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मानसरोवर २/८ विद्रोही

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मानसरोवर २
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ९६ से – १०८ तक

 




विद्रोही

आज दस साल से जब्त कर रहा हूँ। अपने इस नन्हें-से हृदय में अग्नि का दहकता हुआ कुण्ड छिपाये बैठा हूँ। संसार मे कहीं शांति होगी, कहीं सैर-तमाशे होंगे, कहीं मनोरजन की वस्तुएं होंगी , मेरे लिए तो अब यही अग्निराशि है, और कुछ नहीं। जीवन को सारी अभिलाषाएँ इसी में जलकर राख हो गई । जिससे अपनी मनोव्यथा कहूँ ? फायदा ही क्या । जिसके भाग्य मे रुदन--अनन्त रुदन हो, उसका मर जाना ही अच्छा।

मैंने पहली बार तारा को उस वक्त देखा, जब मेरी उम्र दस साल की थी। मेरे पिता आगरे के एक अच्छे डाक्टर थे। लखनऊ में मेरे एक चचा रहते थे। उन्होंने वकालत में काफी धन कमाया था। में उन दिनों चचा ही के साथ रहता था। चचा के कोई सन्तान न थी, इसलिए मे ही उनका वारिस था। चचा और चचो दोनों मुझे अपना पुन समझते थे। मेरी माता बचपन ही में सिधार चुकी थीं। मातृ-स्नेह का जो कुछ प्रसाद मुझे मिला, वह चचीजी ही की भिक्षा थी। वही भिक्षा मेरे उस मातृ-प्रेम से वंचित बालपन को सारी विभूति थी।

चचा साहब के पड़ोस में हमारी विरादरी के एक बाबू साहब और रहते थे। वह रेलवे विभाग में किसी अच्छे ओहदे पर थे। दो-ढाई सौ रुपये पाते थे। नाम था विमलचन्द्र । तारा उन्हींकी पुत्री थी। उस वक्त उनकी उम्र पांच साल की होगी। बचपन का वह दिन आज भी आंखों के मामने है, जब तारा एक फ्राक पहने, बालों मे एक गुलाब का फूल गूँथे हुए मेरे सामने आकर खड़ी हो गई। कह नहीं सकता, क्यों में उसे देखकर कुछ झेंप-सा गया। मुझे वह देव-कन्या-सी मालूम हुई, जो उषाकाल के सौरभ और विकास से रंजित आकाश से उतर आई हो।

उस दिन से तारा अक्सर मेरे घर आती। उसके घर में खेलने की जगह न थी। चचा साहब के घर के सामने लबा-चौड़ा मैदान था। वहीं वह खेला करती।
धीरे-धीरे मैं भी उससे मायूस हो गया। मैं जब स्कूल से लौटता, तो तारा दौड़कर मेरे हाथों से किताबों का बस्ता ले लेती। जब मै स्कूल जाने के लिए गाड़ी पर बैठता, तो वह भी आकर मेरे साथ बैठ जाती। एक दिन उसके सामने चची ने चचाजी से कहा- तारा को मैं अपनी बहू बनाऊँगो । क्यो कृष्णा, तू तारा से ब्याह करेगा ? मैं मारे शर्म के बाहर भाग गया ; लेकिन तारा वहीं खड़ी रही, मानो चची ने उसे मिठाई लेने को बुलाया हो । उस दिन से चचा और चची में अक्सर यह चर्चा होती- कभी सलाह के ढङ्ग से, कभी मजाक के ढङ्ग से । उस अवसर पर मै तो शरमाकर बाहर भाग जाता था ; पर तारा खुश होती थी । दोनो परिवारो मे इतना घरांव था कि इस सम्बन्ध का हो जाना कोई असाधारण बात न थी । तारा के माता-पिता को तो इसका पूरा विश्वास था कि तारा से मेरा विवाह होगा । मै जब उनके घर जाता, तो मेरी बड़ी आवभगत होती । तारा की माँ उसे मेरे साथ छोडकर किसी वहाने से टल जाती थी। किसीको अब इसमे शक न था कि तारा ही मेरी हृदयेश्वरी होगी।

एक दिन उस सरला ने मिट्टी का एक घरौंदा बनाया । मेरे मकान के सामने नीम का पेड़ था । उसी की छाँह मे वह घरौदा तैयार हुआ। उसमे कई ज़रा-जरा-से कमरे थे, कई मिट्टी के बरतन, एक नन्ही-सी चारपाई थी। मैंने जाकर देखा, तो तारा घरौदा बनाने में तन्मय हो रही थी। मुझे देखते ही दौड़कर मेरे पास आई और बोली-कृष्णा, चलो. हमारा घर देखो, मेंने अभी बनाया है। घरौदा देखा तो हँसकर बोला-इसमे कौन रहेगा तारा ?

तारा ने ऐसा मुह बनाया, मानो यह व्यर्थ का प्रश्न था । बोली----क्यों, हम और तुम कहाँ रहेगे ? जब हमारा-तुम्हारा विवाह हो जायगा, तो हम लोग इसी घर में आकर रहेगे। यह देखो, तुम्हारी बैठक है, तुम यहीं बैठकर पढोगे। दूसरा कमरा मेरा है, इसमें बैठकर मैं गुड़िया खेलूंँगी।

मैंने हंसी करके कहा-क्यों, क्या मैं सारी उम्र पढता ही रहूंँगा और तुम हमेशा गुड़िया खेलती रहोगी ? |

तारा ने मेरी तरफ इस ढङ्ग से देखा, जैसे मेरी बात नहीं समझी। पगली जानती थी कि जिन्दगी खेलने और हंसने ही के लिए है । यह न जानती थी कि एक दिन हवा का एक झोंका आयेगा और इस घरौदे को उड़ा ले जायगा । इसी के साथ

हम दोनों भी कहीं-से-कहीं जा उड़ेंगे।

( २ )

इसके बाद मैं पिताजी के पास चला आया और कई साल पढता रहा ! लखनऊ का जलवायु मेरे अनुकूल न था, या पिताजी ने मुझे अपने पास रखने के लिए यह बहाना किया था, मै निश्चय नहीं कह सकता । इण्टरमीडिएट तक मैंने आगरे ही मे पढा , लेकिन चचा साहब के दर्शनों के लिए बराबर जाता रहता था । हरएक तातील मे लखनऊ अवश्य जाता और गरमियों की छुट्टी तो पूरी लखनऊ ही मे कटती थी। एक छुट्टी गुजरते ही दूसरी छुट्टी आने के दिन गिनने लगते थे। अगर मुझ एक दिन की भी देर हो जाती, तो तारा का पन आ पहुँचता । बचपन के उस सरल प्रेम में अब जवानी का उत्साह और उन्माद था । वे प्यारे दिन क्या कभी भूल सकते हैं । वहीं मधुर स्मृतियाँ अब इस जीवन का सर्वस्व हैं । हम दोनों रात को सबकी नजरें बचा- कर मिलते और हवाई किले बनाते । इससे कोई यह न समझे कि हमारे मन मे पाप था, कदापि नहीं । हमारे वोच में एक भी ऐसा शब्द, एक भी ऐसा सकेत न आने पाता, जो हम दूसरों के सामने न कर सकते, जो उचित सीमा के बाहर होते । यह केवल वह संकोच था, जो इस अवस्था मे हुआ करता है। शादी हो जाने के बाद भी तो कुछ दिनो तक स्त्री और पुरुष बड़ो के सामने बातें करते लजाते है। हाँ, जो अँगरेजी सभ्यता के उपासक हैं, उनकी बात मैं नहीं चलाता , वे तो बड़ों के सामने आलिगन और चुम्बन तक कर सकते हैं। हमारी मुलाकातें दोस्तों की मुलाकातें होती थीं- कभी ताश की बाजी होती, कभी साहित्य को चर्चा, कभी स्वदेश-सेवा के मनसूबे बँधते, कसी संसार-यात्रा के । क्या कहूँ, तारा का हृदय कितना पवित्र या ! अब मुझे ज्ञात हुआ कि स्त्री कैसे पुरुष पर नियन्त्रण कर सकती है, कुत्सित को भी कैसे पवित्र बना सकती है। एक दूसरे से बात करने में, एक दूसरे के सामने बैठे रहने में हमे असीम आनन्द होता था। फिर, प्रेम की बातो की ज़रूरत वहाँ होती है, जहाँ अपने अखण्ड अनुराग, अपनी अतुल निष्ठा, अपने पूर्ण आत्म-समर्पण का विश्वास दिलाना होता है। हमारा संबंध तो स्थिर हो चुका था। केवल रस्मे वाक़ी थीं। वह मुझे अपना पति समझती थी, मैं उसे अपनी पत्नी समझता था । ठाकुरजी के भोग लगने के पहले थाल के पदार्थो मे कौन हाथ लगा सकता है। हम दोनो मे कभी-कभी लड़ाई भी होती थी, और कई-कई दिनो तक बातचीत की नौवत न आती, लेकिन ज्यादती कोई करे, मनाना उसी को पड़ता था। मैं ज़रा सी बात पर तिनक जाता था। वह

हँसमुख थी, बहुत ही सहनशील , लेकिन उसके साथ ही मानिनी भी परले सिरे की। मुझे खिलाकर भी खुद न खाती, मुझे हँसाकर भी खुद न हँसती।

इण्टरमीडिएट पारा होते ही मुझे फौज मे एक जगह मिल गई। उस विभाग के अफसरों में पिताजी का बड़ा मान था। मैं सार्जन्ट हो गया और सौभाग्य से लखनऊ ही मे मेरी नियुक्ति हुई । मुँह-माँगी मुराद पूरी हुई।

मगर विधि-वाम कुछ और ही षड्यन्त्र रच रहा था। मैं तो इस खयाल मे मगन था कि कुछ दिनों में तारा मेरी होगी। उधर एक दूसरा ही गुल खिल गया। शहर के एक नामी रईस ने चचाजी से मेरे विवाह की बात छेड़ दो और आठ हजार रुपये दहेज का वचन दिया। चचाजी के मुंँह से लार टपक पड़ी । सोचा, यह आशातीत रकम मिलती है, इसे क्यों छोड़ूँ । विमल बाबू की कन्या का विवाह कहीं-न-कहीं हो ही जायगा। उन्हे सोचकर जवाब देने का वादा करके विदा किया और विमल बाबू को बुलाकर बोले - आज चौधरी साहब कृष्णा की शादी की बातचीत करने आये थे। आप तो उन्हें जानते होंगे। अच्छे रईस हैं । आठ हजार रुपये दे रहे हैं। मैंने कह दिया है, सोचकर जवाब दूंँगा । आपकी क्या राय है ? यह शादी मँजूर कर लूँ?

विमल बाबू ने चकित होकर कहा- यह आप क्या फरमाते हैं ? कृष्णा की शादी तो तारा से ठीक हो चुकी है न ?

चचा साहब ने अनजान बनकर कहा-यह तो मुझे आज मालूम हो रहा है। किसने ठीक की है यह शादी ? आपसे तो मुझसे इस विषय मे कोई बातचीत नहीं हुई।

विमल बाबू जरा गर्म होकर बोले- जो बात आज दस-बारह साल से सुनता आता हूँ, क्या उसकी तसदीक भी करनी चाहिए थी ? मैं तो इसे तय समझे बैठा हूँ। मैं ही क्या, सारा मुहल्ला तय समझ रहा है।

चचा साहब ने वदनामी के भय से ज़रा दबकर कहा-भाई साहब, हक तो यह है कि मैं जब कभी इस सम्बन्ध की चर्चा करता था, दिल्लगी के तौर पर था, लेकिन खैर, मैं आप को निराश नहीं करना चाहता । आप मेरे पुराने मित्र हैं। मैं आपके -साथ सब तरह की रियायत करने को तैयार हूँ। मुझे आठ हजार मिल रहे है । आप मुझे सात हजार ही दीजिए- छ हजार ही दीजिए।

विमल वाबू ने उदासीन भाव से कहा--आप मुझसे मज़ाक कर रहे हैं, या सच- मुच दहेज मांँग रहे हैं ? मुझे यकीन नहीं आता। चचा साहब ने माथा सिकोडकर कहा-इसमे मजाक की तो कोई बात नहीं । मैं आपके सामने चौधरी से बातें कर सकता हूँ। .

विमल-बाबूजी, आपने तो यह नया प्रश्न छेड़ दिया। मुझे तो स्वप्न में भी गुमान न था कि हमारे और आपके बीच मे यह प्रश्न खड़ा होगा। ईश्वर ने आपको बहुत कुछ कर दिया है। दस-पाँच हज़ार में आपका कुछ न बनेगा। हां, यह रकम मेरी सामर्थ्य से बाहर है। मैं तो आपसे दया ही की भिक्षा मांग सकता हूँ। आज दस-बारह साल से हम कृष्णा को अपना दामाद समझते आ रहे है। आपकी बातों से भी कई बार इसको तसदीक हो चुकी है। कृष्णा और तारा मे जो प्रेम है, वह आपसे छिपा नहीं। ईश्वर के लिए थोड़े से रुपयो के वास्ते कई जनों का खून न कीजिए।

चाचा साहब ने दृढता से कहा- विमल बाबू, मुझे खेद है कि मैं इस विषय मे और नहीं दब सकता।

विमल बाबू ज़रा तेज होकर बोले-आप मेरा गला घोंट रहे है !

चचा-आपको मेरा एहसान मानना चाहिए कि कितनी रियायत कर रहा हूँ।

विमल- क्यो न हो, आप मेरा गला घोटें और मैं आपका एहसान मान ! मैं इतना उदार नहीं हूँ, अगर मुझे मालूम होता कि आप इतने लोभी हैं, तो आपसे दूर हो रहता । मैं आपको सज्जन समझता था। अब मालम हुआ कि आप भी कौड़ियों के गुलाम है । जिसकी निगाह मे मुरोक्त नही, जिसकी बातों का कोई विश्वास नहीं, उसे मैं शरीफ नहीं कह सकता। आपको अख्तियार है, कृष्णा वावू को शादी जहाँ चाहे करें , लेकिन आपको हाय न मलना पड़े, तो कहिएगा। तारा का विवाह तो कहीं-न कहीं हो ही जायगा, और ईश्वर ने चाहा, तो किसी अच्छे ही घर होगा। संसार से सज्जनो का अभाव नहीं है , मगर आपके हाथ अपयश के सिवा और कुछ न लगेगा।

चचा साब ने त्यौरियां चढाकर कहा-अगर आप मेरे घर मे न होते तो इस अपमान का कुछ जवाब देता।

विमल बाबू ने छड़ी उठा ली और कमरे से बाहर जाते हुए कहा-आप मुझे क्या जवाब देंगे ? आप जवाब देने के योग्य ही नहीं है।

उसी दिन शाम को जब मैं वैरक से आया और जलपान करके विमल बाबू के

घर जाने लगा, तो चची ने कहा-कहाँ जाते हो ? विमल बाबू से और तुम्हारे चचाजी से आज एक झड़प हो गई।

मैंने ठिठककर ताज्जुब के साथ कहा-झड़प हो गई ? किस बात पर !

चची ने सारा-का-सारा वृत्तान्त कह सुनाया और विमल को जितने काले रगों में रॅग सकी, रँगा--तुमसे क्या कहूँ बेटा, ऐसा मुँहफट तो आदमी ही नहीं देखा। हजारों ही गालियां दी ! लड़ने पर आमादा हो गया।

मैंने एक मिनट तक सन्नाटे में खड़े रहकर कहा-अच्छी बात है; वहाँ न जाऊँगा। बैरक जा रहा हूँ। चची बहुत रोई-चिल्लाई', पर मैं एक क्षणभर भी न ठहरा। ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई मेरे हृदय मे भाले भोंक रहा है। घर से बैरक तक पैदल जाने मे शायद मुझे दस मिनट से ज्यादा न लगे होगे। बार-बार जी झुंँझलाता था, चचा साहब पर नहीं, विमल बाबू पर भी नहीं, केवल अपने ऊपर । क्यो मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि जाकर चचा साहब से कह दूँ ----कोई मुझे लाख रुपये भी दे, तो में शादी न करूंगा, मैं क्यों इतना डरपोक, इतना तेजहीन, इतना दब्बू हो गया।

इसी क्रोध में मैंने पिताजी को एक पत्र लिखा और वह सारा वृत्तान्त सुनाने के बाद अन्त मे लिखा- मैंने निश्चय कर लिया है कि और कहीं शादी न करूंगा, चाहे मुझे आपकी अवज्ञा ही क्यो न करनी पड़े। उस आवेश में न जाने क्या-क्या लिख गया, अब याद भी नहीं। इतना ही याद है कि दस-बारह पन्ने दस मिनट मे लिख डाले थे। सम्भव होता तो मैं यही सारी बाते तार से भेजता ।

तीन दिन मैंने बड़ी व्यग्रता के साथ काटे। उसका केवल अनुमान किया जा सकता है। सोचता, तारा हमे अपने मन मे कितना नोच समझ रही होगी। कई बार जी मे आया, चलकर उसके पैरो पर गिर पड़ूं और कहूँ--देवी, मेरा अपराध क्षमा करो। चचा साहब के कठोर व्यवहार की परवा न करो । में तुम्हारा था, और तुम्हारा हूँ। चचा साहब मुझसे बिगड़ जाय, पिताजी घर से निकाल दें, मुझे किसी की परवा नहीं है , लेकिन तुम्हे खोकर तो मेरा जीवन ही खो जायगा।

तीसरे दिन पत्र का जवाब आया। रही-सही आशा भी टूट गई। वही जवान था, जिसकी मुझे शंका थी। लिखा था-भाई साहब मेरे पूज्य हैं। उन्होने जो निश्चय किया है, उसके विरुद्ध मैं एक शब्द भी मुंह से नहीं निकाल सकता, और तुम्हारे लिए भी यही उचित है कि उन्हें नाराज़ न करो । मैंने उस पत्र को फाड़कर पैरो से कुचल दिया, और उसी वक्त विमल बाबू के घर की तरफ चला । आह ! उस वक्त अगर कोई मेरा रास्ता रोक लेता, मुझे धमकाता कि उधर मत जाओ, तो मैं विमल बाबू के पास जाकर ही दम लेता और आज मेरा जीवन कुछ और ही होता , पर वहाँ मना करनेवाला कौन बैठा था। कुछ दूर चलकर हिम्मत हार बैठा । लौट पड़ा। कह नहीं सकता, क्या सोचकर लौटा। चचा साहब को अप्रसन्नता का मुझे रत्ती भर भी भय न था। उनकी अब मेरे दिल मे ज़रा भी इज्जत न थी। मैं उनकी सारी सम्पत्ति को ठुकरा देने को तैयार था। पिताजी के नाराज हो जाने का भी डर न था। संकोच केवल यह था-कौन मुंह लेकर जाऊँ। आखिर, मैं उन्हीं चचा का भतीजा तो हूँ। विमल चावू मुझसे मुखातिब न हुए या जाते ही जाते दुत्कार किया, तो मेरे लिए डूब मरने के सिवा और क्या रह जायगा। सबसे बड़ी शका यह थी कि कहीं तारा ही मेरा तिरस्कार कर बैठे, तो मेरी क्या गति होगी। हाय ! अहृदय तारा : निष्ठुर तारा ! अबोध तारा ! अगर तूने उस वक्त दो शब्द लिखकर मुझे तसल्ली दे दी होती, तो आज मेरा जीवन कितना सुखमय होता! तेरे मौन ने मुझे मटियामेट कर दिया - सदा के लिए। आह ! सदा के लिए ।

( ३ )

तीन दिन फिर मैंने अ गारों पर लोट-लोटकर काटे । ठान लिया था कि अब किसी से न मिलूँगा । सारा संसार मुझे अपना शत्रु-सा दीखता था। तारा पर भो क्रोध आता था। चचा साहब की तो सूरत से मुझे घृणा हो गई थी , मगर तीसरे दिन शाम को चचाजी का रुका पहुँचा। मुझसे आकर मिल जाओ। जी में तो आया, लिख दूँ, मेरा आपसे कोई सम्बन्ध नहीं, आप समझ लीजिए, मैं मर गया , मगर फिर उनके स्नेह और उपकारों की याद आ गई। खरी-खरी सुनाने का भी अच्छा अवसर मिल रहा थि । हृदय मे युद्ध का नशा और जोश भरे हुए मैं चचाजी की सेवा मे पहुंच गया।

चचाजी ने मुझे सिर से पैर तक देखकर कहा-क्या आजकल तुम्हारी तबीअत अच्छी नहीं है ? आज रायसाहव सीताराम तशरीफ लाये थे। तुमसे कुछ बातें करना चाहते हैं। कल सबेरे मौका मिले, तो चले आना या तुम्हे लौटने की जल्दी न हो तो मैं इसी वक्त बुला भेजूं ।

मैं समझ गया कि यह रायसाहब कौन है , लेकिन अनजान बनकर बोला-यह रायसाहब कौन हैं ? मेरा तो उनसे परिचय नहीं है।

चाचाजी ने लापरवाही से कहा-~-अजी, यह वही महाशय हैं, जो तुम्हारे व्याह के लिए घेरे हुए हैं । शहर के रईस और कुलीन आदमी है । लड़की भी बहुत अच्छी है। कम-से-कम तारा से कई गुनी अच्छी । मैंने हाँ कर लिया है। तुम्हे भी जो बात पूछनी हों, उनसे पूछ लो !

मैंने आवेश के उमड़ते हुए तूफान को रोककर कहा-आपने नाहक हां की। मैं अपना विवाह नहीं करना चाहता ।

चचाजी ने मेरी तरफ आँखें फाड़कर कहा-~-क्यों ?

मैंने उसी निर्भीकता से जवाब दिया-इसलिए कि मैं इस विषय में स्वाधीन रहना चाहता हूँ।

चचा साहब ने जरा नर्म होकर कहा- मैं अपनी बात दे चुका हूँ, क्या तुम्हें इसका कुछ ख्याल नहीं है ?

मैंने उद्दण्डता से जवाब दिया--जो बात पैसों पर विकती है, उसके लिए में अपनी जिन्दगी नहीं खराब कर सकता ।

चचा साहब ने गम्भीर भाव से कहा- यह तुम्हारा आखिरी फैसला है ?

'जी हाँ, आखिरी ।

'पछताना पड़ेगा।

'आप इसकी चिन्ता न करें। आपको कष्ट देने न आऊँगा।'

'अच्छी बात है।'

यह कहकर वह उठे और अन्दर चले गये। मैं कमरे से निकला, और बैरक की तरफ चला। सारी पृथ्वी चक्कर खा रही थी, आसमान नाच रहा था और मेरो देह हवा में उड़ी जाती थी । मालूम होता था, पैरों के नीचे जमीन है ही नहीं।

बैरक में पहुंचकर मैं पलंग पर लेट गया और फूट-फूटकर रोने लगा। माँ बाप, चचा-चाची, धन-दौलत, सब कुछ होते हुए भी में अनाथ था । उफ ! कितना निर्दय आघात था।

( ४ )

समेरे हमारे रेजिमेंट को देहरादून जाने का हुक्म हुआ। मुझे आँखें-सी मिल गई। अब लखनऊ काटे खाता था । उसके गली-कूचों तक से घृणा हो गई थी। एक

विचार जी में आया, चलकर तारा से मिल लूँ, मगर फिर वही शङ्का हुई कहीं वह मुखातीव न हुई तो ? विमल बाबू इस दशा मे भी मुझसे उतना ही स्नेह दिखायेंगे, जितना अब तक दिखाते आये हैं, इसका मैं निश्चय न कर सका। पहले मैं एक धनी परिवार का दीपक था, अब एक अनाथ युवक, जिसे मंजूरी के सिवा और कोई अव- लम्ब नहीं था।

देहरादून मे अगर कुछ दिन मैं शांति से रहता, तो सम्भव था, मेरा आहत-हृदय संभव जाता और मैं विमल बाबू को मना लेता , लेकिन वहाँ पहुँचे एक सप्ताह भी न हुआ था कि मुझे तारा का पत्र मिल गया । पते की लिपि देखकर मेरे हाथ कांपने लगे। समस्त देह में कपन सा होने लगा। शायद शेर को सामने देखकर भी मैं इतना भयभीत न होता। हिम्मत ही न पड़ती थी कि उसे खोलें । यही लिखावट थी, वही मोतियो को लड़ी, जिसे देखकर मेरे लोचन तृप्त-से हो जाते थे, जिसे चूमता था और हृदय से लगाता था, वही काले अक्षर आज नागिनो से भी ज्यादा डरावने मालूम होते थे। अनुमान कर रहा था कि उसने क्या लिखा होगा , पर अनुमान की दूरतम दौड़ भी पत्र के विषय तक न पहुँच सकी। आखिर एक बार कलेजा मजबूत करके मैंने पत्र खोल डाला। देखते ही आँखों में अंधेरा छा गया। मालूम हुआ, किसी ने सीसा पिघलाकर पिला दिया । तारा का विवाह तय हो गया था। शादी होने में कुल चौबीस घंटे बाकी थे। उसने मुझसे अपनी भूलो के लिए क्षमा मांगी और विनती को थी कि मुझे भुला मत देना। पत्र का अंतिम वाक्य पढकर मेरी आँखो से आंसुओं को झड़ी लग गई। लिखा था- यह अंतिम प्यार लो। अब आज से मेरे ओर तुम्हारे बीच मे केवल मैत्री का नाता है । अगर कुछ और समझूँ तो वह अपने पति के साथ अन्याय होगा, जिसे शायद तुम सबसे ज्यादा नापसंद करोगे। बस, इससे अधिक और न लिखूंगी। बहुत अच्छा हुआ कि तुम यहाँ से चले गये। तुम यहाँ रहते, तो तुम्हे भो दुःख होता और मुझे भी , मगर प्यारे ! अपनी इस अभा- गिनी तारा को भूल न जाना । तुमसे यही अतिम निवेदन है।

मैं पत्र को हाथ में लिये-लिये लेट गया। मालूम होता था, छाती फट जायगी । भगवन् ! अब क्या करूँ । जब तक मैं लखनऊ पहुँचूँगा, बारात द्वार पर आ चुकी होगी। यह निश्चय था , लेकिन तारा के अन्तिम दर्शन करने की प्रबल इच्छा को मैं किसी तरह न रोक सकता था। यही अब जीवन की अंतिम लालसा थी।
मैंने जाकर कमांडिंग आफिसर से कहा- मुझे एक बड़े ज़रूरी काम से लखनऊ जाना है। तीन दिन की छुट्टी चाहता हूँ।

साहब ने कहा-~~-अभी छुट्टी नहीं मिल सकती ।

'मेरा जाना जरूरी है। -

'तुम नहीं जा सकते।

'मैं किसी तरह नहीं रुक सकता।'

'तुम किसी तरह नहीं जा सकते।'

मैंने और अधिक आग्रह न किया। वहां से चला आया। रात की गाड़ी से लखनऊ जाने का निश्चय कर लिया। कोर्ट मार्शल का अब मुझे ज़रा भी डर न था ।

( ५ )

जब मैं लखनऊ पहुंचा, तो शाम हो गई थी। कुछ देर तक मैं प्लेटफार्म से दूर खड़ा खूब अंधेरा हो जाने का इन्तजार करता रहा । तब अपनी किस्मत के नाटक का सबसे भीषण कांड देखने चला । चरात द्वार पर आ गई थी । गैस की रोशनी हो रही थी । बराती लोग जमा थे । हमारे मकान की छत तारा की छत से मिली हुई थी। रास्ता मरदाना कमरे की बगल से था। चचा साहब शायद कहीं सैर करने गये हुए थे। नौकर-चाकर सब बरात की बहार देख रहे थे। मैं चुपके से जीने पर चढा और छत पर जा पहुंचा। वहाँ इस वक्त बिलकुल सन्नाटा था। उसे देखकर मेरा दिल भर आया। हाय ! यही वह स्थान है, जहाँ हमने प्रेम के आनन्द उठाये थे। यहीं में तारा के साथ बैठकर ज़िदगी के मनसूबे बाँधता था। यही स्थान मेरी आशाओं का स्वर्ग और मेरे जीवन का तीर्थ था। इस जमीन का एक-एक अणु मेरे लिए मधुर स्मृतियों से पवित्र था , पर हाय ! मेरे हृदय की भांति आज वह भी ऊजह, सुनसान अँधेरा था। मैं उस जमीन से लिपटकर खूब रोया, यहां तक कि हिचकियाँ बंध गई । काश उस वक्त तारा वहाँ आ जाती, तो में उसके चरणों पर सिर रखकर हमेशा के लिए सो जाता। मुझे ऐसा भासित होता था कि तारा की पवित्र आत्मा मेरी दशा पर रो रही है। आज भी तारा यहाँ जहर आई होगी। शायद इसी जमीन पर लिपटकर वह भी रोई होगी। उस भूमि से उसके सुगन्धित केशों की महक आ रही थी। मैंने जेब से रूमाल निकाला और वहाँ की धूल जमा करने लगा। एक क्षण में मैंने सारी छत साफ कर डाली और अपनी अभिलाषाओं की इस राख को

हाथ में लिये घण्टों रोया । यहो मेरे प्रेम का पुरस्कार है, यही मेरी उपासना का वरदान है, यही मेरी जीवन को विभूति है। हाय री दुराशा !

नीचे विवाह के संस्कार हो रहे थे। ठीक आधी रात के समय वधू मण्डप के नीचे आई। अब भाँवरें होंगो। मैं छत के किनारे चला आया और वह मर्मान्तक दृश्य देखने लगा । बस, यही मालूम हो रहा था कि कोई हृदय के टुकड़े किये डालता है । आश्चर्य है, मेरो छाती क्यों न फट गई । मेरी आखें क्यों न निकल पड़ी। वह मण्डप मेरे लिए चिता थी, जिसमे वह सब कुछ, जिस पर मेरे जीवन का आधार था, जला जा रहा था।

भाँवरें समाप्त हो गई, तो मैं कोठे से उत्तरा । अब क्या बाकी था । चिता की राख भी जलमग्न हो चुकी थी। दिल को थामे, वेदना से तड़पता हुआ जीने के द्वार तक आया , मगर द्वार बाहर से बन्द था। अब क्या हो ! उलटे पाँव लौटा। अब तारा के आंगन से होकर जाने के सिवा दूसरा रास्ता न था। मैंने सोचा, इस जमघट मे मुझे कौन पहचानता है, निकल जाऊँगा , लेकिन ज्यों ही आँगन मे पहुँचा, तारा की माताजी की निगाह पड़ गई । चौंककर बोलीं-कौन, कृष्णा बाबू ? तुम कब आये ? आओ, मेरे कमरे में आओ। तुम्हारे चचा साहब के भय से हमने तुम्हें न्यौता नहीं भेजा। तारा प्रात काल विदा हो जायगी। आओ, उससे मिल लो। दिन-भर से तुम्हारी रट लगा रही है।

यह कहते हुए उन्होंने मेरा बाजू पकड़ लिया और मुझे खींचते हुए अपने कमरे मे ले गई । फिर पूछा--अपने घर से होते हुए आये हो न ?

मैंने कहा-मेरा घर यहाँ कहाँ है ?

'क्यो, तुम्हारे चचा साहब नहीं हैं ?'

'हाँ, चचा साहब का घर है, मेरा घर अब कहीं नहीं है। बनने को कभी आशा थी , पर आप लोगो ने वह भी तोड़ दी।'

'हमारा इसमें क्या दोष था भैया ? लड़की का ब्याह तो कहीं-न-कहीं करना था। तुम्हारे चचाजी ने तो हमें मॅझधार मे छोड़ दिया था। भगवान् हो ने उबारा । क्या अभी सीधे स्टेशन से चले आ रहे हो ? तब तो अभी कुछ खाया भी न होगा।'

'हाँ, थोड़ा-सा ज़हर लाकर दे दीजिए, यही मेरे लिए सबसे अच्छी दबा है।'
वृद्धा विस्मित होकर मेरा मुँह ताकने लगी। मुझे तारा से कितना प्रेम था, वह बेचारी क्या जानती थी।

मैंने उसी विरक्ति के साथ फिर कहा-जब आप लोगों ने मुझे मार डालने ही का निश्चय कर लिया, तो अब देर क्यों कीजिए। आप मेरे साथ यह दगा करेंगी, यह मैं न समझता था । खैर, जो हुआ, अच्छा ही हुआ। चचा और बाप को आँखो से गिरकर मैं शायद आपको आँखों में भी न जॅचता ।

बुढिया ने मेरी तरफ शिकायत को नजरों से देखकर कहा-तुम हम लोगो को इतना स्वार्थी समझते हो बेटा!

मैंने जले हुए हृदय से कहा-अब तक तो न समझता था, लेकिन परिस्थिति ने ऐसा समझने को मजबूर किया। मेरे खून का प्यासा दुश्मन भी मेरे उपर इससे घातक वार न कर सकता था। मेरा खून आप ही की गरदन पर होगा ।

'तुम्हारे चचाजी ने ही तो इन्कार कर दिया।'

'आप लोगों ने मुझसे भी कुछ पूछा, मुझसे भी कुछ कहा, मुझे भी कुछ कहने का अवसर दिया ? आपने तो ऐसी निगाहे फेरी, जैसे आप दिल से यही चाहती थी; मगर अब आपसे शिकायत क्यों करूँ । तारा खुश रहे, मेरे लिए यही बहुत है।'

'तो बेटा, तुमने भी तो कुछ नहीं लिखा , अगर तुम एक पुरजा भी लिख देते, तो हमें तस्कीन हो जाती। हमें क्या मालम था कि तुम तारा को इतना प्यार करते हो। हमसे ज़रूर भूल हुई; मगर उससे बड़ी भूल तुमसे हुई। अब मुझे मालूम हुआ कि तारा क्यों बराबर डाकिये को पूछती रहती थी। अभी कल वह दिन-भर डाकिये को राह देखती रही। जब तुम्हारा कोई खत नहीं आया, तब वह निराश हो गई। बुला दूँ उसे ? मिलना चाहते हो ?'

मैंने चारपाई से उठकर कहा-नहीं-नहीं, उसे मत बुलाइए। मैं अब उसे नहीं देख सकता ! उसे देखकर मैं न जाने क्या कर बैठूँ।

यह कहता हुआ मैं चल पड़ा । तारा की माँ ने कई बार पुकारा , पर मैंने पीछे फिरकर भी न देखा।

यह है मुझ निराश को कहानी । इसे आज दस साल गुज़र गये। इन दस सालों मे मेरे ऊपर जो कुछ बीतो, उसे मैं ही जानता हूँ। कई-कई दिन मुझे निराहार रहना पड़ा है।, फौज से तो उसके तीसरे ही दिन निकाल दिया गया था। अब मारे-मारे

फिरने के सिवा मुझे कोई काम नहीं। पहले तो काम मिलता ही नही, और अगर मिल भी गया, तो मैं टिकता नहीं। जिन्दगो पहाड़ हो गई है। किसी बात की रुचि नहाँ रही। आदमी की सूरत से दूर भागता है।

तारा प्रसन्न है। तोन-चार साल हुए, एक बार में उसके घर गया था। उसके स्वामी ने बहुत आग्रह करके बुलाया था। बहुत कसमे दिलाई । मजबूर होकर गया । वह कली अव खिलकर फूल हो गई है। तारा मेरे सामने आई। उसका पति भी बैठा हुआ था। मैं उसकी तरफ ताक न सका । उसने मेरे पैर खींच लिये। मेरे मुंँह से एक शब्द भी न निकला । अगर तारा दुखी होती, कष्ट में होती, फटे हालो होती, तो मैं उस पर चलि हो जाता , पर सम्पन्न, सरस, विकसित तारा मेरो संवेदना के योग्य न थी। मैं इस कुटिल विचार को न रोक सका-कितनी निष्ठुरता। कितनी बेवफाई!

शाम को मैं उदास बैठा वहाँ जाने पर पछता रहा था कि तारा का पति आकर मेरे पास बैठ गया और मुसकिराकर बोला-बाबूजी, मुझे यह सुनकर खेद हुआ कि तारा से मेरे विवाह हो जाने का आपको बड़ा सदमा हुआ। तारा - जैसी रमणी शायद देवताओं को भी स्वार्थी बना देती , लेकिन मैं आपसे सच कहता हूँ, अगर मैं जानता कि आपको उससे इतना प्रेम है, ता मैं हरगिज़ आपकी राह का काँटा न बनता। शोक यही है कि मुझे बहुत पीछे मालूम हुआ। तारा मुझसे आपकी प्रेम- कथा कह चुकी है।

मैंने मुसकिराकर कहा-तब तो आपको मेरी सूरत से भी घृणा होगी।

उसने जोश से कहा- इसके प्रतिकूल में आपका आभारी हूँ। प्रेम का ऐसा पवित्र, ऐसा उज्ज्वल आदर्श उसके सामने रखा। वह आपको अब भी उसी मुहब्बत से याद करती है। शायद कोई दिन ऐसा नहीं जाता कि आपका जिक्र न करती हो। आपके प्रेम को वह अपनी ज़िन्दगी की सबसे प्यारी चीज़ समझती है। आप शायद समझते हो कि उन दिनों को याद करके उसे दुख होता होगा । बिलकुल नहीं, वहीं उसके जीवन की सबसे मधुर स्मृतियां हैं। वह कहती है, मैंने अपने कृष्णा को तुममें पाया है।

मेरे लिए इतना ही काफी है।

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