राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो का नया साल

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क्रूसो का नया साल

पहली जनवरी--गरमी बड़ी भयानक पड़ती है। मैं सबेरे और साँझ को बन्दूक़ लेकर घूमने जाता हूँ और दोपहर को सोता हूँ। आज मैंने घूमते समय एक जगह, पहाड़ की तराई में, बकरों का झुंड देखा। वे बड़े डरपोक थे। कुत्ते द्वारा मैंने शिकार खेलने का इरादा किया।

दूसरी जनवरी--मैं अपने कुत्ते को साथ लेकर बकरों का शिकार करने गया। बकरों के झुंड पर मैंने कुत्ते को छोड़ दिया। किन्तु सब बकरे कुत्ते की ओर घूम कर--आँखें फाड़ [ ७५ ]
कर, सींग और कानों को सीधे करके--खड़े हो गये । डर के मारे कुत्ता उनके पास न जा सका ।

तीसरी जनवरी से लेकर १६ वीं अप्रैल तक--मैंने अपने किले के घेरे पर चारों ओर घास जमा दी, इससे बाहर से देख कर कोई नहीं जान सकता था कि यहाँ केई रहता है । ऐसा करने से पीछे मेरा बहुत उपकार हुआ ।

इस समय मुझे कोई काम न था । वृष्टि बन्द होते ही मैं जंगल में घूमने चला जाता था । एक दिन मैंने जंगली कबूतरों का बसेरा ढूँढ़ निकाला । वे पहाड़ की दरार और कन्दरओं में रहा करते थे । मैंने उनके कई बच्चों को लाकर पालने की चेष्टा की, किन्तु कुछ बड़े होने पर वे उड़ गये । मालूम होता है, खाद्य का अभाव ही उनके उड़ जाने का कारण हुआ । असल में उनको खिलाने के लायक मेरे पास. कोई चीज़ न थी । जो हो, मैं जब घूमने जाता था तब कबूतर के दो-चार बच्चे अक्सर ले आता था । इनका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है ।

अब मुझे अनेक वस्तुओं की कमी से कष्ट-होने लगा । इस में भी दिये का न होना ख़ास तौर पर खटकता था । साँझ होते ही ऐसा अंधेरा हो जाता था कि बिछौने से अलग होना मेरे लिए कठिन सा हो जाता था । अफ्रिका से भागते समय मैंने मोमबत्ती जला जला कर रोशनी की थी; किन्तु यहाँ तो मेरे पास वह भो न थी । मैंने बकरी की थोड़ी सी चरबी रख ली थी । अब मिट्टी का एक दियाबना कर उसे मैंने धूप में सुखा लिया । उसी में थोड़ी सी चरबी तथा कपड़े की बत्ती डाल कर दिया जलाने लगा । इस से प्रकाश [ ७६ ]
होता था सही, पर मोमबत्ती की तरह स्थिर और साफ़ रोशनी न होती थी ।

जहाज़ पर से मैं बोरे भर अनाज ले आया था । एक दिन जाकर मैंने देखा कि समूचे बोरे का अन्न चूहों ने खा डाला, सिर्फ भूसी बच रही थी । तब मैंने बोरे का मुँह खोल कर भूसी को इधर उधर ज़मीन पर फेंक दिया ।

करीब एक महीने के बाद बरसात का पानी पाकर हरे हरे अंकुर मिट्टी के नीचे से निकल आये । यह देख कर मैं बड़े ही अचम्भे में आ गया । मैं सोचने लगा, पर निश्चय न कर सका कि ये किस पेड़-पौदे के अंकुर हैं । कुछ दिन बाद जब उन में दस बारह पत्ते निकल आये तब मैंने उन्हें सहज ही पहचान लिया । वे जौ के पौदे थे ।

यह देख कर मेरे मन में आश्चर्य का भाव उत्पन्न हुआ । और भाँति भाँति की चिन्तायें उदित हुई । उनका वर्णन करने में मैं सर्वथा अक्षम हूँ । अब तक मैं धर्म की सीमा से बाहर था । मैं नहीं मानता था कि धर्म भी कुछ है । मेरे भाग्यानुसार जब जो कुछ होजाता था उसे मैं एक घटना मात्र समझता था । ईश्वर के सम्बन्ध में भी मेरी बहुत हलकी सी कुछ कुछ धारणा थी; किन्तु इस समय इस जनशून्य टापू में, ऐसी विषम अवस्था में, मानो बिना ही बीज के अनाज के पौदे उत्पन्न होते देख मैंने परमेश्वर की दयालुता और संसार-भरण का पूरा परिचय पाया । मैंने समझा, ईश्वर ने मेरी ही रक्षा के लिए इस निर्जन टापू में अनाज उपजाया है । इस समय मेरे मन में दृढ़ विश्वास हुआ--

जाको राखे साँइयाँ मार सकै नहिं कोइ ।

बाल न बाँका करि सकै जो जग बैरी होई ॥

[ ७७ ]ईश्वर की ऐसी उदारता देख मेरा सूखा हुआ प्राण फिर हरा हो गया; आँखों में प्रेमाश्रु भर आये। मेरे लिए मुझ से कुछ कहे सुने बिना ही भीतर ही भीतर विश्वम्भर का कैसा विराट् आयोजन हो रहा है, इसका अनुभव कर के मैं भगवान् को धन्यवाद देने लगा। यह देख कर मैं और भी विस्मित हुआ कि पहाड़ के आस पास भी अनाज के पौदे उगे हैं।

मैंने सोचा कि जब यहाँ अनाज के पौदे उत्पन्न हुए हैं तब इस द्वीप के अन्यान्य स्थलों में भी अनाज उपजते होंगे। इसी की जाँच के लिए मैं टापू की देख भाल करने गया। पर अनाज का एक भी पौदा कहीं दिखाई न दिया। तब मुझे स्मरण हो आया कि मैंने जो बोरे से निकाल कर भूसी फेंक दी थी उसीसे अनाज के ये अंङ्कुर उगे हैं। भगवान् की पालन-व्यवस्था के प्रति जो विश्वास हुआ था वह, इस ओर ध्यान जाते ही, बहुत कम पड़ गया। मेरी पहले की धारणा फिर मेरे सामने आ खड़ी हुई। मैंने समझा कि यह तो मेरे ही द्वारा स्वाभाविक घटना के अनुसार हुआ है। किन्तु चिरकाल का अविश्वासी मैं यह न समझ सका कि यह घटना क्योंकर, किसकी प्रेरणा से, हुई। चूहों ने एक तरह सब अनाज खा ही डाला था। उनमें किसी किसी दाने को अविकृत रूप में किसने बचा रक्खा था? उन तुषों को पहाड़ की तराई में फेंकने के लिए किस ने मुझे प्रेरित किया था? उसे समुद्र में न फेंक कर मैंने ज़मीन में ही क्यों फेंका? पानी में फेंकने से वह सड़ जाता और दूसरी जगह फेंकने से सूर्य के प्रचणड ताप में पड़ कर सूख जाता, किन्तु यहाँ पहाड़ की छाया में पानी पड़ते ही वह अंङ्कुरित हो उठा। यह सब भगवान् का सदय विधान नहीं तो क्या था? [ ७८ ]जौ का पौधा पक जाने पर मैंने बड़ी हिफ़ाज़त से उसे रक्खा, और जब उसके बोने का समय आया तब मैंने उसे बो कर अपने खाद्य-संग्रह के उपाय की आशा की। किन्तु पहले साल मैं ठीक समय पर बीज न बो सका, इस कारण आशानुरूप फल न हुआ। इस प्रकार क्रमशः खेती करने की ओर उस देश के जल-वायु की अभिज्ञता प्राप्त करते तथा अपने ख़र्च लायक़ अनाज उपजाते चार वर्ष बीत गये। पर चौथे साल भी मैं साल भर के ख़र्च चलने योग्य अनाज न उपजा सका। इसका पूरा वृत्तान्त मैं फिर किसी जगह लिखूँगा।

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भूकम्प

१७ वीं अपरैल से ३० वीं तक--मेरे घर का घेरा, क़िला और सीढ़ी आदि सब ठीक हो गया। इस समय घेरे को लाँघ कर आये बिना कोई मुझ पर आक्रमण न कर सकता था। इससे मैं निश्चिन्त हो कर रहने लगा।

किन्तु मेरा सब परिश्रम व्यर्थ और प्राणनाश होने की एक घटना अचानक हो गई। मैं अपने तम्बू के पिछवाड़े खोह के द्वार पर बैठ कर काम कर रहा था। उसी समय एकाएक खोह की छत, और मेरे सिर पर पहाड़ से मिट्टी झड़ कर गिरने लगी। गुफा के भीतर जो दो खम्भे छत को थामे खड़े थे वे खूब ज़ोर से फट कर टूट पड़े। यह देख कर मैं बेहद डर गया मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। मैं तब भी ठीक कारण न समझ सका। मैंने समझा, जैसे पहले एक बार छत धँस गई थीं वैसे ही इस दफ़े भी कुछ घटना हुई है। किन्तु कहीं मैं इसके नीचे दब न जाऊँ, इस भय से दौड़ [ ७९ ]
कर मैं किले के पास गया; परन्तु वहाँ भी पहाड़ के ऊपर से माथे पर पत्थर गिरने की सम्भावना देख अपने घर की दीवार फाँद कर बाहर निकल गया।

धरती पर पाँव रखते ही मैंने समझ लिया कि भयङ्कर भूकम्प हो रहा है। आठ आठ मिनट के अन्तर से तीन बार ऐसे जोर से भूडोल हुआ कि उसके धक्के से पृथ्वी पर के बड़े बड़े मजबूत आलीशान मकान भी भूमिसात् हो जाते। मेरे घर से करीब आध मील पर, समुद्र के कछार में, एक पहाड़ था। उसका शिखर भयानक शब्द के साथ फट कर टूक ट्रक होकर नीचे गिर पड़ा। ऐसा भयानक शब्द मैंने अपनी जिन्दगी में कभी न सुना था। इससे समुद्र का जल भी भयानक रूप से ऊपर की ओर उछलने लगा। ऐसा जान पड़ा मानो स्थल की अपेक्षा भूकम्प का असर विशेष कर पानी पर ही पड़ता है।

ऐसी घटना मैंने आज तक न कभी देखी थी न सुनी। मैं यह भयानक दृश्य देख कर मृतवत् निश्चेष्ट हो रहा। समुद्र में जहाज डोलने से जैसा जी मचलाता है, वैसे ही भूकम्प से भी मेरा जी मचलाने लगा। किन्तु पहाड़ टूटने का शब्द सुनकर मेरा होश ठिकाने आगया। मेरे तम्बू के पीछे का पहाड़ टूटकर कहीं एक ही पल में मेरा सर्वनाश न कर दे, इस आशङ्का ने तो मुझे एकदम हतबुद्धि कर दिया।

तीसरी बार कम्प होने के पीछे जब कुछ देर कम्प न हुआ तब मेरे जी में कुछ साहस हो आया। किन्तु जीते ही कहीं दब न जाऊँ, इस डर से मैं दीवार कूद कर भीतर न जा सका। धैर्य च्युत और किंकर्तव्य-विमूढ़ होकर मैं जमीन पर ज्यों का त्यों बैठा रहा। इतनी देर तक मैं बराबर "हे ईश्वर, हे करुणा[ ८० ]
मय! मेरी रक्षा करो" यही पुकार रहा था। इसके सिवा मेरे मन में किसी अन्य धर्म का समावेश न था। किन्तु मैं ऐसा अधार्मिक था कि प्राणनाश का भय दूर होते ही मेरे मन से ईश्वरस्मरण का वह पवित्र भाव शीघ्र ही विलीन होगया।

मैं अभी बैठा ही था, इतने में देखा कि काली घटा ने आकाश को चारों ओर से घेर लिया। अब शीघ्र ही पानी बरसेगा। मैं यह सोच ही रहा था कि वायु का वेग कुछ प्रबल हो उठा। आधे ही घंटे में वायु ने प्रचण्ड आंधी का स्वरूप धारण किया। समुद्र मथित सा होकर फेन उगलने लगा; तरङ्ग पर तरङ्ग दौड़ने लगी, भयङ्कर शब्द करता हुआ समुद्र का हिलकोरा किनारे से आकर टकराने लगा। कितने ही पेड़ जड़ से उखड़ कर गिर गये। तीन घण्टे तक यह उपद्रव जारी रहा। इसके बाद धीरे धीरे कम होते होते और दो घंटे में जाकर तूफ़ान निवृत्त हुआ। इधर आँधी का वेग कम हुआ उधर मूसलधार पानी बरसना शुरू हुआ। इतनी देर तक मैं जड़वत् बैठा ही था। वर्षा का पानी मुझे होश में लाया। तब मैंने समझा कि यह आँधी-पानी भूकम्प का ही फल है। अब भूकम्प न होगा। मैं अब अपने घर में घुसने का साहस कर सकता हूँ। यह सोच कर मैंने हिम्मत बाँधी और वृष्टि के जल से ताड़ित हो कर अपने तम्बू के भीतर जा बैठा। ऐसे वेग से पानी बरस रहा था कि मेरा तम्बू फटने पर हो गया। तब मैं गुफा के भीतर आश्रय लेने को बाध्य हुआ। किन्तु वह टूट कर कहीं माथे पर न गिर पड़े, इस भय से मैं वहाँ शङ्कित और असुखपूर्वक ही रहा। सारी रात और दूसरे दिन सवेरे से सायंकाल तक वृष्टि होती रही। मैंने दीवार की जड़ में एक छेद कर दिया, उसके द्वारा वर्षा का पानी बाहर निकल गया। यदि पानी बाहर न जाता तो गुफा में पानी ही पानी भर जाता। [ ८१ ]मैं बुद्धि को ज़रा स्थिर करके सोचने लगा। इस द्वीप में यदि ऐसे भयङ्कर भूकम्प होते हों तो गुफा या पहाड़ के पास रहना ठीक न होगा। किसी खुले मैदान में चारों ओर दीवार से घेर घार कर घर बनाकर रहना ठीक होगा। जहाँ अभी हूँ यहाँ रहने से किसी न किसी दिन दब कर ज़िन्दगी से हाथ धोने पड़ेंगे।

रहने के लायक स्थान और गृह-निर्माण के लिए जिन चीज़ों की आवश्यकता है उनकी व्यवस्था करने ही में दो दिन बीत गये। दब जाने की आशङ्का से रात में तम्बू के भीतर निश्चिन्त होकर मैं सो न सकता था। किन्तु ऐसे परिश्रम से बनाया हुआ सुरक्षित और सुसज्जित घर छोड़ने को भी जी न चाहता था। घरके माल-असबाब को यहाँ से ढोकर लेजाने ही में फिर कितना समय लगाना और परिश्रम करना होगा। तब जितने दिन तक नया घर खूब मज़बूती के साथ बन कर तैयार न हो ले तब तक जी-जान अर्पण कर मैं ने यहीं रहने का विचार किया।

मैं नया घर बनाने का उपाय सोचने लगा। किन्तु मेरे पास कितने ही आवश्यक हथियार न थे। छोटी छोटी कुल्हाड़ियाँ तो मेरे पास बहुत थीं, पर बड़ी तीन ही थीं। अफ्रिका में छोटी कुल्हाड़ियों का ही विशेष प्रयोजन जान कर मैं उन्हीं को बहुतायत से साथ लाया था, किन्तु सख़्त लकड़ियाँ काटते काटते प्रायः सभी की धार बिगड़ गई थी। मेरे पास सान चढ़ाने की कल थी, पर वह इतनी बड़ी और भारी थी कि उसे एक हाथ से घुमा कर दूसरे हाथ से सान चढ़ाना मेरे सामर्थ्य से बाहर की बात थी। मैं सोचने लगा कि किस युक्ति से इसका प्रतीकार हो सकता है। यहाँ

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मेरे जीवन-मरण की कठिन समस्या उपस्थित होगई। इसलिए इस समय की गुरुतर चिन्ता का वर्णन करना वृथा

होगा। बहुत देर तक सोचते सोचते मैंने एक युक्ति निकाली। सान के नीचे एक पहिया और एक रस्सी लगा कर मैंने पैर के बल से सान चलाने की व्यवस्था की। मेरे पास जितने हथियार थे, सब पर मैंने दो दिन में सान चढ़ा दी।

मैंने देखा कि मेरे खाने-पीने की चीज़ें बहुत कम रह गई हैं, तब मैं प्रतिदिन एक बिस्कुट खाकर ही दिन काटने लगा। इससे मन में बड़ी चिन्ता हुई।

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भग्न जहाज का पूनर्दर्शन

पहली मई--सबेरे उठ कर मैंने ज्यों ही समुद्र की ओर देखा त्यों हीं भाटे में एक जगह पीपे के सदृश केई वस्तु देख पड़ी। मैंने कुतूहलवश पास जाकर देखा तो एक बारूद का पीपा था और टूटे जहाज़ के दो तीन टुकड़े थे। बारूद में पानी पड़ने से वह पत्थर की तरह सख़्त होगई थी। तो भी मैं बारूद के पीपे को लुढ़का कर ज़मीन पर ले आया। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो एक जहाज़ पानी से कुछ ऊपर उठ आया हो। मैं बालू पर होकर जहाज़ की ओर अग्रसर हुआ।

समीप में जाकर देखा तो जहाज़ का पिछला हिस्सा बालू को ठेल कर कुछ ऊपर चढ़ आया था। जहाज़ तक जाने में मुझे पाव मील रास्ता पानी में तय करना पड़ा। अभी भाटे का समय था, अतएव मैं नीचे ही की राह से जहाज तक गया। जहाज़ को देख कर मैं पहले बहुत अचम्भे में आगया। फिर [ ८३ ]
मैंने समझा कि यह भूकम्प का ही काम है। भूकम्प के कारण जहाज़ और भी टूट फाट गया था। इससे उसकी कितनी ही वस्तुएँ ज्वार के समय उपला उपला कर किनारे आने लगीँ।

इस नूतन घटना ने मेरे रहने के लिए जगह चुनने का संकल्प एक रूप से भुला दिया। अब मैं इस फ़िक्र में लगा कि जहाज़ के भीतर किसी तरह घुस सकता हूँ या नहीं। जहाज़ के भीतर बालू भर गई थी, इससे भीतर घुसने की आशा एक तरह क्षीण सी होगई थी, किन्तु मैंने हताश न होकर एक युक्ति सेची। युक्ति यही कि यदि जहाज़ के भीतर न जा सकूँगा तो उसके टुकड़े टुकड़े करके ऊपर ले जाऊँगा। कारण यह कि मुझे जो कुछ भी मिल जाता था वही कभी न कभी मेरे किसी न किसी काम में आ जाता था।

मैंने कुल्हाड़ी से एक डेक की कड़ी को काट डाला और उस पर से, जहाँ तक हो सका, बालू को निकाल फेंका। किन्तु ज्वार आते देख मुझे इस काम से निवृत्त होना पड़ा।

४ मई--मैं मछली पकड़ने गया, किन्तु खाने योग्य एक भी मछली न पकड़ सका। जब मैं मछली का शिकार ख़तम कर चलने पर हुआ तब मैंने एक छोटी सी डौलफ़िन (एक प्रकार की सामुद्रिक मछली) पकड़ी। मैंने सूत की रस्सी से डोरा निकाल कर मछली पकड़ने की तग्गी बना ली थी, किन्तु मेरे पास बनसी न थी। तो भी मैं अपने खाने भर को यथेष्ट मछली पकड़ लेता था। मैं मछलियों को धूप में सुखा कर रख छोड़ता था और सूखी मछलियाँ ही खाता था।

पाँचवीं मई से पन्द्रहवीं जून तक--खाने और सोने आदि का आवश्यक समय छोड़ कर जो समय बचता था [ ८४ ]
उसे मैं भग्न जहाज के लूटने ही में लगाता था। लकड़ी का तख़्ता, लोहा, सीसा आदि जो कुछ पाता था ले आता था।

सेलहवीं जून--मुझे समुद्र के किनारे एक कछुआ मिला।

सत्तरहवीं जून--मैंने कछुए को पकाया, उसके पेट में ६० अंडे थे। जब से यहाँ आया तब से लगातार बकरों और चिड़ियों का मांस खाते खाते जी ऊब गया था। आज कछुए का मांस बड़ा स्वादिष्ट जान पड़ा। मानो ऐसा स्वादिष्ट पदार्थ आज तक मैंने जीवन भर में कभी न खाया था।