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युद्ध और अहिंसा/१/१७ 'निर्बल बहुमत' की कैसे रक्षा हो?

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युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ १०२ से – १०६ तक

 

: १७ :
“निर्बल बहुमत' की कैसे रक्षा हो?

इस्लामिया कालेज के प्रोफेसर तैमूर एक पत्र में लिखते हैं:-

“इस समस्या के युग में आहिंसा की गुप्त शक्तियों की भाँकी कराकर आपने जगत को अपना ऋणी बनाया है। बाहरी आक्रमण से शस्त्र-धारण किये बिना हिन्दुस्तान की रक्षा करने का जो प्रयोग आप् करना चाहते हैं वह बेशक युग-युगांतरों में सबसे ज़बरदस्त नैतिक प्रयोग के तौर पर माना जायेगा। इस प्रयोग के सिर्फ दो ही नतीजे आ सकते हैं - या तो हमला करनेवालों की आत्मा उनके सामने खड़ी निदोष प्रजा के प्रेम् से जाप्रत होगी और वह आपने किये पाप पर पशेमान होंगे, या यह होगा कि अपने अहंकार के उन्माद में आहिंसा की शारीरिक शक्ति के स्वय और निर्वीर्यता का चिन्ह मानकर वह समझने लगें कि एक कमजोर प्रजा को पराजित करके उस पर हुकूमत करना ही एक सही और ठीक बात है। जर्मन तत्त्ववेत्ता नीत्से का यह सिद्धांत था और उसीपर आज हिटलर अमल कर रहा है। इस तरह भौतिक शक्ति से युद्ध और अहिंसा सम्पन्न राष्ट्र एक गरीब और शरीर से निर्वल प्रजा को पराजित कर पाये, तो इसमें भारी हानि है। पराजित राष्ट्र के चन्द इने-गिने व्यक्ति भले अपने आत्म-बल का जौहर बताकर विजेता के भागे सिर झुकाने से इन्कार करें, मगर प्रजा का अधिकांश तो आखिर उसकी शरण लेगा ही और अपनी प्राण रक्षा की खातिर गुलामी की गिदगिढ़ाने की रीति ग्रहण करेगा। ऐसे लोगों में बड़े-बड़े विज्ञानवेत्ता तत्वज्ञ और कलाकार लोग भी पा सकते हैं। प्रतिभा और नैतिक बल तो भिन्न-भिन चीजें हैं। वे एक ही व्यक्ति में अक्सर इकठे नहीं पाये जाते। जो सशक्त है उसे अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए फौज की जरूरत नहीं, वह अपने शरीर की आहुति देकर भी अपनी आत्मा की रक्षा कर लेगा। मगर ऐसे लोग इनेगिने ही हो सकते हैं। हरेक देश में बहुमत सो कमज़ोर निर्बल प्रजा का ही होता है। उन्हें रक्षा की आवश्यकता रहती है। सवाल यह है कि अहिंसा के उपाय से उनकी रक्षा कैसे हो? देश की अहिंसा के उपाय से रखा करने की नीति पर विचार करते हुए हरेक देश-भक्त प्रादमी के सामने यह एक समस्या खड़ी हो जाती है। क्या आप 'हरिजन' द्वारा इसपर कुछ प्रकाश डालेंगे?"

इसमें शक नहीं कि “निर्बल बहुमत" को रक्षा की जरूरत है। अगर सब-की-सब प्रजा सिपाही होती-फिर भले वह शस्त्रधारी हो या अहिंसात्मक-तो इस किस्म की चर्चा का मौका हो न पाता। ऐसा दुर्बल बहुमत हमेशा हर देश में रहता ही है, जिसे दुर्जनों से रक्षा की जरूरत रहती है। इसका पुराना तरीका तो हम जानते ही हैं। उसको हम स्वीकार करलें, तो उसके अन्त में नाजीवाद को आना ही है। नाजीवाद की जरूरत महसूस की गई थी, तभी इसका जन्म हुआ। एक सारी-की-सारी कौम पर एक घोर अत्याचार लादा गया था। उसको हटाने के लिए एक बड़ी चीख-पुकार मच रही थी। इस अत्याचार का बदला लेने को हिटलर पैदा हुआ। आजकल के युद्ध का चाहे आखिरी परिणाम कुछ भी क्यों न हो, जर्मनी अपने को आगे की तरह फिर अपमानित नहीं होने देगा। मानव जाति भी ऐसे अत्याचार को दोबारा सहन नहीं करने की। मगर एक ग़लती को मिटाने के लिए, एक अत्याचार का बदला लेने के लिए हिंसा का गलत राम्ता अख्त्यार कर के, और इस हेतु से हिंसा-शास्त्र को लगभग सम्पूर्णता के दर्जेतक पहुँचाकर के हिटलर ने जर्मन प्रजा को ही नहीं, बल्कि मानव-जाति के अधिकांश को हैवान-सा बना दिया है। अभी इस क्रिया का अन्त हमने नहीं देखा, क्योंकि इसके मुकाबले में ब्रिटेन को भी जबतक वह हिंसा के पुरातन मार्ग को पकड़े बैठा है-अपने सफल रक्षण के लिए नाजी तरीके अपनाने होंगे। इस तरह हिंसा-नीति को प्रहण करने का कुदरती और अनिवार्य परिणाम यही होगा कि इन्सान और इसमें “निर्बल बहुमत" भी पा जाता है-दर्जा-ब-दर्जा अधिक पाशवी स्वभाववाला बने, क्योंकि निर्बल बहुमत को आवश्यक मात्रा में अपने रक्षकों को सहयोग देना ही होगा।

अब फर्ज कीजिए कि इसी बहुमत की अहिंसा-नीति द्वारा रक्षा की जाती है। पाशविकता, धोखेबाजी, द्वेष आदि को तो इसमें स्थान ही न होगा। नतीजा यह होगा कि दिन-ब-दिन रक्षक दल का नैतिक वातावरण सुधरेगा। इसके साथ ही, जिसकी रक्षा की जा रही है, उस "निर्बल बहुमत" का भी नैतिक उत्थान होगा। इसमें केवल दर्जे का फर्क हो सकता है, मगर क्रिया में नहीं!

केवल इस तरीके में मुश्किल तब पेश आती है, जब हम अहिंसा के साधन को अमल में लाने की कोशिश करते हैं। हिंसात्मक युद्ध के लिए शस्त्रधारो सिपाही ढूँढने में कोई दिक्कत नहीं पेश होती। मगर अहिंसक सिपाहियों का रक्षा-बल बनाते हुए हमें बड़ी सावधानी से भरती करनी पड़ती है। रुपये या तनख्वाह की लालच से तो ऐसे सिपाही पैदा नहीं किये जा अहिंसक युद्ध के अनुभव के परिणामस्वरूप भविष्य के लिए श्राज मेरी आशा मजबूत बनी है। "दुर्बल बहुमत" की अहिंसाशस्त्र द्वारा रक्षा करने में मुझे काफ़ी कामयाबी मिली है। मगर अहिंसा-जैसे दैवी शस्त्र के अन्दर छुपी हुई प्रचंड शक्ति को खोज निकालने के लिए पचास साल का अर्सा चीज क्या है? इसलिए इस पत्र के लेखक की तरह जो लोग अहिंसा-शस्त्र के प्रयोग में रस लेने लगे हैं, उन्हें चाहिए कि यथा शक्ति और यथावसर इस प्रयोग में शामिल हों। यह प्रयोग अब एक निहायत मुश्किल मगर रोचक मंजिल पर पहुँचा है। इस अपरिचित महासागर पर मैं खुद अपना रास्ता अभी हूँढ रहा हूँ। मुझे कदम-कदम पर मैं कितनी गहराई में हूँ इसका माप लेना पड़ता है। कठिनाइयों से मेरी हिम्मत कम नहीं होती, मेरा उत्साह और बढ़ता ही है।

'हरिजन-सेवक' : २४ अगस्त, १९४०