । माँ-बाप पुत्र के वियोग में रो-रोकर अंधे हो चुके थे। वागीश्वरी निराशा मे भी आस बाँधे बैठी हुई थी। उसका मायका सपन्न था। बार-बार बुलावे आते, बाप आया, भाई आया, पर वह धैर्य और व्रत को देवी घर से न टली ।

जब मनहर भारत आया, तो वागीश्वरी ने सुना, वह विलायत से एक मेम लाया है। फिर भी उसे आशा थी कि वह आयेगा, लेकिन उसकी आशा पूरी न हुई। फिर उसने सुना, वह ईसाई हो गया है और आचार-विचार त्याग दिया है, तब उसने माथा ठोंक लिया।

घर की अवस्था दिन-दिन बिगड़ने लगी। वर्षा बन्द हो गई और सागर सूखने लगा । घर बिका, कुछ ज़मीन थी वह बिकी, फिर गहनो की बारी आई, यहां तक कि अब केवल आकाशी-वृत्ति थी। कभी चूल्हा जल गया, कभी ठढा पड़ रहा।

एक दिन सन्ध्या समय वह कुएं पर पानी भरने गई थी कि एक थका हुआ, जीर्ण, विपत्ति का मारा-जैसा आदमी आकर कुएँ की जगत पर बैठ गया। वागीश्वरी ने देखा तो मनहर। उसने तुरन्त घूँघट बढा लिया। आँखों पर विश्वास न हुआ, फिर भी आनन्द और विस्मय से हृदय मे फुरेरियाँ उड़ने लगी। रस्सी और कलसा कुएँ पर छोड़कर लपकी हुई घर आई और सास से बोली-अम्मांजी, जरा कुएं पर जाकर देखो, कोई आया है। सास ने कहा-तू पानी लाने गई थी, या तमाशा देखने ? घर में एक बूंद पानी नहीं है। कौन आया है कुएं पर ?

'चलकर देख लो न ।'

'कोई सिपाही-प्यादा होगा। अब उनके सिवा और कौन आनेवाला है। कोई महाजन तो नहीं है? [ १२४ ]'नहीं अम्मां, तुम चलो क्यो नहीं चलती।'

बूढी माता भाँति-भांति की शंकाएँ करती हुई कुएं पर पहुंची, तो मनहर दौड़कर उनके पैरो से चिमट गया। माता ने उसे छाती से लगाकर कहा-तुम्हारी यह क्या दशा है मानू ? क्या बीमार हो ? असबाब कहाँ है ?

मनहर ने कहा-पहले कुछ खाने को दो अम्मां। बहुत भूखा हूँ। मैं बड़ी दूर से पैदल चला आ रहा हूँ।

गाँव मे खबर फैल गई, मनहर आया है। लोग उसे देखने दौड़े। किस ठाट से आया है। बड़े ऊँचे पद पर है, हजारो रुपये पाता है। अब उसके ठाट का क्या पूछना । मेम भी साथ आई है या नहीं ?

मगर जब आकर देखा, तो आफत का मारा आदमी, फटे हालो, कपड़े तार तार, बाल बढे हुए, जैसे जेल से आया हो।

प्रश्नो को बौछार होने लगी---हमने तो सुना था, तुम किसी बड़े ऊँचे पद पर हो ?

मनहर ने जैसे किसी भूली बात को याद करने का विफल-प्रयास करके कहा- मैं । मैं तो किसी ओहदे पर नहीं हूँ।

'वाह ! तुम विलायत से मेम नहीं लाये थे ?'

मनहर ने चकित होकर कहा-विलायत ! विलायत कौन गया था ?

'अरे | भंग तो नहीं खा गये हो! तुम विलायत नहीं गये थे?'

मनहर मूढो की भांति हंसा-मैं विलायत क्या करने जाता?

अजी, तुमको वज़ीफा नहीं मिला था ? यहाँ से तुम विलायत गये। तुम्हारे पत्र वरावर आते थे। अब तुम कहते हो, मैं विलायत गया ही नहीं। होश में हो, या हम लोगों को उल्लू बना रहे हो?'

मनहर ने उन लोगों की ओर आँखें फाड़कर देखा और बोला-मैं तो कहीं नहीं गया । आप लोग जाने क्या कह रहे हैं।

अब इसमें सन्देह की गुंजाइश न रही कि वह अपने होश-हवास में नहीं है। उसे विलायत जाने के पहले की सारी बातें याद थीं। गाँव और घर के हरेक आदमी को पहचानता था, सबसे नम्रता और प्रेम से बातें करता था, लेकिन जब इंग्लैण्ड, अगरेज़ वीवी और ऊँचे पद का ज़िक्र आता तो भौचक्का होकर ताकने लगता। वागी-
[ १२५ ]
श्वरी को अब उसके प्रेम मे एक अस्वाभाविक अनुराग दीखता था, जो बनावटी मालूम होता था। वह चाहती थी कि उसके व्यवहार और आचरण मे पहले की-सी बेतकल्लुफी हो । वह प्रेम का स्वांग नहीं, प्रेस चाहती थी। दस ही पांच दिनों में उसे ज्ञात हो गया कि इस विशेष अनुराग का कारण बनावट या दिखावा नहीं, वरन् कोई मानसिक विकार है। मनहर ने मां-बाप का इतना अदब पहले कभी न किया था। उसे अब मोटे-से-मोटा काम करने में भी संकोच न था। वह जो बाज़ार से साग-भाजी लाने मे अपना अनादर समझता, अव कुएं से पानी खींचता, लकड़ियाँ फाड़ता और घर में , झाड़ू लगाता था, और अपने घर में ही नहीं, सारे महल्ले में उसकी सेवा और नम्रता की चर्चा होती थी।

एक बार महल्ले में चोरी हुई। पुलिस ने बहुत दौड़-धूप की , पर चोरी का पता न चला । मनहर ने चोरी का पता ही नहीं लगा दिया , बल्कि माल भी बरामद करा लिया। इससे आस-पास के गाँवो और महत्लो में उसका यश फैल गया। कोई चोरी हो जाती, तो लोग उसके पास दौड़े आते और अधिकांश उसके उद्योग सफल होते थे। इस तरह उसकी जीविका को एक व्यवस्था हो गई। वह अब वागीश्वरी के इशारों का गुलाम था। उसी की दिलजोई और सेवा मे उसके दिन कटते थे, अगर उसमे विकार या बीमारी का कोई लक्षण था, तो इतना ही। यही सनक उसे सवार हो गई थी।

वागीश्वरी को उसकी दशा पर दुख होता था -पर उसकी यह बीमारी उस स्वास्थ्य से उसे कहीं प्रिय थी, जब वह उसकी बात भी न पूछता था ।

( ८ )

छः महीनों के बाद एक दिन जेनी मनहर का पता लगाती हुई आ पहुँची। हाथ में जो कुछ था, वह सब उड़ा चुकने के बाद अब उसे किसी आश्रय की खोज थी। उसके चाहनेवालों मे कोई ऐसा न था, जो उसकी आर्थिक सहायता करता। शायद अब जेनी को कुछ ग्लानि भी आती थी। वह अपने किये पर लज्जित थी।

द्वार पर हार्न की आवाज़ सुनकर मनहर बाहर निकला और इस प्रकार जेनी को देखने लगा, मानो उसे कभी देखा नहीं है।

जेनी ने मोटर से उतरकर उससे हाथ मिलाया और अपनी बीती सुनाने लगी-तुम इस तरह मुझसे छिपकर क्यों चले आये? और फिर आकर एक-पत्र भी नहीं लिखा । [ १२६ ]
आखिर मैंने तुम्हारे साथ क्या बुराई की थी ? फिर मुझमे कोई बुराई देखी थी, तो तुम्हे चाहिए था, मुझे सावधान कर देते। छिपकर चले आने से क्या फायदा हुआ ? ऐसी अच्छी जगह मिल गई थी, वह भी हाथ से निकल गई।

मनहर काठ के उल्ल की भांति खड़ा रहा।

जेनी ने फिर कहा- तुम्हारे चले आने के बाद मेरे ऊपर जो संकट आये, वह सुनाऊँ तो तुम घवड़ा जाओगे । मैं इसी चिंता और दु:ख से बीमार हो गई । तुम्हारे बगैर मेरा जीवन निरर्थक हो गया है। तुम्हारा चित्र देखकर मन को ढाढस देती थी। तुम्हारे पत्रो को आदि से अन्त तक पढना मेरे लिए सबसे मनोरंजक विषय था। तुम मेरे माथ चलो। मैंने एक डाक्टर से बातचीत की है। वह मस्तिष्क के विकारों का डाँक्टर है । मुझे आशा है, उसके उपचार से तुम्हे लाभ होगा।

मनहर चुपचाप विरक्तभाव से खड़ा रहा, मानो वह न कुछ देख रहा है, न सुन रहा है।

सहसा वागीश्वरी निकल आई। जेनी को देखते ही वह ताड़ गई कि यही मेरी यूरोपियन सौत है। वह उसे बडे आदर-सत्कार के साथ भीतर ले गई। मनहर भी उनके पीछे-पीछे चला गया।

जेनी ने टूटी खाट पर बैठते हुए कहा---इन्होंने मेरा जिक्र तो तुमसे मिया ही होगा। मेरी इनसे लदन मे शादी हुई है।

वागोश्वरी बोली-यह तो मैं आपको देखते ही समझ गई थी।

जेनी- इन्होंने कभी मेरा जिक्र नहीं किया ?

वागीशरी-कभी नहीं। इन्हें तो कुछ याद ही नहीं ! आपको तो यहां आने में बड़ा कष्ट हुआ होगा ?

जेनी--महीनों के बाद तय इनके घर का पता चला। वहाँ से बिना कुछ कहे- सुने चल दिये।

'आपको कुछ मालूम है, इन्हें पया शिकायत है?'

'शराब बहुत पीने लगे थे । आपने किसी डाक्टर को नहीं दिखाया ?'

'हमने तो किसी को नहीं दिखाया।'

जेनी ने तिरस्कार करके कहा-क्यों ? क्या आप इन्हें हमेशा बीमार रखना चाहती हैं ? [ १२७ ]वागीश्वरी ने बेपरवाई से जवाब दिया- मेरे लिए तो इनका बीमार रहना इनके स्वस्थ रहने से कहीं अच्छा है। तब वह अपनी आत्मा को भूल गये थे, अब उसे पा गये।

फिर उसने निर्दय कटाक्ष करके कहा- मेरे विचार मे तो वह तब बीमार थे, अब स्वस्थ हैं।

जेनी ने चिढकर कहा-नानसेंस ! इनकी किसी विशेषज्ञ से चिकित्सा करानी होगी। यह जासूसी में बड़े कुशल हैं । इनके सभी अफसर इनसे प्रसन्न थे। वह चाहे तो अब भी इन्हे वह जगह मिल सकती है। अपने विभाग में ऊँचे-से-ऊँचे पद तक पहुँच सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इनका रोग असाध्य नहीं है, हाँ, विचित्र अवश्य है। आप क्या इनकी बहन हैं ?

वागीश्वरी ने मुस्किराकर कहा--आप तो गाली दे रही हैं । वह मेरे स्वामी हैं।

जेनी पर मानो वज्रपात-सा हुआ । उसके मुख पर से नम्रता का आवरण हट गया और मन मे छिपा हुआ क्रोध जैसे दांत पीसने लगा। उसकी गरदन की नसें तन गई , दोनो मुढ़ियों बँध गई। उन्मत्त होकर बोली-बड़ा दगाबाज़ आदमी है । इसने मुझे बड़ा धोखा दिया । मुझसे इसने कहा था, मेरी स्त्री मर गई है । कितना बड़ा धूर्त है! यह पागल नहीं है। इसने पागलपन का स्वांग भरा है। मैं अदालत से इसकी सजा कराऊँगी।

क्रोधावेश के कारण वह काँप उठी । फिर रोती हुई बोली --- इस दगाबाज़ी का मैं इसे मज़ा चखाऊँगी । ओह ! इसने मेरा कितना घोर अपमान किया है ! ऐसा विश्वासघात करनेवाले को जो दण्ड दिया जाय, वह थोड़ा है। इसने कैसी मीठी-मीठी बातें करके मुझे फाँसा। मैंने ही इसे जगह दिलाई । मेरे ही प्रयत्नो से यह बड़ा आदमी बना । इसके लिए मैंने अपना घर छोड़ा, अपना देश छोड़ा, और इसने मेरे साथ ऐसा कपट किया।

जेनी सिर पर हाथ रखकर बैठ गई। फिर तैश मे उठी और मनहर के पास जाकर उसको अपनी ओर खींचती हुई बोली-मैं तुझे खराब करके छोड़ूँगी। तूने मुझे समझा क्या है ........

मनहर इस तरह शान्त भाव से खड़ा रहा, मानो उससे कोई प्रयोजन नहीं है ।

फिर वह सिंहिनी की भांति मनहर पर टूट पड़ी और उसे ज़मीन पर गिराकर [ १२८ ]
उसकी छाती पर चढ बैठी। वागीश्वरी ने उसका हाथ पकड़कर अलग कर दिया और बोली-तुम ऐसी डायन न होतीं, तो उनको यह दशा ही क्यों होती ?

जेनी ने तैश में आकर जेब से पिस्तौल निकाली और वागीश्वरी की तरफ बढी। सहसा मनहर तड़पकर उठा, उसके हाथ से भरा हुआ पिस्तौल छीनकर फेंक दिया और वागीश्वरी के सामने खड़ा हो गया । फिर, ऐसा मुंह बना लिया, मानो कुछ हुआ ही नहीं।

उसी वक्त मनहर की माता दोपहरी की नींद सोकर उठी और जेनी को देखकर वागीश्वरी को ओर प्रश्न की आँखों से ताका।।

वागीश्वरी ने उपहास के भाव से कहा-यह आपकी बहू हैं।

बुढिया तिनककर बोली-कैसी मेरी बहू! यह मेरी बहू बनने जोग है बंदरिया ? लड़के पर न जाने क्या कर-करा दिया, अब छाती पर मूंग दलने आई है ?

जेनी एक क्षण तक खून-भरी आँखों से मनहर की ओर देखती रहो। फिर विजली की भांति कौंदकर उसने आंगन में पड़ी हुई पिस्तौल उठा ली और वागोमरी पर छोड़ना चाहती थी कि मनहर सामने आ गया। वह वेधड़क जेनी के सामने चला गया, उसके हाथ से पिस्तौल छीन ली और अपनी छाती में गोली मार ली।



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