राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो की कर्मकारिता

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राबिनसन-क्रूसो  (1922) 
द्वारा डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

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क्रूसो की कर्मकारिता

जब मैं किला बना रहा था तब प्रति दिन एक बार काम से छुट्टी पा कर बन्दूक़ हाथ में ले कर यह देखने के लिए बाहर घूमने जाता था कि खाने के कोई उपयुक्त चीज़ मिलती है या नहीं इससे उस द्वीप का परिचय पाने का भी सुयोग मिलता था ।

मैंने देखा कि इस द्वीप में बकरे बहुतायत से हैं; पर वे अत्यन्त डरपोक और बडी फुर्ती से भागते थे । उनके पास तक पहुँचना बड़ा कठिन था । उनको पाकर मुझे पहले जैसा आनन्द हुआ था वैसे ही उनका स्वभाव देख कर हताश होना पड़ा । किन्तु मैंने एकदम आशा नहीं छोड़ी मैं । बराबर उनके पीछे लगा ही रहा । मैंने शीघ्र ही इस बात का पता लगा लिया कि जब वे पहाड़ के ऊपर चरते हैं तब मुझको देखते ही डर के मारे दौड़ कर भाग जाते हैं; परन्तु जब वे पहाड़ की तराई में चरते हैं और मैं पहाड़ पर रहता हूँ तब वे मेरी और बाकते भी नहीं । इससे मैंने समझा कि इन बकरों की [ ६५ ]
आँखें इस खूबी के साथ बनी हैं कि उनकी दृष्टि विशेष कर नीचे ही की ओर पड़ती है । ऊपर की वस्तुओं को वे सहज ही नहीं देख सकते । यह समझ कर के मैं बकरे का शिकार करते समय पहले ही उनसे उच्च स्थान में चढ़ जाता था, और फिर आसानी से उनका शिकार कर सकता था ।

पहले पहल मैंने एक बकरी का शिकार किया । उसके एक छोटा सा बच्चा था । वह उस समय दूध पी रहा था, यह देख कर मुझे बड़ा कष्ट हुआ । जब उस बच्चे की नवप्रसूता माँ धरती पर लोट गई तब बच्चा चुपचाप उसके पास खड़ा हो रहा । यह देखकर मैं दौड़ कर उसके पास गया और उसे गोद में उठा लिया । इसके बाद जब मैं उसे नीचे उतार कर बकरी को कन्धे पर उठाकर ले चला तब वह बच्चा मेरे पीछे पीछे मेरे किले तक आया । मैं उस बच्चे को गोद में उठाकर किले के अन्दर ले गया । मैंने उसे पोसना चाहा पर अभी तक उसे खाना न आता था । वह कुछ भी न खाता था । यह देख मैंने उसे भी मार कर अपने उदरानल की ज्वाला शान्त की । इन दोनों बकरों से बहुत दिनों तक मेरा खाना चला । मेरे पास रोटियाँ बहुत कम थीं, इसलिए मैं उन्हें बहुत बचा कर ख़र्च करता था । मांस मिल जाने से मैं बहुत निश्चिन्त हो गया ।

३०वींं सितम्बर को दो-पहर के समय मैंने इस जनशून्य एकान्त स्थान में पहले पहल पैर रक्खा । यहाँ आये जब दस बारह दिन हुए तब मैंने सोचा कि मेरे पास पञ्चाङ्ग(यन्त्री) नहीं है । तिथि का निर्णय करना पीछे कठिन हो जायगा । इसलिए मैंने एक तख़्ते पर अपनी छुरी से बड़े बड़े अक्षरों में लिखा–-

[ ६६ ]१६५९ ई० की ३० वीं सितम्बर को मैं यहाँ किनारे आ

लगा ।

इसके बाद उस तख़्ते को एक लम्बे से चौकोर खूँटे में लटकाकर मैंने वहाँ गाड़ दिया जहाँ पर मैं पहले किनारे पर आ लग था ।

उस चौकोर खूँटे में प्रतिदिन मैं छुरी से एक एक चिह्न करने लगा । प्रति सातवें दिन का दाग़ कुछ बड़ा कर देता था, और महीने की पहली तारीख का दाग उससे भी बड़ा कर देता था । इस प्रकार मैंने अपनी यन्त्री बना कर के तिथि, सप्ताह, महीना और वर्ष जानने का उपाय कर लिया ।

मैं जहाज़ पर से कुछ कोरा काग़ज़, कलम, रोशनाई, तीन चार कम्पास, नक्शा, किताब, और बाइबिल की पुस्तकें ले आया था । हमारे जहाज़ पर दो बिल्लियाँ और एक कुत्ता था । मैं पहली ही बार जाकर जहाज़ पर से दोनों बिल्लियों को ले आया था । कुत्ता आप ही तैर कर मेरे पीछे पीछे चला आया । यही तीनों इस समय मेरे संगी-साथी थे । बिल्ली और कुत्ते ने बहुत दिनों तक मेरा बहुत कुछ उपकार किया था । मैं चाहता था कि वे मर साथ बात करें, पर एसा होना कब संभव था ! जो हो, मैं उनके साथ रहने से बहुत खुश था ।

जब तक मेरे पास रोशनाई रही तब तक मैं सब बातों का विवरण बहुत सफ़ाई से लिखता जाता था । पर जब स्याही चुक गई तब मैं किसी उपाय से भी स्याही न बना सका ।

घर द्वार बना लेने पर मुझे कई वस्तुओं की कमी का अनुभव होने लगा । खनती, कुदाल, खुरपी, आल-पीन, [ ६७ ]
सुई और डोरा तथा परिघेय वस्त्र के न रहने से मेरे गृहस्थी के कामों में बाधा पड़ने लगी। प्रत्येक कार्य का सम्पादन बहुत विलम्ब और कठिनता से होने लगा। इससे पहले तो जी में बड़ा रंज होता था, किन्तु फिर मैंने सोचा, कि कोई काम जल्दी होने ही से क्या लाभ। और काम ही क्या है, जिसके लिए समय बचाऊँगा? जब तक जिस काम में लगा रहूँगा तब तक उसी को मैं अपना कर्तव्य समझूँगा।

इन परिश्रमसाध्य कामों में लगे रहने से भी कभी कभी मेरा मन उदास और हताश हो जाता था। मैं दैवयोग से जिस स्थान में आ पड़ा था वह सर्वथा जनशून्य और सभ्यसमाज तथा वाणिज्य-पथ से बहिर्भूत था। यहाँ मैं अकेला था। यहाँ से उद्धार की भी कोई आशा न थी। यहाँ अकेले ही रह कर जीवन का शेष भाग बिताना होगा। यह चिन्ता जब मेरे मन में आती थी तब मैं बालक की तरह फूट फूट कर रोता था। धीरे धीरे यह अवस्था भी बहुत कुछ सह्य हो चली। मैं बीच बीच में अपने भाग्य की समालोचना कर के मन को शान्ति देने की चेष्टा करता था और अपनी वर्तमान अवस्था के सुख-दु:ख की गणना कर के मन को धैर्य देता था। इस प्रकार मैं अपने भाग्य के भला-बुरा कह कर मन को समझाता था।


अच्छा
मैं जीता हूँ अपने सा-
थियों की तरह डूब कर
नहीं मरा।


बुरा
मैं निर्जन टापू में आ
फँसा हूँ, यहाँ से मेरा उद्धार
होने की अब आशा नहीं।

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अच्छा

मैं अपने साथियों से अलग हो गया, इसीसे अब तक बचा हूँ। जिन्होंने मेरे प्राण बचाये हैं, वही किसी दिन मेरे उद्धार का भी उपाय कर देंगे।

मैं मरुभूमि के अन्न-जलहीन देश में नहीं आ पड़ा हूँ। यहाँ खाद्य-सामग्री मिलती है। यह उष्ण-प्रधान देश है। ज़्यादा कपड़ों की भी आवश्यकता न होगी।

यहाँ मुझे दुश्मनों का भी कोई डर नहीं। यदि मैं आफ़्रिका के उपकूल में पहुँच जाता तो अवश्य प्राणों का भय था। ईश्वर ने विशेषकर मुझे काम में लगा रक्खा है और जहाज़ को स्थल भाग के समीप लाकर मेरे जीवन के लिए सभी आवश्यक वस्तुएँ दे दी हैं।

बुरा

मैं इस दुनियाँ से जुदा हो गया। संसारी लोगों से अब भेंट होने की संभावना नहीं।

 

मेरे पास खाने-पीने की सामग्री और पहनने-ओढ़ने के लिए कपड़े कम हैं।

 

मेरे प्राणधारण का कोई अवलम्ब नहीं। पास में ऐसा एक भी आदमी नहीं जो मुझ को धैर्य दे सके या जिसके साथ दो बातें कह कर मैं अपने जी का बोझ हलका कर सकूँ।

मतलब यह कि मेरी अवस्था संसार में विशेष शोचनीय होने पर भी ऐसा कुछ योग था जिसके द्वारा मुझे कुछ सान्त्वना मिलती थी। जब मैं अपने भले-बुरे की तुलना [ ६९ ]
करता था तब अच्छे का ही अंश अधिक देखने में आता था । दयामय भगवान् की लीला ही ऐसी है । वे संसार में किसी को निरवच्छिन्न दु:ख नहीं देते ।

इस प्रकार अपने भावी सुख-दुःख की बातों से चित्त को स्थिर कर के मैंने घर बनाने की ओर ध्यान दिया । लकड़ी के घेरे से सटा कर मैंने मिट्टी की दीवार बनाई और पहाड़ से लेकर दीवार तक कड़ी-तख्ते बिछा कर उस पर पत्तों की छावनी कर दी । क्योंकि इस प्रदेश में खूब ज़ोरों की वर्षा होती थी ।

मैंने अपनी सब वस्तुओं को घर में सिलसिलेवार रख दिया । अब जिन आवश्यक वस्तुओं का अभाव था और जिन के बिना कष्ट होता था उन्हें तैयार करने का इरादा किया टेबल और कुरसी के न रहने से मैं अपने जीवन का थोड़ा सा समय भी सुख से न बिता सकता था । न मैं कुछ लिख सकता था, न बैठ कर कुछ पढ़ सकता था । खाने में भी कठिनाई होती थी । मैंने टेबल-कुरसी बनाना आरम्भ किया । मैंने इसके पहले कभी मिस्त्री का काम न किया था, किन्तु परिश्रम और अध्यवसाय के द्वारा मैंने शीघ्र ही उस काम में सफलता प्राप्त की । मेरे पास सब प्रकार के औज़ार न थे, तथापि कुछ हथियारों के बिना ही मैंने बहुत सी चीजें बना लीं । किन्तु इन कामों में मेरा बहुत समय नष्ट होता था और परिश्रम भी अधिक करना पड़ता था । पर उस समय मेरे परिश्रम और समय का मूल्य ही क्या था ? किसी न किसी तरह कुछ परिश्रम और व्यावहारिक कामों के लिए समय का विभाग करना ही पड़ता । जो औज़ार मेरे पास न था उसका काम मैं बुद्धि से लेता था । मान लो; मेरे [ ७० ]पास (लकड़ी चीरने का) आरा नहीं था और मुझे तख्ते की आवश्यकता हुई, उस हालत में मैं कुल्हाड़ी से पेड़ काट गिराता था और उसके दोनों ओर की लकड़ी छील कर एक चपटा चौड़ा सा तख्ता तैयार कर लेता था । उस तख्ते पर रन्दा फेर कर चिकना कर लेता था । इस तरकीब से, बहुत परिश्रम करने पर, एक पेड़ से सिर्फ एक मोटा सा तख्ता तैयार होता था, पर हो तो जाता था ।

जहाज़ पर से मैं जो तख़्ता लाया था उससे पहले पहल मैंने एक टेबल और एक कुरसी बनाई । इसके बाद पेड़ से तख्ता निकाल कर उसके द्वारा घर में ताक़ ( रैक ) बनाया और उस पर सब चीजें करीने से रख दीं जिसमें जरूरी चीज जब चाहें उस पर से निकाल लें ।

यहाँ मैं अपना रोज़ रोज का काम,विचार और घटना आदि, दैनिक वृत्तान्त लिखकर डायरी तैयार करने लगा । इसमें मैंने अपनी चित्त-वृत्ति के अनुसार अनेक प्रकार की बातें लिखी थीं । निदान जब मेरी रोशनाई चुक गई तब मुझे लाचार होकर लिखने से हाथ खींचना पड़ा । मेरी डायरी में कितनी ही बातें बेसिर-पैर की थीं, जिनमें से चुन चुन कर मैंने विशेष विशेष दिन की प्रधान घटनायें यहाँ उद्धृत की हैं ।