मानसरोवर २/१२ दो बैलों की कथा

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मानसरोवर २  (1946) 
द्वारा प्रेमचंद

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दो बैलों की कथा

जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धि-हीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पल्ले दरजे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं । गधा सचमुच बेवकूफ है, या उसके सीधेपन, उसको निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता। गायें सींग मारती है, व्याई हुई गाय तो अनायास ही सिहिनी का रूप धारण कर लेती है । कुत्ता भी सरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ हो जाता है, लेकिन गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहो, गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब सड़ी हुई धास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असन्तोष की छाया भी दिखाई न देगी। वैशाख, मे चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता हो , पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा । उसके चेहरे पर एक स्थायी विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है । सुख-दुख, हानि-लाभ, किसी दशा मे भी उसे बदलते नहीं देखा । ऋषियो-मुनियो के जितने गुण हैं, वह सभी उसमे पराकाष्ठा को पहुंच गये हैं ; पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है। सदगुणों का इतना अनादर कहीं नहीं देखा। कदाचित् सीधापन संसार के लिए उप- युक्त नहीं है। देखिए न भारतवासियों की अफ्रीका मे क्यों दुर्दशा हो रही है ? क्यो अमेरिका मे उन्हे घुसने नहीं दिया जाता ? बेचारे शराब नहीं पीते, चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी तोड़कर काम करते हैं, किसीसे लड़ाई-झगड़ा नहीं करते, चार बातें सुनकर गम खा जाते है। फिर भी बदनाम है। कहा जाता है, वे जीवन के आदर्श को नीचा करते हैं। अगर वे भी ईंट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते, तो शायद सभ्य कहलाने लगते । जापान की मिसाल सामने है। एक ही विजय ने उसे संसार को सभ्य जातियो मे गण्य बना दिया।

लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कुछ ही कम गधा है, और वह है 'बैल' । जिस अर्थ मे हम गधा का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते
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अर्थ में बछिया के ताऊ का प्रयोग भी करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफों में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे , मगर हमारा विचार ऐसा नहीं। बैल कभी-कभी मारता भी है, कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने मे आ जाता है। और भी कई रीतियों से वह अपना असंतोष प्रकट कर देता है , अतएव उसका स्थान गधे से नीचा है।

झरी काछी के दोनो बैलो के नाम थे हीरा और मोती। दोनो पछाई जाति के थे । देखने मे सुन्दर, काम में चौकस, डोल में ऊँचे । बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनो मे भाई चारा हो गया था। दोनो आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक-भाषा मे विचार-विनिमय करते थे । एक दूसरे के मन की बात कैसे समन जाता या, हम नहीं कह सकते । अवश्य ही उनमे कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों मे श्रेष्ठता का दावा करनेवाला मनुष्य वंचित है। दोनों एक दूसरे को चाटकर और सूंघ- कर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भो मिला लिया करते थे। विग्रह के भाव से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से जैसे दोस्तो मे घनि- ष्टता होते ही चौल-चप्पा होने लगती है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफुसी, कुछ हलकी-सी रहती है, जिस पर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता। जिस वक्त यह दोनों घेल हल या गाड़ी मे जोत दिये जाते और गरदने हिला-हिलाकर चलते, तो हरएक की यही चेसा होती थी कि ज्यादा-से-ज्यादा वोझ मेरे ही गरदन पर रहे। दिन-भर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते, तो एक दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकन मिटा लिया करते। बाद मे खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनो साथ उठते, साथ नाद मे मुंह डालते और साथ ही बैठते थे । एक मुंह हटा लेता, तो दूसरा भी हटा लेता था।

सयोग की बात, झूरी ने एक बार गोई को ससुराल भेज दिया। बैलों को क्या मालूम, वे क्यों भेजे जा रहे हैं । समझे, मालिक ने हमें बेच दिया। अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने , पर झूरी के साले गया को घर तक गोई ले जाने में दांँतों पसीना आ गया। पीछे से हाँकता तो दोनों दायें-बायें भागते, पग- हिया पकड़कर आगे से खींचता, तो दोनो पोछे की ज़ोर लगाते । मारता तो दोनो सींग नीचे करके हुँकारते । अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होतो, तो करी से पूछते --- तुम हम गरीबो को क्यों निकाल रहे हो ? हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी । अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था तो और काम लेते । हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था। हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं
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की। तुमने जो कुछ खिलाया वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस ज़ालिम के हाथ क्यों बेच दिया !

सन्ध्या समय दोनो बैल अपने नये स्थान पर पहुंचे । दिन-भर के भूखे थे। लेकिन जब नाद मे लगाये गये, तो एक ने भी उसमे मुंँह न डाला। दिल भारी हो रहा था । जिसे उन्होने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया था। यह नया घर, नया गाँव, नये आदमी, सब उन्हें बेगानों-से लगते थे।

दोनों ने अपनी मूकभाषा में सलाह की, एक दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गये । जब गाँव मे सोता पड़ गया, तो दोनो ने जोर मारकर पगहे तुड़ा डाले और घर की तरफ चले ! पगहे बहुत मजबूत थे। अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड़ सकेगा ; पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गई थी। एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गई।

झूरी प्रातःकाल सोकर उठा, तो देखा बैल चरनी पर खड़े हैं। दोनों की गरदनों में आधा-आधा गरांँव लटक रहा है। घुटनो तक पाँव कीचड़ से भरे हैं, और दोनों की आँखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है।

झूरी बैलो को देखकर स्नेह से गद्गद हो गया। दौड़कर उन्हें गले लगा लिया । प्रमालिगन और चुम्बन का वह दृश्य बड़ा ही मनोहर था।

घर और गाँव के लड़के जमा हो गये और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे। गाँव के इतिहास में यह घटना अभूत-पूर्व न होने पर भी महत्त्वपूर्ण थी। वाल-सभा ने निश्चय किया, दोनों पशु-वीरों को अभिनन्दन-पत्र देना चाहिए। कोई अपने घर से रोटियाँ लाया, कोई गुड़, कोई चोकर, कोई भूसी ।

एक बालक ने कहा-ऐसे बैल किसीके पास न होंगे।

दूसरे ने समर्थन किया-- इतनी दूर से दोनों अकेले चले आये ।

तीसरा बोला-बैल नहीं हैं वे, उस जनम के आदमी हैं।

इसका प्रतिवाद करने का किसीको साहस न हुआ।

झूरी को स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा, तो जल उठी। बोली- कैसे नमकहराम बैल हैं कि एक दिन भी वहाँ काम न किया ; भाग खड़े हुए।

झूरी अपने बैलों पर यह अक्षेप न सुन सका---नमकहराम क्यों है ? चारा-दाना न दिया होगा, तो क्या करते ! [ १४६ ]स्त्री ने रोब के साथ कहा-बस, तुम्हीं तो बैलो को खिलाना जानते हो, और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं।

झूरी ने चिढाया-चारा मिलता तो क्यो भागते ?

स्त्री चिढी-~~-भागे इसलिए कि वे लोग तुम-जैसे बुद्धुओं की तरह बैलों को सहलाते नहीं। खिलाते हैं, तो रगड़कर जोतते भी हैं। यह दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले । अब देखू, कहाँ से खली और चोकर मिलता है। सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूंगी, खायें चाहे मरे।

यही हुआ। मजूर को कड़ी ताकीद कर दी गई कि वैलो को खाली सूखा भूसा दिया जाय।

बैंलो ने नांद में मुंँह डाला, तो फीका-फीका । न कोई चिकनाहट, न कोई रस ! क्या खायें ? आशा-भरी आंखों से द्वार की ओर ताकने लगे ।

झूरी ने मजूर से कहा---थोड़ी-सी खली क्यो नहीं डाल देता बे ?

'मालकिन मुझे मार ही डालेगी।'

'चुराकर डाल आ ।'

'ना दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे।'

( ३ )

दूसरे दिन झूरो का साला फिर आया और बैलो को ले चला। अबकी उसने दोनों को गाड़ी में जोता।

दो-चार वार मोती ने गाड़ी को सड़क की खाई में गिराना चाहा , पर हीरा ने संभाल लिया । वह ज्यादा सहनशील था ।

संध्या समय घर पहुँचकर उसने दोनों को मोटो रस्सियों से बांधा, और कल की शरारत का मजा चखाया। फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली-चूनी सब कुछ दी।

दोनो बैलो का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। झूरी इन्हे फूल की छड़ी से भी न छूता था। उसकी टिटकार पर दोनो उड़ने लगते थे। यहां मार पड़ी। आहत सम्मान को व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा ! नांद की तरफ आंखें तक न उठाई ।

दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता , पर इन दोनों ने जैसे पांव उठाने
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की कसम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया; पर दोनों ने पाँव न उठाये। एक बार जब उस निर्दयो ने हीरा की नाक में खूब डडे जमाये, तो मोती का गुस्सा काबू के बाहर हो गया। हल लेकर भागा । हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब टूट-टाटकर बराबर हो गया। गले में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होती, तो दोनो पकड़ाई में न आते।

हीरा ने मूक भाषा में कहा-भागना व्यर्थ है।

मोती ने उसी भाषा मे उत्तर दिया-तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी। अबकी बड़ी मार पड़ेगी।

'पड़ने दो, बैल का जन्म लिया है, तो मार से कहाँ तक बचेंगे।'

'गया दो आदमियों के साथ दौडा आ रहा है। दोनों के हाथों में लाठियां हैं।'

मोती बोला-कहो तो दिखा दूं कुछ मजा मैं भी । लाठी लेकर आ रहा है।

हीरा ने समझाया-नहीं भाई । खड़े हो जाओ।

'मुझे मारेगा, तो मैं भी एक-दो को गिरा दूंगा।'

'नहीं। हमारी जाति का यह धर्म नहीं है।'

मोती दिल में ऐंठकर रह गया। गया आ पहुँचा, और दोनो को पकड़कर ले चला। कुशल हुई कि उसने इस वक्त मार-पीट न की, नहीं मोती भी पलट पड़ता। उसके तेवर देखकर गया और उसके सहायक समझ गये कि इस वक्त टाल जाना ही मसलहत है।

आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया। दोनो चुप-चाप खड़े रहे। घर के लोग भोजन करने लगे। उसी वक्त एक छोटो-सी लड़की दो रोटियां लिये निकली और दोनों के मुँह मे देकर चली गई। उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शांत होती , पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया । यहाँ भी किसी सज्जन का वास है । लड़की भैरो की थी। उसको माँ मर चुकी थी। सौतेली माँ उसे मारती रहती थी , इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गई थी।

दोनो दिन-भर जोते जाते, डण्डे खाते, अडते। शाम को थान पर बाँध दिये जाते, और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियाँ खिला जाती। प्रेम के इस प्रसाद की वह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे , भगर दोनों की आँखों मे, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था।

एक दिन मोती ने मूक भाषा मे कहा-अब तो नहीं सहा जाता हीरा । [ १४८ ]'क्या करना चाहते हो ?'

'एकाध को सींगो पर उठाकर फेंक दूंगा।'

'लेकिन जानते हो वह प्यारी लड़की, जो हमें रोटियां खिलाती है, उसी की लड़की है, जो इस घर का मालिक है । वह बेचारी अनाथ न हो जायगी !'

'तो मालकिन को न फेंक दूं ? वही तो उस लड़की को मारती है।'

'लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, यह भूले जाते हो।'

'तुम तो किसी तरह निकलने ही नहीं देते। तो आओ, आज तुड़ाकर भाग चलें।’

'हाँ, यह मैं स्वीकार करता हूँ , लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे ।'

'इसका उपाय है। पहले रस्मी को थोड़ा सा चबा लो। फिर एक झटके में जाती है।'

रात को जब बालिका रोटियाँ खिलाकर चली गई, तो दोनो रस्सियां चबाने लगे , पर मोटी रस्सी मुंह में न आती थी। बेचारे बार-बार जोर लगाकर रह जाते थे।

सहसा घर का द्वार खुला, और वही लड़की निकली । दोनो सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे। दोनो को पूंँछे खड़ी हो गई । उसने उनके माथे सहलाये और बोली-खोले देती हूँ। चुपके से भाग जाओ, नहीं यहाँ लोग मार डालेंगे। आज घर से सलाह हो रही है कि इनकी नाको में नाय डाल दी जाय।

उसने गरांँव खोल दिया , पर दोनो चुपचाप खड़े रहे।

मोती ने अपनी भाषा मे पूछा --- अब चलते क्यों नहीं ?

हीरा ने कहा-चलें तो , लेकिन कल इस अनाथ पर आफत आयेगी । सब इसी पर सन्देह करेंगे। सहसा बालिका चिलाई-दोनों फूफायाले बैल भागे जा रहे हैं । ओ दादा ! दादा ! दोनों बैल भागे जा रहे है ! जल्दी दौड़ो !

गया हड़बड़ाकर भीतर से निकला और बैलों को पकड़ने चला । वह दोनों भागे । गया ने पीछा किया। वह और भी तेज हुए। गया ने शोर मचाया। फिर गाँव के कुछ आदमियों को साथ लेने के लिए लौटा। दोनों मित्रों को भागने का मौका मिल गया। सौधे दौड़ते चले गये। यहां तक कि मार्ग का ज्ञान न रहा। जिस परिचित
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मार्ग से आये थे, उसका यहाँ पता न था । नये-नये गाँव मिलने लगे। तब दोनों एक खेत के किनारे खड़े होकर सोचने लगे, अब क्या करना चाहिए।

हीरा ने कहा-मालूम होता है, राह भूल गये।

'तुम भी तो बेतहाशा भागे। वहीं उसे मार गिराना था।'

'उसे मार गिराते, तो दुनिया क्या कहती है वह अपना धर्म छोड़ दे; लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोडे?

दोनो भूख से व्याकुल हो रहे थे। खेत मे मटर खड़ी थी। चरने लगे। रह- रहकर आहट ले लेते थे, कोई आता तो नहीं है।

जब पेट भर गया, दोनों ने आजादी का अनुभव किया, तो मस्त होकर उछलने- कूदने लगे। पहले दोनों ने डकार ली। फिर सींग मिलाये, और एक दूसरे को ठेलने लगे। मोती ने हीरा को कई कदम पीछे हटा दिया, यहाँ तक कि वह खाई में गिर गया । तब उसे भी क्रोध आया । संँभलकर उठा और फिर मोती से भिड़ गया । मोती ने देखा-खेल में झगड़ा हुआ चाहता है, तो किनारे हट गया।

( ४ )

अरे । यह क्या ! कोई साँड़ डौंकता चला आ रहा है। हाँ साँड़ ही है। वह सामने आ पहुँचा। दोनों मित्र चगले झांक रहे थे। साँड़ पूरा हाथी है। उससे भिड़ना जान से हाथ धोना है, लेकिन न भिड़ने पर भी तो जान बचती नहीं नजर आती। इन्हीं की तरफ आ भी रहा है । कितनी भयंकर सूरत है ?

मोती ने मूक भाषा में कहा-बुरे फंसे । जान कैसे बचेगी। कोई उपाय सोचो।

हरी ने चितिन स्वर में कहा- अपने घमंड में भूला हुआ है। आरजू-विनती न सुनेगा।

'भाग क्यों न चलें!

'भागला कायरता है।'

'तो फिर यहीं मरो । बन्दा तो नौ-दो ग्यारह होता है।'

'ओर जो दौड़ाये?'

'तो फिर कोई उपाय सोचो जत्द ।'

'उपाय यही है कि उस पर दोनों जने एक साथ चोट करें। मैं आगे से रगेदता हूँ, तुम पीछे से रगेदो, दोहरी मार पड़ेगी तो भाग खड़ा होगा। ज्योही मेरी ओर [ १५० ]
झपटे, तुम बगल से उसके पेट में सींग घुसेड़ देना। जान जोखिम है, पर दूसरा उपाय नहीं है।'

दोनों मित्र जान हथेलियों पर लेकर लपके। साड़ को कभी सगठित शत्रुओ से लड़ने का तजरबा न था। वह तो एक शत्रु से मल्लयुद्ध करने का आदी था। ज्योंही होरा पर झपटा, मोती ने पीछे से दौड़ाया। साँड़ उसकी तरफ मुड़ा, तो हीरा ने रगेदा। सांड चाहता था कि एक एक करके दोनों को गिरा लें, पर यह दोनों भी उस्ताद थे। उसे यह अवसर न देते थे। एक बार साँड़ झल्लाकर हीरा का अन्त कर देने के लिए चला, कि मोती ने बगल से आकर उसके पेट में सींग भोंक दी। सांड क्रोध में आकर पीछे फिरा, तो होरा ने दूसरे पहलू में सींग चुभा दिया। आखिर बेचारा जख्मी होकर भागा, और दोनों मित्रो ने दूर तक उसका पीछा किया। यहाँ तक कि सांड़ वेदम होकर गिर पड़ा। तब दोनों ने उसे छोड़ दिया।

दोनों मित्र विजय के नशे में घूमते चले जाते थे।

मोती ने अपनी सांकेतिक भाषा में कहा-मेरा जी तो चाहता था कि बचा को मार ही डालूँ।

हीरा ने तिरस्कार किया--गिरे हुए वैरी पर सींग न चलाना चाहिए।

'यह सब ढोंग है । वैरी को ऐसा मारना चाहिए कि फिर न उठे।'

'अब घर कैसे पहुंचेंगे, यह सोचो ।'

'पहले कुछ खा लें, तो सोचें ।'

सामने मटर का खेत था ही। मोती उसमें घुस गया। हीरा मना करता रहा ; पर उसने एक न सुनी । अभी दो ही चार ग्रास खाये थे कि दो आदमी लाठियाँ लिये दौड़ पड़े, ओर दोनो मित्रों को घेर लिया। हीरा तो मेड़ पर था, निकल गया । मोती सींचे हुए खेत में था। उसके खुर कीचड़ में धँसने लगे। न भाग सका । पकड़ लिया गया । हीरा ने देखा, सगी संकट में है, तो लौट पड़ा। फंसेंगे तो दोनों साथ फंसेंगे । रखवालों ने उसे भी पकड़ लिया।

प्रात काल दोनों मित्र काजीहौस मे चन्द कर दिये गये।

( ५ )

दोनों मित्रों को जीवन में पहली बार ऐसा साबका पड़ा कि सारा दिन बीत गया और खाने को एक तिनका भी न मिला । समझ ही में न आता था, यह कैसा स्वामी

१० [ १५१ ]है। इससे तमाम फिर भी अच्छा था । वहाँ कई भैंसें थीं, कई बकरियां, कई घोड़े, कई गधे ; पर किसीके सामने चारा न था ; सब जमीन पर मुर्दो की तरह पड़े थे। कई तो इतने कमजोर हो गये थे कि खड़े भी न हो सकते थे। सारा दिन दोनों मित्र फाटक की और टकटकी लगाये ताकते रहे, पर कोई चारा लेकर आता न दिखाई दिया। तब दोनो ने दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरू की , पर इससे क्या तृप्ति होती।

रात को भी जब कुछ भोजन न मिला, तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी । मोती से बोला- अब तो नहीं रहा जाता मोती।

मोती ने सिर लटकाये हुए जवाब दिया- मुझे तो मालूम होता है, प्राण निकल रहे हैं।

'इतनी जल्द हिम्मत न हारों भाई ! यहाँ से भागने का कोई उपाय निकालना चाहिए।'

'आओ, दीवार तोड़ डाले।'

'मुझसे तो अब कुछ न होगा।'

'बस, इसी बूते पर अकड़ते थे।'

'सारी अकड़ निकल गई।'

बाड़े की दीवार कच्ची थी। हीरा मजबूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार मे गडा दिये और जोर मारा, तो मिट्टी का एक चिप्पड़ निकल आया। फिर तो उसका साहस बढ़ा । उसने दौड़-दौडकर दोवार पर चोटें की और हर चोट मे थोडी- थोड़ी मिट्टी गिराने लगा।

उसी समय काँजोहौस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाजिरी लेने आ निकला। हीरा का यह उजदुपन देखकर उसने उसे कई डंडे रसीद किये और मोटी-सी रस्सी से बांँध दिया ।

मोती ने पड़े-पड़े कहा-आखिर मार खाई, क्या मिला ?

'अपने बूते-भर जोर तो मार लिया !'

'ऐसा जोर मारना किस काम का कि और बंधन मे पड़ गये।'

'जोर तो मारता ही जाऊँगा, चाहे कितने ही बंधन पड़ते जायें।'

'जान से हाथ धोना पड़ेगा।' [ १५२ ]'कुछ परवाह नहीं। यों भी तो मरना ही है । सोचा की दीवार खूद जाती, तो कितनी जाने बच जाती ? इतने भाई यहाँ बन्द हैं। किसी देह मे जान नहीं है। दो- चार दिन और यही हाल रहा, तो सब मर जायेंगे।'

'हाँ, यह बात तो है । अच्छा तो लो फिर मैं भी जोर लगाता हूँ।'

मोती ने भी दीवार मे उसी जगह सींग मारा। थोड़ी-सी मिट्टी गिरी और हिम्मत बढी। फिर तो वह दीवार में सींग लगाकर इस तरह जोर करने लगा, मानो किसी द्वन्द्वी से लड़ रहा है । आखिर कोई दो घटे की जोर-आजमाई के बाद दीवार ऊपर से लगभग एक हाथ गिर गई। उसने दूनी शक्ति से दूसरा धक्का मारा, तो आधी दीवार गिर पड़ी।

दीवार का गिरना था कि अधमरे-से पड़े हुए सभी जानवर चेत उठे। तीनों घोड़ियां सरपट भाग निकली। फिर बकरियाँ निकली। इसके बाद भैसें भी खिसक गई , पर गधे अभी तक ज्यों-के-त्यों खड़े थे।

हीरा ने पूछा--तुम दोनों क्यों नहीं भाग जाते ?

एक गधे ने कहा-जो कहीं फिर पकड़ लिये जायँ ?

'तो क्या हरज है । अभी तो भागने का अवसर है?'

'हमें तो डर लगता है । हम यहीं पड़े रहेंगे।

आधी रात से ऊपर जा चुकी थी। दोनो गधे अभी तक खड़े सोच रहे थे, भागे या न भागें । और मोती अपने मित्र की रस्सी तोड़ने में लगा हुआ था। जब वह हार गया तो, हीरा ने कहा--तुम जाओ, मुझे यहीं पड़ा रहने दो। शायद कहीं भेंट हो जाय।

मोती ने आँखों में आंसू लाकर कहा-तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो हीरा ? हम और तुम इतने दिनो एक साथ रहे। आज तुम विपत्ति में पड़ गये, तो मैं तुम्हे छोड़कर अलग हो जाऊँ ?

हीरा ने कहा--बहुत मार पड़ेगी। लोग समझ जायेंगे, यह तुम्हारी शरारत है।

मोती गर्व से चोला--जिस अपराध के लिए तुम्हारे गले में बंधन पड़ा, उसके लिए अगर मुझपर मार पड़े, तो क्या चिन्ता। इतना तो हो ही गया कि, नौ-दस प्राणियो की जान बच गई। वह सब तो आशीर्वाद देंगे ? [ १५३ ]यह कहते हुए माती ने दोनों गधों को सींगों से मार-मारकर बाड़े के बाहर निकाला और तब अपने बन्धु के पास आकर सो रहा ।

भोर होते ही मुंशी और चौकीदार और अन्य कर्मचारियों मे कैसी खलबली मची, इसके लिखने की ज़रूरत नहीं । बस, इतना ही काफी है कि मोती की खूब मरम्मत हुई और उसे भी मोटी रस्सी से बांध दिया गया।

( ६ )

'एक सप्ताह तक दोनों मित्र वहाँ बॅधे पड़े रहे। किसीने चारे का एक तृण भी न डाला। हाँ, एक बार पानी दिखा दिया जाता था। यही उनका आधार था। दोनों इतने दुर्बल हो गये थे कि उठा तक न जाता था । ठठरियाँ निकल आई थी।

एक दिन बाढे के सामने डुग्गी बजने लगी और दोपहर होते-होते वहाँ पचास- साठ आदमी जमा हो गये। तब दोनो मित्र निकाले गये और उनकी देख-भाल होने लगी, लोग आ-आकर उनकी सूरत देखते और मन फीका करके चले जाते। ऐसे मृतक बैलों का कौन खरीदार होता ।

सहसा एक दढियल आदमी, जिसकी आँखें लाल थीं और मुद्रा अत्यन्त कठोर, आया और दोनों मित्रों के कूल्हों मे उंँगली गोदकर मुंशीजी से बातें करने लगा। उसका चेहरा देखकर अन्तर्ज्ञान से दोनों मित्रो के दिल काँप उठे। वह कौन है और उन्हे क्यों टटोल रहा है, इस विषय में उन्हे कोई सन्देह न हुआ। दोनों ने एक दूसरे को भीत नेत्रों से देखा, और सिर झुका लिया।,

हीरा ने कहा---गया के घर से नाहक भागे । अब जान न बचेगी।

मोती ने अश्रद्धा के भाव से उत्तर दिया-कहते हैं, भगवान् सबके ऊपर दया करते हैं। उन्हें हमारे ऊपर क्यों दया नहीं आती ?

भगवान के लिए हमारा मरना-जीना दोनों बराबर है। चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन उनके पास तो रहेगे? एक वार भगवान् ने उस लड़की के रूप में हमे बचाया था। क्या अब न बचायेंगे?

'यह आदमी छुरी चलायेगा । देख लेना।'

'तो क्या चिंता है। मास, खाल, सींग, हड्डी सब किसी-न-किसी काम आ जायँगी।

नीलाम हो जाने के बाद दोनों मित्र उस दढियल के साथ चले। दोनों की वोटी[ १५४ ]
वोटी कॉप रही थी। बेचारे पाव तक न उठा सकते थे; पर भय के मारे गिरते- पड़ते भागे जाते थे, क्योंकि वह ज़रा भी चाल धीमी हो जाने पर जोर से डंडा जमा देता था।

राह में गाय-बैलों का एक रेवड़ हरे-हरे हार में चरता नज़र आया । सभी जान- वर प्रसन्न थे, चिकने, चपल । कोई उछलता था, कोई आनन्द से बैठा पागुर करता था। कितना सुखी जीवन था इनका , पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिन्ता नहीं कि उनके दो भाई वधिक के हाथ पड़े कैसे दुखी हैं।

सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ कि यह परिचित राह है। हाँ, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था । वही खेत, वही बारा, वही गाँव मिलने लगे। प्रतिक्षण उनको चाल तेज़ होने लगी। सारी थकन, सारी दुर्बलता गायब हो गई। अहा । यह लो अपना झी हार आ गया । इसी कुएं पर हम पुर चलाने आया करते थे, हाँ, यही कुआं है।

मोतो ने कहा-हमारा घर नगीच आ गया ।

हीरा बोला-भगवान् की दया है।

'मैं तो अब घर भागता हूँ।'

'यह जाने देगा’

'इसे मैं मार गिराता हूँ।'

'नहीं-नहीं, दौड़कर थान पर चलो। वहाँ से हम आगे न जायेंगे।'

दोनो उन्मत्त होकर बछड़ों की भाँति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौड़े। वह हमारा थान है। दोनों दौड़कर अपने थान पर आये और खड़े हो गये । दढियल भी पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था।

झूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था। बैलों को देखते ही दौड़ा और उन्हे वारी- चारी से गले लगाने लगा। मित्रों की आंखों से आनन्द के आँसू बहने लगे। एक झरी का हाथ चाट रहा था।

दढियल ने जाकर बैलों की रस्सियां पकड़ ली।

झुरी ने कहा- मेरे बैल हैं।

'तुम्हारे बैल कैसे ? मैं मवेशीखाने से नीलाम लिये आता हूँ।'

'मैं तो समझता हूँ, चुराये लिये आते हो । चुपके से चले जाओ। मेरे बैल है।’ मैं बेचूंगा, तो बिकेंगे। किसीको मेरे बैल नीलाम करने का क्या अखतियार है?' [ १५५ ]'जाकर थाने में रपट कर दूँगा।'

'मेरे बैल हैं। इसका सबूत यह है कि मेरे द्वार पर खड़े हैं।'

दढियल झल्लाकर बेलों को जबरदस्ती पकड़ ले जाने के लिए बढा। उसी वक्त मोती ने सींग चलाया । दढियल पीछे हटा । मोती ने पीछा किया । दढियल भागा। मोती पीछे दौड़ा। गाँव के बाहर निकल जाने पर वह रुका , पर खड़ा दढियल का रास्ता देख रहा था । दढियल दूर खड़ा धमकियां दे रहा था, गालियाँ निकाल रहा था, पत्थर फेंक रहा था । और मोती विजयी शूर की भांति उसका रास्ता रोके खड़ा था। गाँव के लोग यह तमाशा देखते थे, और हॅसते थे।

जब दढ़ियल हारकर चला गया, तो मोती अकड़ता हुआ लौटा।

हीरा ने कहा- मैं डर रहा था कि कही तुम गुस्से में आकर मार न बैठो।

'अगर वह मुझे पकड़ता, तो वे मारे न छोड़ता।'

'अब न आयेगा ?'

'आयेगा तो दूर ही से खबर लूंँगा। देखू कैसे ले जाता है।'

'जो गोली मरवा दे ?'

'मर जाऊँगा ; पर उसके काम तो न आऊँगा।'

'हमारी जान को कोई जान ही नहीं समझता।'

'इसी लिए कि हम इतने सीधे होते हैं।'

ज़रा देर में नांदों में खली, भूसा, चोकर, दाना भर दिया गया और दोनों मित्र खाने लगे। झरी खड़ा दोनों को सहला रहा था और बीसो लड़के तमाशा देख रहे थे। सारे गाँव में उछाह-सा मालूम होता था।

उसी समय मालकिन ने आकर दोनो के माथे चूम लिये।


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