मानसरोवर २/११ कुत्सा

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मानसरोवर २  (1946) 
द्वारा प्रेमचंद
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कुत्सा

अपने घर में आदमी बादशाह को भी गाली देता है। एक दिन मैं अपने दो-तीन मित्रों के साथ बैठा हुआ एक राष्ट्रीय संस्था के व्यक्तियों की आलोचना कर रहा था। हमारे विचार में राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को स्वार्थ और लोभ से ऊपर रहना चाहिए। ऊँचा और पवित्र आदर्श सामने रखकर ही राष्ट्र की सच्ची सेवा की जा सकती है। कई व्यक्तियों के आचरण ने हमे क्षुब्ध कर दिया था और हम इस समय बैठे अपने दिल का गुबार निकाल रहे थे। सम्भव था, उस परिस्थिति में पड़कर हम और भी गिर जाते , लेकिन उस वक्त तो हम विचारक के स्थान पर बैठे हुए थे और विचारक उदार बनने लगे, तो न्याय कौन करे ? विचारक को यह भूल जाने में विलम्ब नहीं होता कि उसमे भी कमजोरियाँ हैं और उसमें और अभियुक्त में केवल इतना ही अन्तर है कि या तो विचारक महाशय उस परिस्थिति में पड़े ही नहीं, या पड़कर भी अपनी चतुराई से बेदाग निकल गये।

पद्मा देवी ने कहा-महाशय 'क' काम तो बड़े उत्साह से करते हैं, लेकिन अगर हिसाब देखा जाय, तो उनके जिम्मे एक हजार से कम न निकलेगा।

उर्मिला देवी बोलीं-- खैर 'क' को तो क्षमा किया जा सकता है। उसके बाल- बच्चे हैं, आखिर उनका पालन-पोषण कैसे करे ? जब वह चौबीसों घण्टे सेवा-कार्य ही में लगा रहता है, तो उसे कुछ-न-कुछ तो मिलना ही चाहिए। उस योग्यता का आदमी ५००) वेतन पर भी न मिलता ; अगर इस साल-भर में उसने एक हजार खर्च कर डाला, तो बहुत नहीं है। महाशय 'ख' तो बिलकुल निहग हैं। 'जोरु न जाँता, अल्लाह मियाँ से नाता' ; पर उनके ज़िम्मे भी एक हजार से कम न होंगे। किसीको क्या अधिकार है कि वह गरीबो का धन मोटर की सवारी और यार-दोस्तो की दावत में उड़ा दे।

श्यामा देवी उद्दण्ड होकर बोलीं-महाशय 'ग' को इसका जवाब देना पड़ेगा भाई
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साहब । यो चचकर नहीं निकल सकते। हम लोग भिक्षा मांग-मांगकर पैसे लाते हैं, इसी लिए कि यार-दोस्तों की दावते हो, शराबे उड़ाई जायँ और मुजरे देखे जाये ?

रोज सिनेमा की सैर होती है। गरीबो का धन यो उड़ाने के लिए नहीं है। यहाँ पाई-पाई का लेखा समझाना पड़ेगा। मैं भरी सभा मे रगेदूंँगी। उन्हे जहाँ पांच सौ वेतन मिलता हो, वहाँ चले जायें । राष्ट्र के सेवक बहुतेरे निकल आयेंगे।

मैं भी एक बार इसी सस्था का मन्त्री रह चुका हूँ। मुझे गर्व है कि मेरे ऊपर कभी किसी ने इस तरह का आक्षेप नहीं किया , पर न जाने क्यों लोग मेरे मन्त्रित्व से सन्तुष्ट नहीं थे। लोगो का खयाल था कि में बहुत कम समय देता हूँ और मेरे समय मे संस्था ने कोई गौरव बढानेवाला कार्य नहीं किया , इसलिए मैंने रूठकर इस्तीफा दे दिया था। मैं उसी पद से बेलौस रहकर भी निकाला गया । महाशय 'ग' हज़ारो हड़प करके भी उसी पद पर जमे हुए हैं। क्या यह मेरे उनसे कुनह रखने की काफी वजह न थी ? मैं चतुर खिलाड़ी की भाँति खुद तो कुछ न करना चाहता था , किन्तु परदे की आड़ से रस्सी खीचता रहता था ।

मैंने रद्दा जमाया-देवीजी, आप अन्याय कर रही हैं। महागय 'ग' से ज्यादा दिलेर और .

उर्मिला ने मेरी बात काटकर कहा-में ऐसे आदमी को दिलेर नहीं कहती, जो छिपकर जनता के रुपये से शराब पिये। जिन शराब की दूकानों पर हम धरना देने जाते थे, उन्हीं दूकानो से उनके लिए शराब आती थी। इससे बढकर बेवफाई और क्या हो सकती है ? मैं तो ऐसे आदमी को देश-द्रोही कहती हूँ। मैंने और खींची-लेकिन यह तो तुम भी मानती हो कि महाशय 'ग' केवल अपने प्रभाव से हज़ारो रुपये चन्दा वसूल कर लाते हैं। विलायती कपड़े को रोकने का उन्हे जितना श्रेय दिया जाय, थोड़ा है।

उर्मिला देवी कव माननेवाली थीं। बोली-उन्हे चन्दे इस संस्था के नाम पर मिलते हैं, व्यक्तिगत रूप से धेला भी लायें तो कहूँ। रहा विलायती कपड़ा। जनता नामों को पूजती है और महाशय की तारीफें हो रही है , पर सच पूछिए तो यह श्रेय हमे मिलना चाहिए । वह तो कभी किसी दूकान पर गये भी नहीं। आज सारे शहर में इस बात की चर्चा हो रही है। जहाँ चन्दा मागने जाओ, वहीं लोग यहीं आक्षेप करने लगते हैं। किस-किसका मुंह बन्द कीजिएगा। आप बनते तो हैं जाति के
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सेवक ; मगर आचरण ऐसे कि शोहदो का भी न होगा। देश का उद्धार ऐसे विला- सियों के हाथों नहीं हो सकता । उसके लिए सच्चा त्याग होना चाहिए ।

( २ )

यही आलोचनाएं हो रही थीं कि एक दूसरी देवी आई भगवती । बेचारी चन्दा मांगने गई थीं। थकी-मांँदी चली आ रही थीं। यहाँ जो पचायत देखो, तो रम गई। उनके साथ उनकी बालिका भी थी। कोई दस साल उम्र होगी। इन कामों मे बराबर माँ के साथ रहती थी। उसे जोर की भूख लगी हुई थी। घर की कुँजी भी भगवती देवी के पास थी। पतिदेव दफ्तर से आ गये होंगे। घर का खुलना भी जरूरी था ; इसलिए मैंने बालिका को उसके घर पहुंचाने की सेवा स्वीकार की।

कुछ दूर चलकर बालिका ने कहा-आपको मालूम है, महाराय 'ग' शराब पीते हैं ?

मैं इस आक्षेप का समर्थन न कर सका। भोली-भाली बालिका के हृदय में कटुता, द्वष और प्रपञ्च का विष बोना मेरी ईर्ष्यालु-प्रकृति को भी रुचिकर न जान पड़ा । जहाँ कोमलता और सारल्य, विश्वास और माधुर्य का राज्य होना चाहिए, वहांँ कुत्सा और क्षुद्रता का मर्यादित होना कौन पसन्द करेगा, देवता के गले में कांटों की माला कौन पहनायेगा?

मैंने पूछा--तुमसे किसने कहा कि महाशय 'ग' शराब पीते हैं ?

'वाह ! पीते ही हैं, आप क्या जाने ?'

'तुम्हे कैसे मालूम हुआ ?

'सारे शहर के लोग कह रहे हैं।'

'शहरवाले झूठ बोल रहे हैं।'

बालिका ने मेरी और अविश्वास की आँखो से देखा, शायद वह समझी, मैं भो महाशय 'ग' के भाई-बदों में हूँ।

'आप कह सकते हैं, महाशय 'ग' शराब नहीं पीते ?'

'हाँ, वह कभी शराब नहीं पीते।'

'और महाशय 'क' ने जनता के रुपये भी नहीं उड़ाये ?'

'यह भी असत्य है।'

'और महाशय 'ख' मोटर पर हवा खाने नहीं जाते ?' [ १४२ ]'मोटर पर हवा खाना कोई अपराध नहीं है।'

'अपराध नहीं है राजाओं के लिए, रईसों के लिए, अफसरों के लिए, जो जनता का खून चूसते हैं । देश-भक्ति का दम भरनेवालो के लिए वह बहुत बड़ा अपराध है।'

'लेकिन यह तो सोचो, इन लोगों को कितना दौड़ना पड़ता है। पैदल कहाँ तक दौड़े

'पैरगाड़ी पर तो चल सकते हैं ? यह कुछ बात नहीं है। ये लोग शान दिखाना चाहते है, जिसमे लोग समझे, यह भी बहुत बड़े आदमी हैं। हमारी संस्था गरीबों की संस्था है। यहां मोटर पर उसी वक्त बैठना चाहिए, जब और किसी तरह काम ही न चल सके और शराबियों के लिए तो यहाँ स्थान ही न होना चाहिए। आप तो चंदे माँगने जाते नहीं । हमे कितना लज्जित होना पड़ता है, आपको क्या मालूम ?'

मैंने गंभीर होकर कहा--तुम्हें लोगों से कह देना चाहिए, यह सरासर गलत है। हम और तुम इस सस्था के शुभचिन्तक है। हमे अपने कार्यकर्ताओ का अप- मान करना उचित नहीं । हमें तो इतना ही देखना चाहिए कि वे हमारी कितनी सेवा करते है ।मैं यह नहीं कहता कि 'क, ख, ग में बुराइयां नहीं हैं । संसार में ऐसा कौन है, जिसमें बुराइयां न हों, लेकिन बुराइयों के मुकाबले मे उनमें गुण कितने हैं, यह तो देखो। हम सभी स्वार्थ पर जान देते है , मकान बनाते हैं, जायदाद खरीदते हैं। और कुछ नहीं, तो आराम से घर मे सोते है। ये बेचारे चौबीसो घटे देश-हित की फिक्र में डूबे रहते है। तीनों ही साल साल-भर की सज़ा काटकर, कई महीने हुए लौटे है। तीनो ही के उद्योग से अस्पताल और पुस्तकालय खुले, इन्हीं वीरो ने आंदो- लन करके किसानों का लगान कम कराया ; अगर इन्हे शराब पीना और धन कमाना होता, तो इस क्षेत्र में आते ही क्यो ?

बालिका ने विचारपूर्ण दृष्टि से मुझे देखा। फिर बोली-यह बतलाइए, महाशय 'ग' शराब पीते हैं या नहीं?

मैंने निश्चय-पूर्वक कहा-नहीं ! जो यह कहता है, वह झूठ बोलता है।

भगवती देवी का मकान आ गया । बालिका चली गई। मैं आज झूठ बोलकर जितना प्रसन्न था, उतना कभी सच बोलकर भी न हुआ था। मैंने एक बालिका के निर्मल हृदय को कुत्सा के पक मे गिरने से बचा लिया था।

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