युद्ध और अहिंसा/१/१६ नाज़ीवाद का नग्न रूप

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नाज़ीवाद का नग्न रूप

एक हालैण्ड-निवासी लिखते हैं:—

"आपको शायद याद होगा कि सन् १९३१ ई॰ में जब आप् स्वीज़रलैंड में रोमाँ रोलाँ साहब के मेहमान थे, तब मैंने आपकी एक तस्वीर खींची थी। इससे पहले भी हिन्दुस्तान में स्वतन्त्रता हासिल करने के लिए जो आन्दोलन चल रहा था उसका मैं रुचिपूर्वक अध्ययन करता था, खासकर आपके नेतृत्व और युद्ध-पद्धति का। आपको मालूम है कि मैं हालैन्ड का नागरिक हूँ। कई सालो तक मैं जर्मनी में रह चुका हूँ। वहाँ अपनी आजीविका के लिए मैं कलाकरी करता था। जब सात साल पहले नाज़ी-शाही ने जर्मनी पर अपनी सत्ता जमा ली, तो मेरी अन्तरात्मा में कई शंकाएँ पैदा होने लगी, खास तौर पर अपने तीन बच्चों की तालीम के बारे में मुझे कई बार हुआ केि आपसे सलाह करूं, मगर पुनर्विचार करने पर मैंने वह खयाल छोड़ दिया। अपना मामला सन्तोषकारक रूप से खुढ ही सुलझा लिया।

एक साल से मैं म्युनिक का अपना घर छोड़कर हालैन्ड में कुछ [ ९७ ] समय के लिए आ गया था। जब लड़ाई शुरू हुई थी तो जर्मनी में लौटने के बदले मैं हालैंड में ही रह गया, क्योंकि अपने बच्चों को मैं जर्मनी के युद्ध के उन्मादकारी असर से बचाना चाहता था। दस मई को हर प्रकार की कुटिल और सूचम युक्ति की मदद से आखिर हालैंड पराजित किया गया। चार दिन की बेदरेग बमबाजी के बाद हम इंग्लैंड भाग गये, और अब् जावा जा रहे हैं। जावा मेरा जन्म-स्थान है इस नई आबादी में, मैं अपने लिए आजीविका का कोई साधन ढूंढने की कोशिश करूंगा-शोपण के हेतु से नहीं, पर एक अतिथि के तौर पर।

यूरोप ने शस्त्र-बल और हिंसा को अपना आधार बना लिया है। पिछले जमाने में तो फिर भी संग्राम में धर्म-युद्ध के नियमों का कुछ पालन होता था। मगर नाज़ीवाद ने इन सब चीजों की खेश्बाद कह दिया है और मैं सच्चे दिल से यह कह सकता हूं कि आजकल जर्मनी ने जिस तरह मैली दगाबाजी, धूर्तता और कायरता का उपयोग अपने हेतु सिद्ध करने के लिए किया है इस तरह किसी और देश ने नहीं किया। छोटे बच्चों की परवरिश के साथ ही हिंसा करा-कराकर बड़ा किया जाता है। नाज़ी जर्मनी में बच्चों की अपने माँ-बाप के प्रति फरेब और दगाबाजी बाकायदा तौर पर सिखाई जाती है। वैसे ही, तरह-तरह की और अनीतियाँ भी उन्हें सिखाई जाती हैं।

हेर मेन रौशनिग ने “हिटलर के उद्गार” और “विध्वंसकारी क्रांति” के नाम से दो पुस्तके लिखी हैं। श्री रौशनिग हिटलर के [ ९८ ] एक पुराने निकट के साथी हैं। आजकल के नाज़ी जर्मनी का इन पुस्तकों में एक जीता-जागता चित्र मिलता है और हर किसी को उसे पढ़ना चाहिए। हेर हिटलर का हेतु ही नैतिक मर्यादाओ का विध्वंस करना है और जर्मन नवयुवक वर्ग में से अधिकांश इसका शिकार बन चुके हैं।

‘हरिजन' में आपका “जर्मनी में यहूदी प्रश्न” शीर्षक लेख मैंने ख़ास दिलचस्पी से पढ़ा था, क्योंकि वहाँ मेरे बहुत-से यहूदी मित्र हैं। आपने उस लेख में कहा है कि युद्ध के लिए अगर कभी कोई वाजिब कारण हो सकता है, तो जर्मनी के खिलाफ युद्ध के लिए आज वह है। मगर उसी लेख में आपने यह भी लिखा है कि अगर आप् यहूदी होते, तो अहिंसा द्वारा नाजियों का दिल पिघलाने की कोशिश करते। अभी-अभी आपने ब्रिटेन को यह सलाह भी दी है कि शस्त्र से मुकाबला किये बिना वह अपने रमणीय द्वीप को हमला करनेवाले जर्मनों के हवाले कर दें और बाद में अहिंसा द्वारा विजेताओं को जीत लें। संसार के इतिहास में शायद ऐसा दूसरा कोई व्यक्ति न होगा कि जो अहिंसा के अमल के बारे में आपसे अधिक् जानता हो। इस बारे में आपके विचारों के प्रभाव ने न सिर्फ हिन्दुस्तान में बल्कि दुनिया में बाहर भी करोड़ों के दिलों में आपके प्रति पूज्य भाव और प्रेम पैदा कर दिया है। x x x मगर प्राजकल के नाज़ी जर्मनी में नवयुवक-वर्ग अपने दिलोदिमाक दोनों का व्यक्तित्व खो बैठा है, और इन्सान मिटकर वह मानों यंत्र बन [ ९९ ] गया है। जर्मनी के युद्ध-तंत्र में भी पूरी-पूरी यन्त्र की निधुरता है। मशीनों को चलानेवाले आदमी भी मानों भावना-शून्य और हृदय-विहीन मशीन ही हैं। बेबस औरतों और बच्चों की शरीर-शरया के ऊपर से अपने खुश्की के फौलादी जहाज चलाकर उन्हें कुचलने में उन्हें दरेग़ नहीं आता, न असैनिक शहरों पर बम के गोले बरसाकर सैकड़ों और हजारों की तादाद में बच्चों और औरतों को कत्ल करने में ही। इन्हीं बच्चों और औरतों की धावा बोलते वक्त अपने आगे रखकर ढाल के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। जहरमिली खुराक बाँटकर हलाल करने के किस्से भी बन चुके हैं। मैं खुद कई ऐसी घटनाओं के बारे में गवाही दे सकता हूँ। आप के कई अनुयायियों के साथ जर्मनी के खिलाफ सफलता से अहिंसा का प्रयोग करने के बारे में मेरी बातचीत हुई है। मेरा एक मित्र विलायत में युद्ध के जर्मन कैदियों पर जिरह करने के काम में लगा था। उसपर इन जर्मन नवयुवकों की आध्यात्मिक संकुचितता और अधःपतन का ऐसा कड़ा आघात हुआ कि उसे कबूल करना पड़ा कि ऐसे यंत्ररूप नौजवानों के सामने अहिंसा का प्रयोग चल नहीं सकता। सबसे भयंकर बात तो यह है कि इस ७ साल के अर्से में हिटलर इस हदतक इनका नैतिक पतन करने में कामयाब हुआ है। दुनिया के इतिहास में मुझे दूसरी ऐसी कोई मिसाल दिखाई नहीं देती कि किसी प्रजा की यहाँ तक आध्यात्मिक अधोगति हुई हो।' इस मित्र ने अपना नाम व पता-ठिकाना मुझे भेजा है। मुझे [ १०० ] नाज़ी क्रूरता और निष्ठुरता की इतनी चिन्ता नहीं। मुझे चिन्ता में डालनेवाली तो इस मित्र की यह मान्यता लगती है कि हिटलर या उनकी जर्मन प्रजा इतनी यंत्रवत् और जड़वत् बन चुकी है कि अब अहिंसा का प्रयोग असर डाल ही नहीं सकता। मगर अहिंसा अगर काफ़ी दर्जतक चलाई जाये, तो जरूर उसका असर हेरहिटलर पर और उनके धोखे के जाल में फँसी हुई प्रजा पर तो और भी निश्चित रूप पड़नेवाला है। कोई आदमी हमेशा के लिए यंत्रवत् नहीं बनाया जा सकता। जहाँ उसके सिर पर से सत्ता का भारी वोभ उठा कि वह अपनी सच्ची प्रकृति के अनुसार फिर चलने लगता है। अपने परिमित अनुभव पर से जो सिद्धान्त इस मित्र ने गढ़ लिया है वह बताता है कि अहिंसा की गति को उसने समझा ही नहीं। बेशक, ब्रिटिश सरकार ऐसे प्रयोगों में नहीं पड़ सकती कि जिनमें उसे कामचलाऊ भी श्रद्धा नहीं, और इस तरह अपने-आपको वह जोखिम में नहीं डाल सकती। लेकिन अगर मुझे मौका दिया जाये, तो मेरी शारीरिक शक्ति दुर्दल होते हुए भी असम्भव-जैसी दिखाई देनेवाली बात के लिए भी मैं बेधड़क प्रयास कर सकता हूँ; क्योंकि अहिंसा का साधक अपने बल पर मैदान में नहीं उतरता, वह तो ईश्वरीय बल पर आधार रखता है। इसलिए अगर मेरे लिए रास्ता खोल दिया जाये, तो मुझे यकीन है कि ईश्वर मुझे शारीरिक बल भी दे देगा और मेरी वाणी में वह अमोघ प्रभाव भी पैदा कर देगा। कुछ भी हो, मेरी तो सारी जिन्दगी [ १०१ ] इस तरह श्रद्धा के प्रयोगों में बीती है। मुझमें अपनी कोई स्वतन्त्र शक्ति है, यह मैंने कभी माना ही नहीं। निरीश्वरवादी लोगों को इसमें शायद लाचारी और बेबसी की बू आयेगी। अपने आपको शून्य बनाकर ईश्वर सारे-का-सारा आधार रखने को अगर न्यूनता माना जाये, तो मुझे कबूल करना पड़ेगा कि अहिंसा की जड़ में यही न्यूनता भरी है।

'हरिजन-सेवक' : १७ अगस्त, १९४०