युद्ध और अहिंसा/१/१८ कुछ टीकाओं का उत्तर

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कुछ टीकाओं के उत्तर

अखिल-भारतीय कांग्रेस कमेटी के हाल के प्रस्ताव और उसमें दिये गये मेरे भाषण पर मीठी-कड़वी सब तरह की काफी टीकाएँ हुई हैं। उनमें से कुछ का जवाब मैं यहाँ देने की कोशिश करूंगा, क्योंकि उनका सम्बन्ध मौलिक सिद्धांतों के साथ है। १७ तारीख्न के ‘टाइम्स आफ इंडिया' ने अपनी सौम्य टीका में मुझे यह कहने के लिए आड़े हाथों लिया है कि यूरोप के लोग नहीं जानते कि आखिर वे लड़ किस चीज के लिए रहे हैं? मैं जानता था कि मेरे इस वाक्य से कई लोग नाराज होंगे । परन्तु खरी बात सुनाना जब प्रस्तुत ही नहीं बल्कि धर्म बन जाता है तो उसे सुनाना ही पड़ता है, चाहें वह कड़वी ही क्यों न लगे। मेरी धारणा है कि इस बारे में उलटी मुझसे काफी ढील हुई है, मेरे मूल वाक्य में मैंने युद्धरत राष्ट्र' यह शब्द प्रयोग किया था, न कि ‘यूरोप की जनता'। दोनों में केवल शब्दभेद नहीं, मर्मभेद है। मैंने कई बार बताया है कि राष्ट्र और उनके नेता दो अलग-अलग चीजें हैं। नेतागण तो खूब अच्छी तरह समझते हैं कि उन्हें [ १०८ ] लड़ाई किसलिए चाहिए? इसका मतलब यह नहीं कि वे जो कुछ कहते हैं ठीक है। परन्तु न तो अंग्रेज़, न जर्मन और न इटालियन जनता यह जानती है कि वह क्यों युद्ध में पड़ी है? सिर्फ उसकी अपने नेताओं पर श्रद्धा है इसीलिए वह उनके पीछे-पीछे चलती है। मेरा कहना यह है कि आधुनिक युद्ध-जैसे भीषण हत्याकांड में इस तरह अन्धश्रध्दा से कूद पड़ना ठीक नहीं। मेरी इतनी बात तो मेरे टीकाकार भाई भी कबूल करेंगे कि अगर आज जर्मन और इटालियन जनता से पूछा जाय कि अंग्रेज बच्चों की निर्दयतापूर्वक हत्या करना या सुन्दर अंग्रज घरों की ईंट से ईंट बजाना किस तरह से मुनासिब या जरूरी है, तो वह कुछ समभा न सकेंगे। मगर टाइम्स’ शायद यह कहना चाहता है कि इस बारे में अंग्रेज प्रजा औरों से निराली है; वह जानती है कि वह किसलिए लड़ रही है। जब में दक्क्षिण आफ्रीका में अंग्रेज सिपाहियों से पूछता था कि वे क्यों लड़ रहे हैं, तो वे मुझे कुछ जवाब न दे पाते थे। वे तो अंग्रेज कविरत्न टेनीसन की इस उक्ति के अनुयायी थे कि “सिपाही का धर्म बहस करना नहीं, लड़ मरना है।' वे इतना भी नहीं जानते कि कूच करके उन्हें कहाँ जाना है? अगर आज लंदन के लोगों से पूछूँ कि उनके हवाई जहाज़ आज बर्लिन की तबाही क्यों कर रहे हैं, तो वे मुमे औरों की अपेक्षा अधिक संतोषकारी जवाब न दे सकेंगे। अखबारों में जो खबरें छपती हैं वे अगर भरोसे के क़ाबिल हैं तो अंग्रेजों की हिकमत और बहादुरी ने बर्लिन-निवासियों का जैसा कचूमर [ १०९ ] निकाला है उसके मुकाबिले में जर्मन लोग लंदन पर कुछ भी नहीं कर सके। भला जर्मन जनता ने अंग्रेजी जनता का क्या बिगाड़ा है? जो कुछ भी किया है वह तो उसके नेताओं ने किया है। उन्हें आप बेशक फाँसी पर लटकाएँ। मगर जर्मन प्रजा के घरों या उनकी गैरफौजी बस्ती की तबाही क्यों की जाती है? उन्मत्त विध्वंसकता की यह प्रवृत्ति चाहे नाजीवाद के नाम से चलाई जाय, चाहे प्रजातंत्रवाद या स्वतन्त्रता का पवित्र नाम लेकर, नतीजा तो उसका एक ही होता है-मौत और तबाही, अनाथों और विधाओं का विलाप, बेघरबार मारे-मारे फिरनेवाले गरीबों का रुदन! मैं नम्रतापूर्वक, निश्चयपूर्वक और दृढ़तापूर्वक अपनी सारी शक्ति लगाकर कहना चाहता हूँ कि स्वतन्त्रता और लोकशासन जैसे पवित्र हेतु भी जब निर्दोष रक्त से रेंगे जाते हैं तो वे अपनी पवित्रता खोकर पापमूल बन जाते हैं। मुझे तो ईसा की अमर आत्मा आज यह पुकार करती हुई सुनाई देती है कि 'ये लोग जो अपने को मेरे बचे कहते हैं जानते नहीं कि वे आज क्या कर रहे हैं। वे मेरे स्वर्गस्थ पिता का व्यर्थ नाम लेते हैं और उसके मुख्य आदेश की अवज्ञा करते हैं।’ अगर मेरे कानों ने मुझे धोखा नहीं दिया तो मैंने और भी बहुत से महानुभाव पुण्यपरायण व्यक्तियों को ऐसा ही कहते सुना है।

मैंने यह सत्य घोषणा क्यों की है? इसलिए कि मेरा विश्वास है कि ईश्वर ने मुझे अमन और शान्ति का सुमार्ग जगत को बताने का निमित्त बनाया है। अगर ब्रिटेन को न्याय मॉगना है तो ईश्वर [ ११० ] के दरबार में उसे साफ हाथ लेकर जाना चाहिए। आज़ादी और लोकशासन की रक्षा वह युद्ध में जर्मनी था इटली के जैसे तरीकों से युद्ध चलाकर नहीं कर सकेगा। हिटलर को हिटलर की पद्धति से मात करके वह बाद में अपनी तर्ज को बदल न सकेगा। गत युद्ध पुकार-पुकारकर हमें यही सिखाता है। इस तरह से प्राप्त की हुई विजय एक खतरनाक जाल और धोखे की टट्टी साबित होगी। मैं जानता हूँ कि आज मेरी पुकार अरण्यरुदन ही है, परन्तु एक दिन दुनिया इसकी सच्चाई को पहचानेगी। अगर प्रजातन्त्रवाद या स्वतन्त्रता को विनाश से सचमुच बचाना है तो वह शांत, परन्तु सशस्त्र मुकाबले से कहीं अधिक प्रभावशाली और तेजस्वी मुकाबले द्वारा ही हो सकेगा। यह मुकाबला सशस्र मुकाबले से अधिक वीरतापूर्ण और तेजस्वी इसलिए होगा कि इसमें जान लेने की बात नहीं, केवल जान पर खेल जाने की बात है।

'हरिजन-सेवक' : ५ अक्तूबर,१९४०