राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो की बीमारी

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राबिनसन-क्रूसो  (1922) 
द्वारा डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

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क्रूसो की बीमारी

अट्ठारहवीं जून से चौबीसवीं जून तक--दिन भर पानी बरसता रहा, इस कारण मैं घर से बाहर न निकल सका। कुछ कुछ जाड़ा भी मालूम होने लगा। धीरे धीरे सारा शरीर काँपने लगा। मैं रात भर बेचैन पड़ा रहा। सिरदर्द के साथ साथ बुखार चढ़ आया। क्रमशः बेचैनी बढ़ने लगी। इस मानवशून्य टापू में अकेला मैं, बीमारी के भय से ही, अधमरा सा हो गया। हल बन्दर के तूफ़ान के बाद आज मैंने फिर परमेश्वर से प्राणरक्षा के लिए प्रार्थना की। पर मैंने उन से क्या क्या कहा, यह मुझे स्मरण नहीं। उस समय मेरा मन ऐसी घबराहट में था कि मैं एकदम हतज्ञान सा हो रहा था। मेरी बुद्धि ठिकाने न थी। दो एक दिन कुछ अच्छी हालत रही, फिर दो एक दिन बहुत ख़राब मालूम होने लगी। सिर के दर्द से मैं और भी अधिक कष्ट पा रहा था। [ ८५ ]पच्चीसवीं जून--आज बड़े वेग से ज्वर चढ़ आया। पहले खूब जाड़ा लगा, इसके बाद दाह हुआ, और अन्त में पसीना आया। सात घंटे तक ज्वर रहा।

छब्बीसवीं जून--आज तबीयत कुछ अच्छी थी, पर कमज़ोरी बहुत थी। घर में कुछ खाने को न था, क्या करता ? बन्दूक लेकर बाहर निकला। एक बकरी को मार कर बड़े कष्ट से उसे उठा कर घर लाया। थोड़ा सा मांस भून कर खाया। इस समय यदि मांस का यूष बना कर पीता तो अच्छा होता; परन्तु मेरे पास शोरबा बनाने के लिए कोई बर्तन न था, कैसे राँधता?

२७ जून--आज फिर खूब जोर से बुखार हो आया। दिन भर बिछौने पर भूखा पड़ा रहा। प्यास से छाती फटी जाती थी किन्तु उस समय इतनी शक्ति न थी कि उठ कर पीने के लिए पानी ले सकूँ। मैं ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। मेरा दिमाग खाली मालूम होता था। जब न भी ख़ाली जान पड़ता था तब भी मैं ठीक न कर सकता था कि क्या कह कर ईश्वर का भजन करूँ। मैं सिर्फ़ बार बार यही कहने लगा, "प्रभो, एक बार मेरी ओर देखो, मुझ पर दया करो। मेरी रक्षा करो।" दो तीन घंटे बाद ज्वर का वेग कुछ कम पड़ने पर मैं सो गया। रात ज़्यादा बीतने पर नींद टूटी।

नींद टूटने पर मैंने अपने को बहुत स्वस्थ पाया। किन्तु कमजोरी बहुत थी। प्यास के मारे कण्ठ सूख रहा था। घर में पानी न था। प्यास को रोक कर फिर सोने की चेष्टा करते करते कुछ देर में सो रहा। मैंने सपना देखा कि मैं अपने घेरे के बाहर भूकम्प के दिन जहाँ बैठा था वहीं बैठा [ ८६ ]
हूँँ। इतने में देखा कि एक मनुष्य काले बादल के भीतर से निकल कर आग के रथ पर चढ़ा हुआ नीचे की ओर आ रहा है। उस मनुष्य का शरीर भी तेजो-मय था। ऐसा देदीप्यमान कि मैं उस ओर देख नहीं सकता था। उस व्यक्ति का मुँँह और भौंहें बहुत टेढ़ी थीं। रूप अत्यन्त भयङ्कर था। उसके धरती पर पैर रखते ही खूब ज़ोर से भूकम्प होने लगा और आकाश से तारे टूट टूट कर गिरने लगे। वह भयानक रूपधारी व्यक्ति धरती पर उतरते ही मेरी ओर अग्रसर होने लगा। उसके हाथ में एक अग्निमय जलता हुआ त्रिशूल था। वह मेरी ओर शूल उठा कर वज्रस्वर से बोला-–"अरे पापिष्ट! क्या इतने पर भी तेरे मन में अनुताप न हुआ। तो अब तू मर।" यह कह कर वह शूल लेकर मुझको मारने पर उद्यत हुआ।

उस समय मेरे मन में जैसा डर हुआ था उसे मैं इस समय किसी तरह कह कर समझाने में अक्षम हूँ। निद्रित अवस्था में जो मुझे भय हुआ था वह तो हुआ ही था, जागने पर भी घंटों तक कलेजा धड़कता रहा। उसकी वह भयङ्कर मूर्ति और वह वज्रस्वर अब भी जी से नहीं भूलता।

मैं यथार्थ में अभागा हूँँ। क्योंकि ईश्वर के सम्बन्ध में मेरा कोई ज्ञान न था। मैंने अपने पिता से जो कुछ शिक्षा पाई थी वह, इतने दिन कुसंगति में पड़े रहने से, एकदम लुप्त हो गई थी। सम्पत्ति में ईश्वर से डरना, विपत्ति के समय उन्हीं के ऊपर निर्भर होकर रहना, और विपदा से मुक्त होने पर हृदय से उनका कृतज्ञ होना मैंने नहीं सीखा। इतने दिन जो भाँति भाँति के क्लेश सह रहा हूँँ, वह मेरे ही पाप का फल है या [ ८७ ]
ईश्वर का दिया दण्ड है--यह मैं कभी न समझता था। पिता की आज्ञा के विरुद्ध आचरण कर के मैं पशु की भाँति सब कष्टों को सहता गया। जब मैंने विपत्ति से छुटकारा पाया तब भी मेरे मन में कृतज्ञता का भाव उदित न हुआ।

बीच बीच में बिजली की चमक की तरह हृदय में एक अनिर्वचनीय आनन्द की झलक आ जाती थी, पर वह स्थिर न रहती थी। उस आनन्द को स्थायी करने की चेष्टा करने से कदाचित् प्रेमानन्द प्राप्त हो सकता। भयङ्कर विपत्ति में जब आशा का क्षीण प्रकाश उदित होता है तब उसे ईश्वर की करुणा समझ कर हृदय में धारण करते नहीं बनता। इस तरह का विचार कभी मेरे मस्तिष्क में आता ही न था।

किन्तु इस समय मैं, असहाय अवस्था में, ज्वर से पीड़ित हो कर सामने मृत्यु की विभीषिका देखने लगा। ज्वर की पीड़ा से शरीर दुर्बल, निस्तेज और निःशक्त हो गया। तब इतने दिनों की निद्रित-प्राय धर्म्म-बुद्धि और विवेक कुछ कुछ जाग्रत होने लगा। ज्वर की यातना और विवेक की ताड़ना से मैं उसी अज्ञान दशा में ईश्वर की उपासना करने लगा। मैंने ईश्वर से क्या प्रार्थना की, उनसे क्या माँगा, यह स्मरण नहीं। याद केवल इतना ही है कि अश्रु से बिछौना और तकिया भीग गया था। इतनी देर में सुध आई कि पिता ने कहा था--"बाप की बात टालने से भगवान् अप्रसन्न होंगे और तुम्हारा अकल्याण होगा।" आज मैं इस वाक्य की सच्चाई का अनुभव करने लगा। मैंने खूब ज़ोर से चिल्ला कर कहा--"भगवन्! इस सङ्कट में तुम मेरी रक्षा करो।" ईश्वर से यही मेरी पहली प्रार्थना थी। [ ८८ ]२८ जून--सोने से कुछ आराम पा कर मैं जाग उठा। ज्वर उतर चुका था। स्वप्न में जो भयङ्कर दृश्य देखा था वह जागने पर भी आँखों के सामने मानो नाच रहा था। यद्यपि स्वप्न का प्रभाव तब भी मेरे मन में पूर्ण-रूप से विद्यमान था। तथापि यह जान कर कुछ धैर्य हुआ कि ज्वर आने की पारी कल होगी। आज जहाँ तक हो सके कल के लिए सब चीज़ों का बन्दोबस्त कर लेना चाहिए। सबसे पहले एक बड़ी चौपहलू बोतल में पानी भर कर सिरहाने के समीप टेबल पर रख दिया और पानी का विकार दूर करने के लिए उस बोतल में थोड़ी सी शराब डाल दी। इसके बाद बकरे का मांस पकाया, पर अरुचि के कारण कुछ खा न सका। मैं धीरे धीरे टहलने लगा। किन्तु शरीर अत्यन्त दुर्बल था और मन चिन्ता के बोझ से दबा हुआ था। कल फिर ज्वर की यातना भोगनी पड़ेगी, इस भावना से चित अत्यन्त दुखी था। रात में कछुए के तीन अंडों को पका कर खाया। मैंने अपने जीवन में आज ही पहले पहल भगवान् को निवेदन कर के भोजन किया।

मैंने ज़रा बाहर घूमने की चेष्टा की। परन्तु दौर्बल्य इतना था कि मैं बन्दूक़ न उठा सका। बिना बन्दूक़ लिये मैं कभी बाहर टहलने नहीं जाता। इससे निरस्त हो कर कुछ दूर आगे जा धरती पर बैठ रहा। देखा, सामने अनन्त उदार नीला समुद्र है, माथे के ऊपर अनन्त नील आकाश है, इन दोनों के बीच मैं एक क्षुद्रत्तम जीव हूँ। तब मेरे जी में यह भावना होने लगी कि यह जो विशाल समुद्र-मेखला पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए है, ये जो कितने ही देश भिन्न भिन्न प्रकार के दिखाई देते हैं, ये सब क्या हैं? इन की उत्पत्ति कहाँ से कैसे
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हुई? अथवा ये जो भाँति भाँति के स्थावर, जङ्गम, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि देख पड़ते हैं, यही क्या हैं? हम लोग पहले क्या थे? कहाँ से किस तरह आये? वह कौन सी गुप्तशक्ति है जो इन विचित्र पदार्थों की रचना कर के एक अद्भुत कला दिखला रही है? मैंने मन ही मन सोचते सोचते यह निश्चय किया कि वह शक्ति ही परमेश्वर है, वही संसार का कर्ता हर्ता सब कुछ है। उसीके इशारे पर, उसीके भृकुटि-विलास पर संसार के सभी काम हो रहे हैं।

यह विचार-परम्परा उत्तरोत्तर मेरे मन में अपना घर बनाने लगी। मैं चिन्ता से व्याकुल हो उठा और दीवार के सहारे धीरे धीरे अपने घर की ओर चला। घर के भीतर आ कर मैं बिछौने पर लेट रहा। तब भी मुझे नींद न आई। मैं कुरसी पर बैठ कर सोचने लगा, कल फिर बुखार चढ़ेगा। जी में अत्यन्त डर लगा। एकाएक मुझे यह बात याद हो आई कि ब्रेज़िल के लोग किसी औषध का सेवन नहीं करते। सभी रोगों में उनका एकमात्र औषध है तम्बाकू। मेरे साथ भी थोड़े से तम्बाकू के पत्ते थे।

मैं सचमुच ही भगवान् के द्वारा प्रेरित हो कर दराज़ के पास गया। दराज़ खोलने पर मुझे देह और मन का औषध एक ही साथ मिला। दराज़ से तम्बाकू और एक धर्मशास्त्र (बाइबिल) का ग्रन्थ ले कर मैं टेबल पर, जहाँ चिराग़ रक्खा था, आया। तम्बाकू से ज्वर की चिकित्सा किस तरह की जाती है, यह मैं न जानता था। और तम्बाकू की इस आसुरी चिकित्सा से मेरे घर में फ़ायदा होगा या नुक़सान, इसका भी मैं कुछ निर्णय न कर सका। तो भी मैंने अनेक उपायों से तम्बाकू सेवन करने का संकल्प किया। कैसा ही [ ९० ]
कोई औषध क्यों न हो वह बीमारी में कुछ न कुछ फ़ायदा कर सकता है। मैं पहले थोड़ी सी तम्बाकू लेकर चबाने लगा। तम्बाकू खाने की मुझे आदत न थी, इससे थोड़ी ही देर में सिर घूमने लगा। इसके बाद मैंने थोड़ी सी पत्ती को शराब में भिगो कर रक्खा। यह इसलिए कि उसे सोने के समय पीऊँगा। आख़िर मैंने एक मलसे (मिट्टी के बर्तन) में तम्बाकू रख कर आग पर रख दी। तम्बाकू जलने पर उसका धुआँ ऊपर की ओर उठने लगा। मैं उस धुएँ का गन्ध ग्रहण करने लगा। किन्तु मैं आग का उत्ताप और उस धुएँ का उत्कट गन्ध सहन न कर सका।

इसके बाद मैंने पढ़ने की इच्छा से बाइबिल हाथ में ली, परन्तु मेरा सिर इस कदर घूम रहा था कि पढ़ न सका। पोथी खोलते ही जिस जगह दृष्टि पड़ी वहाँ लिखा हुआ था--संकट में मेरी शरण गहो, मैं तुमक संकट से उबारूँगा और तुम मेरी महिमा का कीर्तन करोगे।

यह बात मेरे जी में बहुत ठीक जँची। यह मेरे मन में एक तरह से अङ्कित होगई, किन्तु "उबारूँगा" शब्द का ठीक अर्थ उस समय मेरी समझ में न आया। अपना उद्धार होना मुझे इतना असंभव मालूम होता था कि मेरे अविश्वासी मन में यों प्रश्न उठने लगा--क्या ईश्वर यहाँ से मेरा उद्धार कर सकेंगे? यद्यपि बहुत दिनों से उद्धार होने की कोई संभावना देख नहीं पड़ती थी तथापि आज से मेरे मन में इस वाक्य पर कुछ कुछ भरोसा होने लगा।

तम्बाकू का नशा मेरे मस्तिष्क पर अपना पूर्ण अधिकार जमाने लगा। मेरी आँखें झपने लगीँ। सोने के पहले मैंने [ ९१ ]
धरती में घुटने टेक कर भगवान् से प्रार्थना की। अपने जीवन में भक्ति-पूर्वक आज ही मैंने ईश्वर से क्षमा माँगी। ईश्वराराधन के बाद तम्बाकू से मिली हुई शराब को मुँह में डाला। वह ऐसी कड़वी और तेज़ थी कि घोटी नहीं जाती थी। किसी किसी तरह घोट कर सो रहा। पीछे रात में कहीं कोई आवश्यकता हो, इस कारण चिराग़ को न बुझाया। उसे जलता ही रहने दिया।

तम्बाकू का नशा धीरे धीरे मेरे सर्वाङ्ग में फैल गया। मैं शीघ्र ही गाढ़ी नींद में सो गया। जब मेरी नींद टूटी तब तीन बजने का समय था। मालूम होता है, दो दिन दो रात तक बराबर सोकर आज तीसरे दिन तीसरे पहर मेरी नींद खुली। कारण यह कि कई वर्ष बाद मैंने देखा कि तारीख़ की गणना में एक दिन न मालूम कैसे घट गया था। सोचते सोचते मैंने इस बात का पता लगाया कि तम्बाकू के नशे में सारी रात सोकर दूसरे दिन भी मैं दिन-रात सोता ही रहा और तीसरे दिन तीसरे पहर में मेरी आँख खुली। बेहोशी के कारण यह बात उस समय मेरी समझ में न आई। तीसरे दिन को मैं दूसरा दिन समझ बैठा। इसीसे तारीख़ में एक दिन की कमी हो गई।

जो हो, जब मैं जाग उठा तब शरीर हलका मालूम होने लगा और मन भी बहुत प्रसन्न और फुरतीला था। मैं उठकर खड़ा हुआ तो देखा कि पूर्व दिन की अपेक्षा शरीर में कुछ ताक़त मालूम हुई और भूख भी इसके दूसरे दिन भी ज्वर न हुआ बल्कि तबीअत बहुत अच्छी थी। आज २९ वीं तारीख़ है।

तीसवीं जून--आज बुख़ार के आने का दिन न था। मैं बन्दूक़ लेकर बाहर गया, पर बहुत दूर न जा सका। मैं हंस [ ९२ ]
की क़िस्म के दो जल-पक्षियों को मार कर घर लौट आया। किन्तु उनके खाने की इच्छा न हुई। कछुए का अण्डा खाया। खाने में बहुत अच्छा लगा। आज भी सेाने के समय तम्बाकू मिली थोड़ी सी शराब पी ली। तो भी दूसरे दिन कुछ जाड़ा मालूम हुआ। पर ज्वर का वेग प्रबल न था। आज पहली जुलाई थी।

दूसरी जुलाई--आज तम्बाकू का विविध प्रक्रिया से अर्थात् चूर्ण, धूम और काढ़ा बना कर सेवन किया।

ज्वर एकबारगी जाता रहा। किन्तु पूर्ववत् बल प्राप्त करने में कई सप्ताह लगे। मेरे मन में हमेशा ही इस बात का स्मरण बना रहने लगा, "मैं तुम्हारा उद्धार करूँगा।" मैं इस विपत्ति से उद्धार पाने की चिन्ता से ऐसा व्याकुल हो उठता था कि पहले की कई बार की विपदाओं से उद्धार पाने की बात एकदम भूल जाता था। किन्तु कुछ ही देर में चैतन्य होने पर मेरा चित्त कृतज्ञता से फूल उठता था। आज हाथ जोड़ कर और घुटने टेक कर भगवान् को, रोग मुक्ति के लिए, मैंने धन्यवाद दिया।

मैं अब सुबह और शाम दोनों वक्त बाइबिल पढ़ने लगा और अपने व्यतीत जीवन की अधार्मिकता पर अत्यन्त व्यथित और लज्जित होने लगा। मैं स्वप्न की बात स्मरण कर के भगवान् से क्षमा की भिक्षा माँगता, अपने पाप पर बार बार अनुताप करता और एकाग्र मन से ईश्वर का ध्यान करता था। मनुष्य-जीवन की सार्थकता के लिए यही मेरी प्रथम उपासना थी, भगवद्-वाक्य में यही मेरा प्रथम विश्वास था। भगवान् मेरी प्रार्थना सुनेंगे, इस आशा का आरम्भ इसी समय से मेरे मन में हुआ। [ ९३ ]उद्धार का नवीन अर्थ आज मेरे हृदय में प्रतिभासित हुआ। पाप के पंजे से, मन के मोहरूपी कारागार से, स्वार्थपरता के एकावलम्बन से उद्धार पाना ही यथार्थ उद्धार है। मैं समझ गया कि इस द्वीप से उद्धार होने की अपेक्षा अन्यान्य दैहिक और मानसिक अवस्थाओं से पहले मेरा उद्धार होना आवश्यक है। इस जनशून्य द्वीप से छुटकारा पाने का उद्वेग दूर हुआ। इसके लिए मैंने फिर ईश्वर से कभी प्रार्थना भी नहीं की।

इस समय मेरी जीवनयात्रा कष्टकर होने पर भी मेरा चित्त शान्त भाव से सन्तुष्ट था। मैंने जो हृदय में शान्ति पाई थी उसका पहले कभी अनुभव तक न हुआ था। मैं धीरे धीरे बलिष्ठ हेकर फिर यथासाध्य घर का काम धन्धा करने लगा।

मैंने जिस उपचार के द्वारा ज्वर में चिकित्सा की थी उसीसे मेरा ज्वर जाता रहा या श्राप ही निवृत्त हुआ, यह मैं नहीं जानता। किन्तु इस प्रक्रिया से मेरा शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था और बीच बीच में नाड़ी और अङ्ग प्रत्यङ्ग में पीड़ा हुआ करती थी। इस ज्वर से मुझे थोड़ा सा सही ज्ञान हुआ कि बरसात में मस्तिष्क की दशा अच्छी नहीं रहती और ज्वर विशेष अस्वास्थ्यकारी होता है। शरद ऋतु की वर्षा से ग्रीषम की वर्षा विशेष हानिकारक होती है।