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राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो का द्वीप से उद्धार

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राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ २१५ से – २२१ तक

 

क्रूसो का द्वीप से उद्धार

मैं समुद्र तट पर दो बजे रात तक बैठा रहा। आशा और सन्देह के हिंडोले पर चढ़ कर मन कभी ऊपर और कभी नीचे का झोंका खा रहा था। कभी आनन्द से रोमाञ्च हो उठता और कभी भय से हृदय काँप उठता था। ऐसे समय जहाज़ पर सात बार तोप की आवाज़ हुई। सुन कर कहीं से जी में जी आया। फक से निश्वास त्याग कर सँभल बैठा, और यह जान कर आनन्द की सीमा न रही कि कप्तान ने जहाज को जीत कर अपने अधिकार में कर लिया। तब मैं निश्चिन्त हो कर घर आया और सो रहा। मैं दिन भर के कठिन परिश्रम और घोर उद्वेग से इतना क्लान्त था कि लेटते ही गहरी नींद आगई।

अचानक तोप का शब्द सुन कर मेरी नींद टूट गई। सुना, कोई मुझको पुकार रहा है "सेनापति, सेनापति"। अच्छी तरह नींद टूट जाने पर पहचाना कि यह कप्तान का कण्ठ-स्वर है। मैं सीढ़ी लगा कर पहाड़ पर चढ़ा। कप्तान वहीं पा कर मुझे पुकार रहा था। मैं उस के पास ज्योंही गया त्योंहीं वह मेरे गले से लिपट गया और उँगली उठा कर जहाज की ओर दिखलाया। कुछ देर आनन्द के आवेग में पड़ कर वह कुछ बोल न सका। फिर आनन्दोच्छवास को रोक कर गद्गगद कण्ठ से बोला-आप मेरे प्राणदाता हैं, हितैषी हैं! यह आप ही का जहाज़ है। हम लोग भी आप ही के हैं! हम लोगों के जीवन, धन सभी आपके हैं।

मैंने जहाज़ की ओर तजवीज़ कर के देखा, वह तट से आध मील पर था। तब मैंने जाना कि जहाज़ दख़ल हो जाने पर कप्तान उसे आगे बढ़ा लाया है।

मैं आनन्द से एकदम विदेह हो गया। कप्तान मुझको छाती से लगाये खड़ा था नहीं तो मैं जमीन पर गिर पड़ता। वह भी मेरे ही ऐसा आनन्द-विमुग्ध था, तथापि वह मुझको प्रकृतिस्थ करने के लिए कितनी ही मीठी मीठी बातें कहने लगा। आनन्द और उल्लास ने मेरे सभी भावों को उथल पुथल कर दिया था जिससे मैं कुछ बोल न सकता था। जब हृदय में आनन्द को रहने की जगह न मिली तो वह उमड़ कर आँसुओं के रूप में आँखों की राह बाहर निकल आया। आनन्द का कुछ अंश बाहर निकल जाने से मुझे कुछ बोलने का अवसर मिला। मैंने भी कप्तान को दृढ़-आलिङ्गन करके उसे अपना बन्धु और उद्धार-कर्ता कह कर अभिनन्दन किया। सारी घटना एक से एक बढ़ कर विस्मय बढ़ा रही थी। यह सब ईश्वर की अतयं महिमा और अपार दया के विधान का निदर्शन है। मैंने हृदय से ईश्वर को धन्यवाद दिया।

कुछ देर योंही वार्तालाप होने के बाद कप्तान ने कहा कि "मैं आपके लिए जहाज़ में से कुछ खाने-पीने की चीज़ लाया हूँ।" उसने नाव के माँझियों को पुकार कर वे खाद्य वस्तुएँ लाने को कहा। वे लोग तुरन्त सब चाजे ले आये। कई तरह की वस्तुएँ थीं। बिस्कुट, मांस, तरकारी, चीनी, नीबू, शरबत, तम्बाकू और भी कितनी ही चीज़ थीं। इन सब वस्तुओं के अतिरिक्त आधे दर्जन धुले पैजामे, गुलूबन्द, दस्ताने, जूता, टोपी, मोज़े और एक सेट खूब बढ़िया पोशाक थी। यह कहना वृथा है कि उपहार की ये सामग्रियाँ मेरे लिए अत्यन्त दुर्लभ और आदरणीय थीं। मेरे सर्वाङ्ग की पोशाक से सजने के लिए कप्तान यह सामान जहाज़ से उठा लाया था। अतएव इससे सुन्दर और चमत्कारी उपहार मेरे लिए और क्या हो सकता था। किन्तु मेरे लिए यह असुखदायी पदार्थ था। बहुत दिनों से पोशाक पहनने की आदत छुट जाने से बाज़ पोशाक पहनते अत्यन्त कष्ट होता था। यह सब कार्य होने के बाद हम लोग सोचने लगे कि अब बन्दियों का क्या करना चाहिए। जो लोग शातिर बदमाश हैं उन को साथ रखना हम लोगों के हक में हानिकारक है या नहीं, यह बिचारने का विषय है। कप्तान ने कहा, "उन बन्दियों में दो व्यक्ति पहले नम्बर के बदमाश हैं। वे लोग किसी तरह काबू में नहीं आ सकते। यदि उन लोगों को संग ले चलना हो तो उनको हथकड़ी-बेड़ी डाल कर ले चलिए। वहाँ जाकर उन्हें पुलिस के सिपुर्द करने के सिवा और कोई उपाय नहीं।" तब मैंने कहा-अच्छा, यदि उन्हें इसी टापू में रहने को राजी कर सकूँ तो?

कप्तान-तब तो बड़ा ही अच्छा हो। मैं इसे हृदय से पसन्द कर सकता हूँ।

मैं-अच्छा, उन लोगों को बुना कर तुम्हारे सामने उनसे यह प्रस्ताव करता हूँ।

फ़्राइडे और दो बन्धन-मुक्त नाविकों को कुञ्जभवन से पाँचौ कैदियों को बुला लाने के लिए भेजा। उन बन्दियों के आने पर मैं नई पोशाक पहन कर सेनापति के वेष में उनके पास गया। मैंने अपराधियों से कहा-तुम लोगों के विरुद्ध आचरण करने की बात मैंने सुनी है। यह ईश्वर की कृपा ही समझनी चाहिए कि तुम लोग अधिक पाप करने के पहले ही मेरे हाथ बन्दी हुए हो। जहाज़ भी मैंने अपने कब्जे में कर लिया है। तुम लोग अपने नये कप्तान की मृत्यु भी अपनी ही आँखों देखोगे। अच्छा, अब तुम लोगों को क्यों न प्राण-दण्ड दिया जाय?

उन में एक व्यक्ति सब का अगुवा होकर बोला-"इस सम्बन्ध में हम लोगों को कुछ कहने की गुञ्जाइश नहीं। किन्तु जब हम लोग गिरफ़तार किये गये थे तब कप्तान ने कहा था कि तुम लोगों को प्राणभय न होगा। इस समय हम लोग उसी का स्मरण दिलाते हैं।" मैंने कहा-"मैं तुम लोगों के साथ कौन सा दया का व्यवहार करूँ, मेरी समझ में नहीं आता। मैंने इस टापू को छोड़ कर कप्तान के जहाज़ पर सवार हो इँगलैंड जाने का निश्चय किया है। तुम लोगों को इँगलैंड ले जाता हूँ तो वहाँ विद्रोह के अपराध में तुम लोगों का प्राणवध अनिवार्य होगा। इस लिए इस टापू में रहने के सिवा तुम लोगों की प्राण रक्षा का अन्य उपाय नहीं। यदि तुम लोग पसन्द करो तो मैं तुम लोगों को इस टापू में छोड़ सकता हूँ।" मेरी इतनी बड़ी दया देख वे लोग कृतज्ञतापूर्वक मेरे प्रस्ताव पर सम्मत हुए। तब मैंने उन लोगों को बन्धनमुक्त कर दिया।

मैंने कप्तान को यह कह कर जहाज़ पर भेज दिया कि जाओ, जहाज़ पर सब इन्तज़ाम ठीक करो। इधर मैं अपने साथ जहाज़ पर ले जाने योग्य वस्तुओं की व्यवस्था करने लगा। कल सबेरे जहाज़ पर सवार हो कर रवाना हूँगा।

कप्तान के चले जाने पर मैंने बन्दियों से कहा,-"तुम लोगों ने जो यहाँ रहना पसन्द किया यह बड़ा अच्छा किया। इँगलैंड जाने से तुम लोगों को ज़रूर फाँसी होती। यहाँ जीते-जागते तो रहोगे। विशेषतः पाँच आदमी एक साथ मिल कर बड़े सुख-चैन से रह सकोगे। मैं तो अकेला ही यहाँ इतने दिन बना रहा।" यह कह कर मैंने अपना सब इतिहास उनको कह सुनाया। द्वोप का और जीवन-निर्वाह का तत्व उन लोगों को समझा दिया। मैंने उन लोगों को अपना किला, घर-द्वार, खेत-खलिहान, और बकरों का गिरोह आदि सभी स्थान दिखा दिये। जिस तरह मैं रोटी बनाता, और किस-मिस तैयार करता था यह भी सिखा दिया। उन लोगों को मैंने बन्दूक, तलवार, और गोली-बारूद भी दी। मैं बकरों का शिकार कैसे करता था, कैसे उन्हें पकड़ता था, किस तरह बकरी को दुहता था और कैसे दूध से मक्खन निकालता था यह भी सिखा दिया। कप्तान के यहाँ से मँगा कर उन लोगों को और थोड़ी बारूद, तरकारी के बीज तथा स्याही दी। स्याही के बिना मुझे बड़ा कष्ट हुआ था। किन्तु इस समय कप्तान की बात से मुझे पछतावा हुआ कि मैंने अपनी बुद्धि से कितनी ही प्रयोजनीय वस्तुओं का आविष्कार तो कर लिया था किन्तु कोयले से स्याही बनाने की बात मेरे ख़याल में न आई। बड़ी विचित्रता है! उन निर्वासित व्यक्तियों को घर द्वार सौंप कर मैंने कह दिया कि यहाँ सत्रह स्पेनियर्ड व्यक्तियों के आने की संभावना है। तुम लोग उनके साथ बन्धुभाव का व्यवहार करना। इन लोगों से मैंने इस बात की शपथ करा लो। स्पेनियर्ड के नाम से मैं एक चिट्ठी भी लिखकर इन्हें दे गया।

सब प्रबन्ध करके मैं दूसरे दिन जहाज़ पर सवार हुआ। उस रात को यात्रा न हो सकी। दूसरे दिन सबेरे उन निर्वासित पाँच व्यक्तियों में से दो श्रादमी तैर कर जहाज़ के पास आ गये। वे अपने साथियों के दुःस्वभाव की निन्दा करके घिघिया कर कहने लगे-"दुहाई कप्तान साहब, हमको जहाज़ पर चढ़ा लीजिये फिर चाहे हमें फाँसी दे दीजिएगा, यह भी हमें मंजूर है पर हम इन लोगों के साथ टापू में न रहेंगे। वे हमारा बुरी तरह से खून कर डालेंगे।" उनकी इस प्रार्थना को बारंबार अस्वीकार कर
 
राबिन्सन क्रूसोᘘ

१६८६ ईसवी की १९वीं दिसम्बर को मैंने द्वीप छोड़ा।—पृ॰ २२१

अन्त में उनके शपथ करने पर कप्तान ने उन दोनों को जहाज़ पर चढ़ा लिया। जहाज़ पर चढ़ा कर उन्हें अच्छी तरह डाँटडपट बता दी। तब से ये दोनों बड़ी भलमनसाहत के साथ रहने लगे।

मैं अपनी चमड़े की टोपी, छत्ता, और तोता अपने साथ जहाज़ में लाया था। मेरे पास जो कुछ रुपये थे उनका लाना भी मैं न भूला। इतने दिन यों ही बेकार पड़े रहने के कारण रुपयों में मोर्चा लग गया था। देखने से कोई यह न कहता कि यह चाँदी का रुपया है । मैंने उनको अच्छी तरह मल कर झलका लिया।

इस प्रकार अनेक सुख-दुःख भोग कर १६८६ ईसवी की १९वीं दिसम्बर को मैंने द्वीप छोड़ा। ठीक इसी तारीख़ को मैं शैली के मूर का दासत्व छोड़ कर बजरे के सहारे भागा था। इस द्वीप में अट्ठाईस वर्ष दो महीने उन्नीस दिन एकान्तवास करने पर आज मेरा उद्धार हुआ। आज मैं अपने देश को जा रहा हूँ, आज मेरे आनन्द का वारापार नहीं। धन्य जगदीश्वर! तुम्हारी कृपा से आज इस आशातीत सुख का भागी बना हूँ।