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युद्ध और अहिंसा/२/७ क्या अहिंसा बेकार गयी?

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युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ १४६ से – १५१ तक

 
:७:
क्या अहिंसा बेकार गयी?

अपने लेख पर हुई इस आलोचना का कि यहूदी तो पिछले २,००० वर्ष से अहिंसक ही रहे हैं, मैंने जो जवाब दिया था, उस पर एक सम्पादकीय लेख में 'स्टेट्समैन' ने लिखा है:

"पास्टर नीमोलर और लूथेरन चर्च पर हुए अत्याचारों की बात सारी दुनिया को मालूम है; अनेक पास्टरों और साधारण ईसाइयों ने पोप की अदालतों, हिंसा और धमकियों के कष्टों को बहादुरी के साथ बर्दाश्त किया और बदले या प्रतिहिंसा का खयाल किये बिना वे सत्य पर डटे रहे। लेकिन जर्मनी में कौन-सा हृदय-परिवर्तन नज़र आता है! बाइबल के रास्ते चलनेवाले संघों ('बाइबल सरचर्स लीगों) के जिन सदस्यों ने नाजी सैनिकवाद को ईसा के शान्ति-संदेश का विरोधी मानकर ग्रहण नहीं किया, वे आज जेलखानों और नजरबन्द-कैम्पों में पड़े साह रहे हैं और पिछले पांच सालों से उनकी यही दुर्दशा हो रही है। कितने जर्मन ऐसे हैं, जो उनके बारे में कुछ जानते हैं, या बानते भी हैं तो उनके लिए कुछ करते हैं! अहिंसा चाहे कमज़ोरों का शस्त्र हो या बलवानों का, किन्हीं अत्यन्त विशेष परिस्थितियों के अलावा वह सामाजिक के बजाय न्यक्तिगत प्रयोग की ही चीज़ मालूम पड़ती है। मनुष्य अपनी खुद की मुक्ति के लिए प्रयत्न करता रहे; राजनीतिज्ञों का सम्बन्ध तो कारणों, सिद्धान्तों और अल्पसंख्यकों से है। गांधीजी का कहना है कि 'हेर हिटलर को उस साहस के सामने झुकना पड़ेगा जो उसके अपने तूफानी सैनिकों द्वारा प्रदर्शित साहस से निश्चितरूपेण श्रेष्ठ है।' अगर ऐसा होता, तो हम सोचते कि हेर वॉन ओसीट्ज़के जैसे मनुष्य की उन्होंने जरूर तारीफ की होगी। मगर नाजियों के लिए साहस इसी हालत में गुण मालूम पड़ता है कि जब उनके अपने ही समर्थक उससे काम लें; अन्यत्र वह 'मार्क्सवादी-यहूदियों की पृष्ठतापूर्ण उत्तेजना, हो जाता है। गांधीजी ने इस विषय में कारगर रूप में कुछ करने में बड़े-बड़े राष्ट्रों के असमर्थ होने के कारण अपना नुसना पेश किया है-यह ऐसी असमर्थता है जिसके लिए हम सबको अफसोस है और हम सब चाहते हैं कि यह न रहे। यहूदियों को उनकी सहानुभूति से चाहे बड़ा आश्वासन मिले, लेकिन उनकी वृद्धि में इससे ज्यादा मदद मिलने की सम्भावना नहीं है। ईसामसीह का उदाहरण अहिंसा का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है और उनको जिस बुरी तरह मारा गया उससे हमेशा के लिए यह सिद्ध हो गया है कि सांसारिक और भौतिक रूप में यह बड़ी बुरी तरह असफल हो सकती है।"

मैं तो यह नहीं समझता कि पास्टर नीमोलर और दूसरे व्यक्तियों का कष्ट-सहन बेकार साबित हुआ है। उन्होंने अपने स्वाभिमान को कायम रखा है और यह साबित कर दिया है कि उनकी श्रद्धा किसी भी कष्ट-सहन से विचलित नहीं हो सकती। हेर हिटलर के दिल को पिघलाने के लिए वे काफी साबित नहीं हो सके, इससे केवल यही जाहिर होता है कि हेर हिटलर का दिल पत्थर से भी अधिक कठोर चीज़ का बना हुआ है। मगर, सख्त-से-सख्त दिल भी अहिंसा की गर्मी से पिघल जायगा और इस हिसाब से अहिंसा की ताकत की तो कोई सीमा ही नहीं।

हरेक कार्य बहुत-सी ताकतों का परिणाम होता है, चाहे वे एकदूसरे के विरुद्ध असर करनेवाली ही क्यों न हों। ताक़त कभी नष्ट नहीं होती। यही हम मैकेनिक्स की किताबों में पढ़ते हैं। मनुष्य के कामों में भी यह उसी तरह से लागू है। असल में बात यह है कि एक मामले में हमें आम तौर पर यह मालूम होता है कि वहाँ कौन-कौन-सी ताकतें काम कर रही हैं और ऐसी हालत में हम हिसाब लगाकर उसका नतीजा भी पहले ही से बता सकते हैं। जहाँतक मनुष्य के कामों का ताल्लुक है, वे ऐसी मुख्तलिफ ताकतों के परिणाम होते हैं, कि जिनमें से बहुत-सी ताकतों का हमें इल्म तक नहीं होता।

लेकिन हमें अपने अज्ञान को इन ताकतों की क्षमता में अविश्वास करने का कारण नहीं बनाना चाहिये। होना तो यह चाहिये कि अज्ञान के कारण हमारा इसमें और भी ज्यादा विश्वास हो जाये। चूंकि अहिंसा दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है और काम भी यह बहुत छुपे ढंग से करती है, इसलिए इसमें बहुत भारी श्रद्धा रखने की जरूरत है। जिस तरह हम ईश्वर में श्रद्धा रखना अपना धर्म समझते हैं, उसी तरह अहिंसा में श्रद्धा रखना भी धर्म समझना चाहिये।

हेर हिटलर केवल एक आदमी ही तो है और उनकी जिंदगी एक औसतन आदमी की नाचीज जिंदगी से बड़ी नहीं है। अगर जनता ने उनका साथ देना छोड़ दिया, तो उनकी ताकत एक नष्ट ताकत होगी। मानव-समाज के कष्ट-सहन का उनकी तरफ से कोई जवाब न मिलने पर मैं निराश नहीं हुआ हूँ। मगर, मैं यह नहीं मान सकता कि जमैनों के पास दिल नहीं है, या संसार की दूसरी जातियों की अपेक्षा वे कम सहृदय हैं। वे एक-न-एक दिन अपने नेता के खिलाफ विद्रोह कर देंगे, अगर समय के अन्दर उसकी आँखे न खुली और जब वे ऐसा करेंगे तब हम देखेंगे कि पास्टर नीमोलर और उसके साथियों की मुसीबतों और कष्ट-सहन ने जागृति पैदा करने में कितना काम किया है।

सशस्त्र संघर्ष से जर्मन हथियार नष्ट किये जा सकते हैं, पर जर्मनी के दिल को नहीं बदला जा सकता, जैसा कि पिछले महायुद्ध में हुई हार नहीं कर सकी। उसने एक हिटलर पैदा किया, जो विजयी राष्ट्रों से बदला लेने पर तुला हुआ है। और यह बदला किस तरह का है? इसका जवाब वही होना चाहिये जो स्टीफेन्सन ने अपने उन साथियों को दिया था, जो गहरी खाई को पाटने से हताश हो गये थे और जिससे पहले रेलवे का निकलना
मुमकिन हो गया था। उसने अपने साथियों से, जिनमें विश्वास की कमी थी, कहा-"विश्वास बढाओ और गढ़े को भरे चले जाओ। वह अथाह नहीं है, इसलिए वह जरूर भर जायगा।" इसी तरह मैं भी इस बात से मायूस नहीं हुआ हूँ कि हेर हिट-लर या जर्मनी का दिल अभीतक नहीं पिघला है। इसके विरुद्ध मैं यही कहूँगा कि मुसीबतों पर मुसीबतें सहते चले जाओ, जब-तक कि अन्धे को भी यह नज़र आने लगे कि दिल पिघल गया है। जिस तरह पास्टर नीमोलर की मुसीबतें बर्दाश्त करने के कारण शान बढ़ गई है, उसी तरह अगर एक यहूदी भी बहादुरी के साथ डटकर खड़ा हो जाय और हिटलर के हुक्म के आगे सर झुकाने से इन्कार कर दे, तो उसकी शान भी बढ़ जायगी और अपने भाई यहूदियों के लिए मुक्ति का रास्ता साफ कर देगा।

मेरा यह विश्वास है कि अहिंसा सिर्फ व्यक्तिगत गुण नहीं है, बल्कि एक सामाजिक गुण भी है जिसे दूसरे गुणों की तरह विकसित करना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि समाज अपने आपस के कारोबार में अहिंसा का प्रयोग करने से ही व्यवस्थित होता है। मैं जो कहना चाहता हूँ, वह यह है कि इसे एक बड़े राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर काम में लाया जाये।

मैं 'स्टेट्समैन' द्वारा जाहिर की गई इस राय से सहमत नहीं हूँ कि हजरत ईसा की मिसाल ने हमेशा के लिए यह साबित कर दिया कि अहिंस सांसारिक बातों में नाकामयाब साबित होती है। हालांकि मैं जाति-पाँति के दृष्टिकोण से अपने आपको ईसाई
नहीं कह सकता, मगर ईसा ने अपनी कुर्बानी से जो उदाहरण क़ायम किया है, उससे मेरी अहिंसा में अखंड अद्धा और भी बढ़ गई है और अहिंसा के इसी सिद्धांत के अनुसार ही मेरे तमाम धार्मिक और सांसारिक काम होते हैं। मुझे यह भी मालूम है कि सैकड़ों ईसाई ऐसे हैं, जिनका ऐसा ही विश्वास है। अगर ईसा ने हमें अपने तमाम जीवन को विश्व-प्रेम के सनातन सिद्धान्त के अनुसार बनाने का सन्देश नहीं दिया, तो उनका जीवन और बलिदान बेकार है।


'हरिजन-सेवक' : १४ जनवरी, १९३९