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राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो का स्वदेश प्रत्यागमन और धनलाभ

विकिस्रोत से
राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ २२१ से – २२७ तक

 

क्रूसो का स्वदेश-प्रत्यागमन और धनलाभ

मुद्दत के बाद १६८७ ईसवी की ग्यारहवीं जून को मैं इँगलैंड लौट आया। आज पैंतीस वर्ष के बाद मुझे स्वदेशदर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

देश लौट कर देखा, मैं यहाँ सम्पूर्ण रूप से अपरिचित हो गया हूँ। मेरे उपकारी मित्र कप्तान की स्त्री, जिसके पास मेरा कुछ रुपया जमा था वह, अब तक जीती थी, किन्तु विधवा हो जाने के कारण वह बड़ी दरिद्रा हो गई थी। मैंने अपना धन उससे नहीं माँगा बल्कि उस समय मेरे पास जो कुछ पूँजी थी उसमें से भी उसे कुछ देकर उसकी सहायता की। मैं कप्तान का उपकार और सदय व्यवहार न कभी भूला और न कभी भूलूँगा। मैं लन्दन से यार्क शहर को गया। वहाँ जाकर क्या देखा-मेरे पिता, माता, और भाई सब मर गये, केवल मेरी दो बहने और दो भतीजे बच रहे थे। घरवालों ने समझ लिया कि मैं विदेश में जाकर मर गया, इस से मेरे पिता मुझको पैतृक धन का कुछ भी अंश न दे गये। पैतृक धन से हाथ धोकर मुझे अब स्वावलम्बन से जीवन-निर्वाह करना होगा। परन्तु मेरे पास जो कुछ पूँजी थी उससे आश्रम का ख़र्च चलना कठिन था।

जहाँ से कुछ मिलने की आशा न थी वहीं से मुझे कुछ साहाय्य मिला। विद्रोही नाविकगण जिस कप्तान को मारने के लिए मेरे टापू में ले गये थे उसने देश में आकर मेरी बात लोगों से कही, और मैंने जिस युक्ति से विद्रोहियों के हाथ से जहाज़ ले लिया था वह हाल भी उसने जहाज़ के मालिक से कहा। मैंने जिन महाजनों के जहाज़ और माल की रक्षा की थी उन्होंने मिलकर मुझे लगभग तीन हज़ार रुपया पुरस्कार दिया। यह रुपया भी मुझे निश्चिन्त होकर बैठने और अन्य कोई व्यवसाय न करके जीवन-निर्वाह के लिए यथेष्ट न था। इसलिए मैंने सोचा कि लिसबन जाकर ब्रेज़िल में जो मेरी खेती आदि हाती थी उसकी हालत का पता लगाऊँ। मैं अगले साल के एप्रिल महीने में जहाज़ पर सवार होकर लिसबन जा पहुँचा। मेरा परम भक्त फ़्राइडे बराबर मेरे साथ रहा। लिसबन पहुँच कर मैंने, बहुत ढूँढ़ने पर, अपने कप्तान का पता पाया। इन्हींने मुझको आफ़्रिका के उपकूल में जहाज़ पर चढ़ाकर ब्रेज़िल पहुँचा दिया था। वे अब बूढ़े हो गये थे। उनका सयाना बेटा ब्रेज़िल जाने-आने वाले जहाज़ का कप्तान था। वृद्ध मुझको पहचान न सके। मैं भी पहले उनका परिचय न मिलने से उन्हें पहचान न सका। मैंने अपना परिचय देकर उन्हें मुद्दत की बात का स्मरण करा दिया।

प्रथम मिलन के प्रणय-सूचक कुशल-प्रश्न होने के बाद मैंने उनसे अपनी खेती-बारी का हाल पूछा। उन्होंने कहा-"नौ वर्ष से हम ब्रेज़िल नहीं गये। जब गये थे तब तुम्हारे कारपरदाज़ को जीवित देख आये थे। किन्तु जिन दो व्यक्तियों को तुम अपनी सम्पत्ति सौंप आये थे वे मर गये हैं।" मेरा धन इस समय करीब करीब गवर्नमेन्ट ने अपने हाथ में कर लिया है। मैं या मेरा कोई वारिस यदि उस धन का दावेदार खड़ा न होगा तो कितना ही अंश सरकार ज़ब्त कर लेगी और कुछ धर्मकार्य में खर्च कर देगी। अभी मैं या मेरी ओर से और कोई वहाँ जाय तो मुझे अपनी सारी सम्पत्ति मिल जायगी। इस समय मेरे अंश की सालाना आय तीन-चार हज़ार रुपये हो सकती है। मैंने वसीयतनाम में इन्हीं कप्तान को अपनी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी नियत किया था। किन्तु मेरे मरने की सच्ची खबर न पाने के कारण कप्तान को अब तक मेरी सम्पत्ति नहीं मिली। केवल उन्हें पिछले कई सालों का मुनाफ़ा मिला है। उन्होंने मुझको सब हिसाब दिखला दिया और यह भी कहा कि तुम्हारे रुपयों से हमने जहाज़ का अंश ख़रीद लिया है। इस समय उनकी अवस्था ऐसी न थी कि वे मेरा वह रुपया लौटा सके। इसलिए उन्होंने अपना उस जहाज़ का अंश मेरे नाम लिख-पढ़ दिया और एक तोड़ा रुपया दिया। मैं अपने इस परम उपकारी मित्र की ऐसी शिष्टता, निश्छलता और उदारता देख कर मुग्ध हो गया। मेरी आँखों में आँसू भर आये। मैंने उनसे पूछा, इस समय मुझको इतना रुपया वापस देने से आपको कोई कष्ट या असुविधा तो न होगी? उन्होंने कहा, "असुविधा न होगी यह कैसे कहूँ; तथापि यह रुपया आपका है, यह मुझको देना ही होगा।" यह सुन कर मैंने उस तोड़े में से सिर्फ पाँच सौ रुपये लेकर बाक़ी उनको लौटा दिये और रुपया पाने की रसीद लिख दी। फिर यह रुपया भी उन्हें दे दिया और जहाज़ का अंश भी उनके पुत्र से न लिया। वे मुझे मेरा अंश देने को तैयार हैं, यही सन्तोष मुझे सब अभावों का निवारक हुआ। मैं उनसे एक पैसा भी लेना न चाहता था। जिन्होंने विपत्ति के समय दया करके मेरी रक्षा की थी, जो मुझे स्वाधीनता दिलाने में सहायक हुए थे, उनको कष्ट देकर मैं सुख भोगूँ-ऐसा नृशंस मैं न था। मैंने वृद्ध की दी हुई एक भी वस्तु न ली। यह देख कर उन्होंने मेरो खेती का अंश मुझको दिला देने का प्रस्ताव किया। मैंने कहा कि मैं स्वयं ब्रेज़िल जाकर अपना अंश ले लूँगा। उन्होंने कहा, "तुम्हारी इच्छा हो तो तुम जा सकते हो, किन्तु तुम वहाँ न जाओ तो भी मैं यहीं से वहाँ का सब प्रबन्ध कर दे सकता हूँ।" मैं इसी में राज़ी हो गया। उन्होंने अदालत में जाकर शपथ-पूर्वक निवेदन किया कि "राबिन्सन अभी तक जीवित हैं। इन्हें अपने कृषि कारखाने का अंश मिलना चाहिए।" उन्होंने अदालत से मेरा दावा मंजूर कराकर एक परवाना जारी करा दिया और वह एक ब्रेज़िल-गामी परिचित महाजन के हाथ वहाँ को भेज दिया।

सात महीने के भीतर ही मैंने ब्रेजिल से अपने कार परदाज का प्रेम-सूचक पत्र और अपनी सम्पत्ति का हिसाब पाया। मैं अब तक जीता हूँ, यह सुन कर सभी ने खूब आनन्द प्रकट करके चिट्ठी लिखी थी। मेरी सम्पत्ति का मोटा हिसाब यही था कि मेरे अंश का कुल पचहत्तर हजार रुपया जमा है। उन लोगों ने बड़े आदर से एक बार मुझे ब्रेज़िल आने को लिखा था। उन लोगों ने बाघ का चमड़ा पाँच अदद, एक सन्दूक भर मिठाई और एक सौ अशर्फियाँ उपहार में भेजी थीं। एक हजार दो सौ बक्स चीनी, पाठ सौ बोझे तम्बाकू और बाकी नक़द रुपया भेज कर उन्होंने मेरा हिसाब चुकता कर दिया।

एक साथ जब मुझे इतना धन मिला तब मेरा हृदय आनन्द के आवेग से हाथों उछलने लगा। मैं इस आशातीत आनन्दोच्छ्वास से विह्वल हो गया। यदि मेरे परमबन्धु वृद्ध कप्तान मेरी हिफाजत न करते तो आनन्द से मेरा हृदय फट जाता। तब भी मैं बहुत दिनों तक अस्वस्थ रहा; यहाँ तक कि मुझको देखने के लिए डाकृर बुलाये गये थे।

एकाएक मैं पचहत्तर हजार रुपये का मालिक बन बैठा। इसके अलावा ब्रेजिल में सालाना पन्द्रह हजार रुपये मुनाफ़े की जमीदारी! मैं इतना रुपया लेकर क्या करूँगा, इसका कुछ निर्णय नहीं कर सकता था। सब से पहले मैंने अपने परम बन्धु वृद्ध कप्तान की अभ्यर्चना की जिन्होंने पहले मेरे प्राण बचाये और खीर तक मेरे साथ सद्व्यवहार किया। पहले उनका सत्कार करना चाहिए था। मैंने उनके आगे अपना सर्वस्व रख कर कहा-"मित्रवर, इन सब घटनाओं का आदिकारण यद्यपि ईश्वर है तथापि आप ही के आशीर्वाद और कृपा से मुझे इतनी समृद्धि प्राप्त हुई है, इसलिए मैं पहले आपकी पूजा करना आवश्यक समझता हूँ।" यह कह कर मैंने जो उनसे पाँच सौ रुपया लिया था वह लौटा दिया और उनके जिम्मे जो कुछ मेरा पावना था सब छोड़ दिया। इसके बाद उनको अपनी ज़मीदारी का मैनेजर और प्रतिनिधि नियुक्त किया।

इस प्रकार उनका प्रत्युपकार करके में सोचने लगा कि इतना रुपया लेकर मैं क्या करूँ। जितना धन मुझे दरकार था उससे कहीं अधिक मिला। इसकी रक्षा की चिन्ता ने मेरे चित्त को चञ्चल कर दिया। इस अवस्था की अपेक्षा मेरा एकान्तवास कहीं अच्छा था। वहाँ अपनी आवश्यकता के अनुसार सब चीज़ थीं। वहाँ जो कुछ था उससे मज़े में काम निकल जाता था। अब आवश्यकता से बढ़ कर जो इतनी चीज़ मेरे हाथ भाई हैं उन्हें लेकर क्या करूँ। इन प्रयोजनाधिक वस्तुओं की रक्षा करना मेरे लिए भारी जंजाल होगया। यहाँ तो अब वैसी गुफा न थी जिसमें इन वस्तुओं को छिपा रक्खूँगा। अब इन्हें कहाँ किसके पास रक्खूँगा? मेरे परमबन्धु वृद्ध कप्तान बड़े ही सज्जन थे। उन्हीं का एक भरोसा था, पर वे भी तो बहुत वृद्ध हो गये थे। फिर मुझे कभी कभी ब्रेज़िल भी जाना पड़ेगा।

वृद्ध कप्तान के साहाय्य के अनन्तर इँगलैंड-वासिनी कप्तान की पत्नी का स्मरण हो आया। उसीके स्वामी ने पहले पहल मेरी बन्धुहीन जीवनावस्था में मुझे सहायता दी थी। मैंने उस उपकार के बदले उनकी विधवा-पत्नी को डेढ़ हज़ार रुपया भेज दिया और पत्र लिखा कि फिर कुछ सहायतार्थ भेजूँगा। अपनी दोनों बहनों को भी डेढ़ डेढ़ हज़ार रुपया अर्थात् दोनों के बीच तीन हज़ार रुपया भेज दिया। उपकारी, सम्बन्धी तथा अनाथ असहायों को-जो कुछ मुझसे बन पड़ा सब को-मैंने यथायोग्य दिया, किन्तु ऐसी कोई जगह ढूँढ़ने से भी न मिली जहाँ मैं अपने सब रुपयों को निःशङ्क होकर रख सकता। कई परिचित व्यक्ति ऐसा न मिला जिसके हाथ इन रुपयों को सौंप कर निश्चिन्त हो जाता। वृद्ध पोर्चुगीज़ कप्तान और विधवा कप्तान-पत्नी यही दोनों व्यक्ति मेरे प्रति अत्यन्त दयालु थे और इन पर मेरा पूर्ण विश्वास था। किन्तु वे दोनों बहुत वृद्ध हो गये थे, इसलिए उनके पास जमा करने का साहस न होता था। आखिर मैंने आपना रुपया-पैसा बाँध कर इँगलेंड जाने ही का निश्चय किया। तत्काल ब्रेज़िल जाने की बात मुल्तवी रख कर ब्रेज़िलवासी मित्रों के कुशल-पत्र और उपहार भेज कर सब वस्तुओं के पाने की सूचना दे दी। इधर सुयोग पाकर चीनी और तम्बाक को बेंच डाला।