मानसरोवर २/७ मिस पद्मा

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मानसरोवर २  (1946) 
द्वारा प्रेमचंद
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मिस पद्मा

कानून में अच्छी सफलता प्राप्त कर लेने के बाद मिस पद्मा को एक नया अनुभव हुआ, वह जीवन का सूनापन। विवाह को उसने एक अप्राकृतिक बंधन समझा था और निश्चय कर लिया था कि स्वतन्त्र रहकर जीवन का उपभोग करूंगी। एम॰ ए॰ की डिग्री ली, फिर क़ानून पास किया और प्रैक्टिस शुरू कर दी। रूपवती थी, युवती थी, मृदुभाषिणी थी और प्रतिभाशालिनी थी। मार्ग मे कोई बाधा न थी। देखते-देखते वह अपने साथी नौजवान-मर्द वकीलों को पीछे छोड़कर आगे निकल गई, और अब उसकी आमदनी कभी-कभी एक हजार से भी बढ़ जाती। अब उतने परिश्रम और सिर मराज़न की आवश्यकता न रही। मुकदमे अधिकतर वही होते थे, जिनका उसे पूरा अनुभव हो चुका था, उनके विषय की किसी तरह की तैयारो को उसे ज़रूरत न मालूम होती । अपनी शक्तियों पर कुछ विश्वास भी हो गया था, कानून मे कैसे विजय मिल सकती है, इसके कुछ लटके भी मालूम हो गये थे , इसलिए उसे अब बहुत अवकाश मिलता था और इसे वह किस्से कहानियाँ पढने, सैर करने, सिनेमा देखने, मिलने-मिलाने में खर्च करती थी। जीवन को सुखी बनाने के लिए किसी व्यसन की ज़रूरत को वह खूब समझती थी। उसने फूल-पौदे लगाने का व्यसन पाल लिया था। तरह-तरह के बीज और पौदे मॅगाती और उन्हें उगते-बढते, फूलते- फलते देखकर खुश होती; मगर फिर भी जीवन मे सूनेपन का अनुभव होता रहता था। यह बात न थी कि उसे पुरुषो से विरक्ति हो । नहीं, उसके प्रेमियों की कमी न थी , अगर उसके पास केवल रूप और यौवन होता, तो भी उपासकों का अभाव न रहता ; मगर यहाँ तो रूप और यौवन के साथ धन भी था। फिर रसिकवृन्द क्यो चूक जाते। पद्मा को विलास से तो घृणा थी नहीं, धृणा थी पराधीनता से, विवाह को जीवन का व्यवसाय बनाने से। जब स्वतत्र रहकर भोग-विलास का आनंद उङाया जा सकता है, तो फिर क्यों न उड़ाया जाय ? भोग में उसे कोई नैतिक [ ९० ]
बाधा न थी। इसे वह केवल देह को एक भूख समझती थी। इस भूख को किसी साफ-सुथरी दुकान से भी शात किया जा सकता है। और पद्मा को साफ- सुथरी दुकान की हमेशा तलाश रहती थी। ग्राहक दुकान में वही चीज़ लेता है, जो उसे पसंद आती है । पद्मा भी वही चीज चाहती थी। यो उसके दर्जनों आशिक थे, कई वकील, कई प्रोफेसर, कई डाक्टर, कई रईस , मगर ये सब-के-सब ऐयाश थे, बेफिक्र, केवल भौंरे की तरह रस लेकर उड़ जानेवाले । ऐसा एक भी न था, जिस पर वह विश्वास कर सकती। अब उसे मालम हुआ कि उसका मन केवल भोग नहीं चाहता, कुछ और भी चाहता है । वह चीज़ क्या थी ? पूरा आत्म-समर्पण, और यह उसे न मिलती थी।

उसके प्रेमियों मे एक मि० प्रसाद था, बड़ा ही रूपवान् और धुरन्धर विद्वान् । एक कालेज में प्रोफेसर था। वह भी मुक्त भोग के आदर्श का उपासक था और पद्मा उस पर फिदा थी। चाहती थी, उसे बाँधकर रखे, सम्पूर्णत अपना बना ले, लेकिन प्रसाद चगुल मे न आता था।

संध्या हो गई थी। पमा सैर करने जा रही थी कि प्रसाद आ गये। सैर करना मुल्तवी हो गया। यातचीत मे सैर से कहीं ज्यादा आनंद था और पद्मा आज प्रसाद से कुछ दिल की बात कहनेवाली थी। कई दिन के सोच-विचार के बाद आज उसने कह डालने ही का निश्चय किया था ।

उसने प्रसाद को नशीली आँखों मे आँखें मिलाकर कहा--तुम यहीं मेरे बंगले में आकर क्यो नहीं रहते।

प्रसाद ने कुटिल-विनोद के साथ कहा---- नतीजा यह होगा कि दो-चार महीने मे यह मुलाकात भी बन्द हो जायगी।

'मेरी समझ में नहीं आया, तुम्हारा क्या आशय है ?'

'आशय वही है, जो मैं कह रहा हूँ।'

'आखिर क्यो ?'

'मैं अपनी स्वतन्त्रता न खोना चाहूँगा, तुम अपनी स्वतत्रता न खोना चाहोगी। तुम्हारे पास तुम्हारे आशिक आयेंगे, मुझे जलन होगी। मेरे पास मेरी प्रेमिकाएँ आयेंगी, तुम्हे जलन होगी । मन-मुटाव होगा, फिर वैमनस्य होगा और तुम मुझे घर
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से निकाल दोगी। घर तुम्हारा है ही। मुझे बुरा लगेगा ही, फिर यह मैत्री कैसे निभेगी? .

दोनों कई मिनेट तक मौन रहे। प्रसाद ने परिस्थिति को इतने स्पष्ट, बेलाग, । लट्ठमार शब्दों में खोलकर रख दिया था कि कुछ कहने की जगह न मिलती थी।

आखिर प्रसाद ही को नुकता सूझा। बोला-जब तक हम दोनों यह प्रतिज्ञा न कर लें कि आज से मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरी हो, तब तक एक साथ निर्वाह नहीं हो सकता।

'तुम यह प्रतिज्ञा करोगे?'

'पहले तुम बतलाओ।'

'मैं करूंगी।'

'तो मैं भी करूंगा।'

'मगर इस एक बात के सिवा मैं और सभी बातों में स्वतत्र रहूंँगी ।'

'और मैं भी इस एक बात के सिवा हर बात में स्वतंत्र रहुंँगा।'

'मंजूर।'

'मंजूर।'

'तो कबसे?

'जबसे तुम कहो।'

'मैं तो कहती हूँ, कल ही से।'

'तय है । लेकिन अगर तुमने इसके विरुद्ध आचरण किया तो ?'

'और तुमने किया तो?'

'तुम मुझे घर से निकाल सकती हो ; लेकिन मैं तुम्हें क्या सज़ा दूंगा ?'

'तुम मुझे त्याग देना, और क्या करोगे ?'

'जो नहीं, तब इतने से चित्त को शान्ति न मिलेगी। तब मैं चाहूंगा तुम्हे जलील करना ; बल्कि तुम्हारी हत्या करना ।'

'तुम बड़े निर्दयी हो प्रसाद ?'

'जब तक हम दोनों स्वाधीन है, हमें किसीको कुछ कहने का हक नहीं , लेकिन एक बार प्रतिज्ञा में बँध जाने के बाद फिर न मैं उसकी अवज्ञा सह सकूँगा, न तम सह सकोगी । तुम्हारे पास दण्ड का साधन है, मेरे पास नहीं है । कानून मुझे
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भी अधिकार नहीं देता । मैं तो केवल अपने पशुबल से प्रतिज्ञा का पालन कराऊँगा और तुम्हारे इतने नौकरों के सामने मैं अकेला क्या कर सकूँगा।'

'तुम तो चित्र का श्याम पक्ष हो देखते हो। जब मैं तुम्हारी हो रही हूँ, तो यह मकान ओर नौकर-चाकर और जायदाद सब कुछ तुम्हारी है। हम-तुम दोनों जानते है कि ईर्ष्या से ज्यादा घृणित कोई सामाजिक पाप नहीं है। तुम्हे मुझसे प्रेम है या नहीं, मैं नहीं कह सकतो , लेकिन तुम्हारे लिए मैं सब कुछ सहने, सब कुछ करने को तैयार हूँ।'

'दिल से कहती हो पद्मा?'

'सच्चे दिल से ।

'मगर न जाने क्यों तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं आ रहा है ?'

'मैं तो तुम्हारे ऊपर विश्वास कर रही हूँ।' ।

'यह समझ लो, मैं मेहमान बनकर तुम्हारे घर मे न रहूँगा। स्वामी बनकर रहूंँगा।'

'तुम घर के स्वामी ही नहीं, मेरे स्वामी बनकर रहो। मैं तुम्हारी स्वामिनी बनकर रहूंँगी।'

(२)

प्रो० प्रसाद और मिस पद्मा दोनो साथ रहते है और प्रसन्न हैं। दोनों हो ने जीवन का जो आदर्श मन में स्थिर कर लिया था, वह सत्य बन गया है। प्रसाद को केवल दो सौ रुपये वेतन मिलता है, मगर अब वह अपनी आमदनी का दुगुना भी खर्च कर दे, परवाह नहीं। पहले वह कभी-कभी शराब पीता था, अब रात-दिन शराब में मस्त रहता है। अब उसके लिए अलग अपनी कार है, अलग अपने नौकर है, तरह-तरह की बहुमूल्य चीजें मॅगवाता रहता है और पद्मा बड़े हर्ष से उसकी सारी फजूल-खर्चियाँ बर्दाश्त करती है। नहीं, बर्दाश्त करने का क्या प्रश्न है । वह खुद उसे अच्छे-अच्छे सूट पहनाकर, अच्छे-से-अच्छे ठाट में रखकर, प्रसन्न होती है। जैसी घंटों इस वक्त प्रो० प्रसाद के पास है, शहर के बड़े-से-बड़े रईस के पास न होगी और पद्मा जितनी हो उससे दवती है, प्रसाद उतना ही उसे दबाता है । कभी-कभी उसे नागवार भी लगता है , पर वह किसी अज्ञात कारण से अपने को उसके वश में पाती है। प्रसाद को ज़रा भी उदास या चिन्तित देखकर उसका मन चंचल हो जाता है। उस
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पर आवाजें कसे जाते हैं, फवतियाँ चुस्त की जाती हैं । जो उसके पुराने प्रेमी थे, वे उसे जलाने और कुढ़ाने का प्रयास भी करते हैं , पर वह प्रसाद के पास आते ही सब कुछ भूल जाती है। प्रसाद ने उस पर पूरा आधिपत्य पा लिया है, और उसे इसका ज्ञान है । पद्मा को उसने बारीक आँखो से पढ़ा है और उसका आसन अच्छी तरह पा गया है।

मगर जैसे राजनीति के क्षेत्र में अधिकार दुरुपयोगी की ओर जाता है, उसी तरह प्रेम के क्षेत्र मे भी वह दुरुपयोग की ओर ही जाता है, और जो कमजोर है, उसे तावान देना पड़ता है । आत्माभिमानिनी पद्मा अब प्रसाद की लौंडी थी। और प्रसाद उसकी दुर्बलता का फायदा उठाने से क्यो चूकता। उसने कोल की पतली नोक चुभा ली थी और बड़ी कुशलता से उत्तरोत्तर उसे अन्दर ठोकता जाता था। यहांँ तक कि उसने रात को देर मे घर आना शुरू किया। पद्मा को अपने साथ न ले जाता, उससे बहाना करता, मेरे सिर में दर्द है, और जब पमा घूमने चली जाती, तो अपनी कार निकाल लेता और उड़ जाता। दो साल गुजर गये थे, और पन्ना को गर्भ था। वह स्थूल भी हो चली थी। उसके रूप मे पहले की-सी नवीनता और मादकता न रह गई थी। वह घर की मुर्गी थी, साग बरोबर ।

एक दिन इसी तरह पद्मा लौटकर आई, तो प्रसाद गायब थे। वह झुंँझला उठी। इधर कई दिन से वह प्रसाद का रंग बदला हुआ देख रही थी। आज उसने कुछ स्पष्ट बात कहने का साहस बटोरा। दस बज गये, ग्यारह बज गये, बारह बज गये, पद्मा उसके इन्तजार मे बैठी थी । भोजन ठण्डा हो गया, नौकर-चाकर सो गये। वह बार-बार उठती, फाटक पर जाकर नजर दौड़ाती। बारह-एक बजे के करीब प्रसाद घर आये।

पद्मा ने साहस तो बहुत बटोरा था , पर प्रसाद के सामने जाते ही उसे अपनी कमज़ोरी मालूम हुई। फिर भी उसने ज़रा कड़े स्वर में पूछा-आज आप इतनी रात तक कहाँ थे ? कुछ खबर है कितनी रात गई ?

प्रसाद को वह इस वक्त असुन्दरता की मूर्ति-सी लगी। वह एक विद्यालय की छात्रा के साथ सिनेमा देखने गया था। बोला-तुमको आराम से सो जाना चाहिए था। तुम जिस दशा मे हो, उसमे तुम्हे जहाँ तक हो सके, आराम से रहना चाहिए। [ ९४ ]पद्मा का साहस कुछ प्रबल हुआ-तुमसे मैं जो पूछती हूँ, उसका जवाब दो। मुझे जहन्नुम मे भेजी।

'तो तुम भी मुझे जहन्नुम में जाने दो।'

'मैं इधर कई दिन से तुम्हारा मिज़ाज बदला हुआ देख रही हूँ।'

'तुम्हारी आँखों की ज्योति कुछ बढ़ गई होगी।'

'तुम मेरे साथ दगा कर रहे हो, यह मै साफ देख रही हूँ।'

'मैंने तुम्हारे हाय अपने को बेचा नहीं है , अगर तुम्हारा जी मुझसे भर गया है, तो मैं आज जाने को तैयार हूँ।'

'तुम जाने की धमकी क्या देते हो! यहाँ तुमने आकर कोई बड़ा त्याग नहीं किया है।

'मैंने त्याग नहीं किया है। तुम यह कहने का साहस कर रही हो। मैं देखता हूँ, तुम्हारा मिज़ाज बिगड़ रहा है। तुम समझती हो, मैंने इसे अपंग कर दिया , मगर में इसी वक्त तुम्हे ठोकर मारने को तैयार हूँ। इसी वक्त, इसी वक्त !'

पद्मा का साहस जैसे बुझ गया था। प्रसाद अपना ट् क सँभाल रहा था। पद्मा ने दोन भाव से कहा---मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं कही, जो तुम इतना विगङ उठे। मैं तो केवल तुमसे पूछ रही थी, कहाँ थे । क्या तुम मुझे इतना अधिकार भी नहीं देना चाहते? मैं कभी तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करती और तुम मुझे बात-बात पर डाँटते रहते हो। तुम्हे मुझ पर ज़रा भी दया नहीं आती ! मुझे तुमसे कुछ भी सहानुभूति मिलनी चाहिए। मैं तुम्हारे लिए क्या कुछ करने को तैयार नहीं हूँ। और आज जो मेरी यह दशा हो गई है, तो तुम मुझसे आँखें फेर लेते हो ..।

उसका कण्ठ रुंँध गया और यह मेज पर सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगी।

प्रसाद ने पूरी विजय पाई।

( ३ )

पद्मा के लिए मातृत्व अब बड़ा ही अप्रिय प्रसंग था। उस पर एक चिन्ता मडराती रहती। कभी-कभी वह भय से काँप उठती और पछताती । प्रसाद की निरंकुशता दिन- दिन बढती जाती थी। क्या करे, क्या न करे । गर्भ पूरा हो गया था, वह कोर्ट न जाती थी। दिनभर अकेली बैठी रहती । प्रसाद स या समय आते, चाय-वाय पीकर फिर उड़ जाते, तो ग्यारह बारह बजे के पहले न लौटते। वह कहीं जाते हैं, यह भी उससे
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छिपा न था। प्रसाद को जैसे उसको सूरत से नफरत थी। पूर्ण गर्भ, पोला मुख, चिन्तित, सशक, उदास ; फिर भी वह प्रसाद को शृङ्गार और आभूषणों से बाँधने को चेष्टा से बाज न आती थी; मगर वह जितना हो प्रयास करती, उतना ही प्रसाद का मन उसकी ओर से फिरता था। इस अवस्था मे शृङ्गार उसे और भी भद्दा लगता।

प्रसव-वेदना हो रही थी। प्रसाद का पता नहीं। नर्स मौजूद थी, लेडी डाक्टर मौजूद थी, मगर प्रसाद का न रहना पद्मा की प्रसव-वेदना को और भी दारुण बना रहा था।

बालक को गोद में देखकर उसका कलेजा फूल उठा , मगर फिर प्रसाद को सामने न पाकर उसने बालक की ओर से मुंँह फेर लिया। मोठे फल मे जैसे कोड़े पड़ गये हों।

पांच दिन और-गृह में काटने के बाद जैसे पद्मा जेलखाने से निकली । नगी तलवार बनी हुई । माता बनकर वह अपने में एक अदभुत शक्ति का अनुभव कर रही थी।

उसने चपरासी को चेक देकर बैक भेजा। प्रसव-सम्बन्धी कई बिल अदा करने थे। चपरासी खाली हाथ लौट आया।

पद्मा ने पूछा- रुपये

'बैंक के बाबू ने कहा, रुपये सब प्रसाद बाबू निकाल ले गये।'

पद्मा को गोली लग गई। बीस हजार रुपये प्राणों की तरह सचित कर रखे थे, इसी शिशु के लिए। हाय ! सौर से निकलने पर मालूम हुआ, प्रसाद विद्यालय की एक चालिका को लेकर इंग्लैण्ड की सैर करने चले गये । झल्लाई हुई घर आई। प्रसाद की तस्वीर उठाकर जमीन पर पटक दी और उसे पैरों से कुचला, उसका जितना सामान था, उसे जमा करके दियासलाई लगा दी और उसके नाम पर थूक दिया !

एक महीना बीत गया था। पद्मा अपने बँगले के फाटक पर शिशु को गोद में लिये खड़ी थी। उसका क्रोध अब शोकमय निराशा बन चुका था। बालक पर कभी दया आती, कभी प्यार आता, कभी घृणा आती। उसने देखा, सडक पर एक यूरो- पियन लेडी अपने पति के साथ अपने बालक को बच्चों की गाड़ी में बिठाये लिये चली जा रही थी। उसने हसरत भरी आँखों से खुशनसीब जोड़े को देखा और उसकी आँखें सजल हो गई।

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